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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 07 मई, 2020 08:23 PM
प्रणव झा
प्रणव झा
 
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देश के बंटवारे के बाद, कोविड लॉकडाउन जनित अब तक की सबसे बड़ी मानव पलायन त्रासदी ने हमारी अर्थिक, समाजिक और विशेषकर राजनीतिक व्यवस्था के खोखलेपन को पूरी तरह से बेपर्दा कर दिया है. पैंतालीस दिनों तक भूखे प्यासे, थके हारे ढोर डंगर- माल गोरू की तरह अनिश्चितता की तरफ बढ़ते हमारे प्रवासी मजदूर एक पूर्णतयः ध्वस्त और असंवेदनशील सरकारी व्यवस्थाओं का हाल बयां करते रहे. संवेदनहीनता का आलम ये रहा कि पहले बसों मे भर कर इंसानों की ढुलाई शुरु हुई, फिर रेल की तैयारी कर इन दो जून की रोटी से लाचार लोगों से भाड़ा लिया जाने लगा. खैर जो भी हो चालिस दिनों की कवायद के बाद सरकारों ने मिल कर COVID के वायरस को विधिवत ग्रामीण भारत- विशेषकर जर्जर ढांचगत व्यवस्था वाले पूर्वी राज्यों मे पहुंचाने का काम बाकायदा कर ही दिया. देश मे अब तक के 75 प्रतिशत से अधिक कोविड पॉजिटिव मामले मात्र 13 शहरी क्षेत्रों मे केंद्रित हैं और जो प्रवासी श्रमिक अपने गांवों-राज्यों मे लौट रहे हैं, उनमे 90 प्रतिशत इन्हीं 13 नगरों से हैं. बिहार, झारखंड, छत्तिसगढ़ से आने वाले नये कोविड पॉजिटिव मामले ज्यादातर घर लौटे प्रवासियों मे पाये जा रहे हैं और यदि यही ट्रेंड बरकरार रहे तो इन राज्यों के लिये परिणाम अत्यंत गम्भीर होंगे.

Coronavirus, Lockdown, Migrant Workers, PM Modi लॉक डाउन के कारण सबसे बड़ा संकट मजदूरों के जीवन पर देखने को मिला है जो पलायन करने पर मजबूर हैं

पिछ्ले दो दशकों मे प्रगती के बावजूद, अनेक ऐतिहासिक और नीतिगत कारणों से पूर्वी उत्तर प्रदेश सहित पूर्व के राज्य विकास के लगभग सभी पैमानों पर अभी भी बाकी भारत की तुलना मे बहुत पिछड़े हुये हैं. मूलभूत नागरिक सुविधाओं, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, औद्योगिकरण, राजस्व और आपद स्थिति से निपटने की अर्थिक क्षमता मे अक्षम इन राज्यों मे प्रवासी श्रमिकों के लौटने से उत्त्पन स्थिति का समुचित निवारण कर पाना बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण होगा.

भारत के इस हिस्से मे लगभग 150 वर्षों से व्याप्त अभाव और गरीबी ही इस बात का भी कारण रहा कि निरंतर यहां से आजीविका की तलाश मे मजदूरों का पलायन होता रहा. देश के पश्चिम, उत्तर और दक्षिण मे अंतर्देशीय पलायन के अलवा 19वीं और 20वीं सदी मे इन पूरबियों का अनेक तत्कालीन उपनिवेसों मे भी इंडेनचर्ड लेबर के रूप मे पलायन हुआ. पर जहां विदेशों मे ये लेबर देशों के सम्मानित नागरिक और रह्नुमा बन गये, वहीं हिन्दुस्तान के उत्तर, पश्चिम और दक्षिण को अपनी जवानी, खून, पसीना, लगन और मेहनत दे कर स्मृद्ध बनाने के बावजूद आजादी के 70 साल बाद भी, ये मजदूर काम पूरा होते ही छंटाई योग्य डंगर मात्र ही रहे.

दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत सरकार एवं इन मजदूरों से लाभान्वित सबसे संपन्न राज्य, खासकर महाराष्ट्र, दिल्ली एवं गुजरात संकट के इस समय अपने प्रवासी मजदूरों का ख्याल रख पाने में पूर्णतः विफल रहे. बंद हो चुके उद्योग, क्वैरेंटाईन घर, ठप्प पड़ी आर्थिक गतिविधि के मध्य दिहाड़ी मजदूरों, कामगारों, नौकर, नौकरानी एवं अनेक कुशल व अकुशल प्रवासी श्रमिकों की दशा अनुपयोगी मवेशियों की भांति हो गई. दूसरी चीज यह सामने आई कि अचानक बेरोजगार हुए इन लोगों को केंद्र सरकार की ओर से कोई भी वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं कराई गई तथा राज्य सरकारों द्वारा उन्हें किसी न किसी तरह से वापस भेजे जाने के कुत्सित खेल चलते रहे.

मदद के स्वांग के बीच असल स्थिति यह रही कि उन्हें खाना व जरूरत की अन्य सामग्री तक उपलब्ध नहीं हो पा रही थी और भाग जाने के लिये उकसाने वाले अफवाहों का बाज़ार गर्म था. किसी भी नैतिक अथवा व्यवहारिक मानकता की कसौटी पर सिर्फ और सिर्फ यही बात खरी उतरेगी कि वक़्त के मारे इन मजदूरों को संकट की इस अवधी के दौरान वह जहां भी कार्यरत थे वहां उनके मालिक और राज्य सरकारें उनके राशन पानी तथा आवास का प्रबंध करते और भारत सरकार उनको 3500 रूपये की न्यूनतम आय मुहैया कराती.

पर ऐसा कुछ नही हुआ और परिणाम यह है कि आज लगभग 30 लाख प्रवासी बिहार, 18 लाख प्रवासी उत्तर प्रदेश और 8 लाख प्रवासी झारखंड पहुंचाये जाने की प्रक्रिया मे हैं. कुछ को बसों मे पहुंचाया जा रहा जिन्हे उनके गृह राज्य लेने को तैयार नही, अनेक मुंबई इत्यादि मे अपने मैडिकल सर्टिफ़िकेट बनवा रहे हैं जिसके लिये उनसे अनाप शनाप पैसे लिये जा रहे हैं.

ये सर्टिफ़िकेट भी कोई कोविड मुक्त होने बावत नही हैं. हद तो ये है कि अचानक अर्थिक अवसर देख, अनेक राज्य अब इन्हे वापस नही जाने दे रहे. अंतोत्गातवा, इनकी अपनी मर्ज़ी कोई मायने नही रखती. पहले से ही बोझ तले दबे इन राज्यों की व्यवस्थाओं पर इस अतिरिक्त भार का क्या असर पड़ेगा यह समझना कोई मुश्किल काम नही है. संक्रमण के गढ़ों से लौटते इन लोगों मे यदि 0.1 प्रतिशत व्यक्ति भी COVID पॉजिटिव हुये तो यह संख्या क्रमशः 3000, 1800 और 800 होगी. क्या उक्त राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्था इस स्थति से निबटने मे सक्षम है?

इसके अतिरिक्त, आने वाले लोगों का सिर्फ लसेर थर्मामीटर से जांच कर उन्हे आने दिया जा रहा है- इसका साफ अर्थ है कि उन्हे गृह राज्य पहुंचने पर, घर भेजने से पहले 14 से 21 दिन क्वारनटीन करना होगा. क्या ये व्यवस्था की गई है? यदि नहीं तो परिणाम भयावह हो सकते हैं. अगर केवल बिहार का उदाहरण लें तो अब तक यहां लगभग 550 कोविड पॉजिटिव केस हैं. वहीं यहां आने वाले प्रवासी मजदूर प्रमुखतः जिन राज्यों से आ रहे हैं- महाराष्ट्र, दिल्ली और गुजरात- वहां कोविड रोगियों की संख्या क्रमशः 15000, 6000 और 7000 है.

कभी सनातनी संस्कृति की प्रारम्भिक क्रीड़ास्थली और मौर्य, गुप्त तथा सूर सामराज्यों का केंद्र रहा देश का यह भूभाग, विक्रमशिला, उदन्तपुरी और नालंदा विश्वविद्यालय की भूमि और भगवान बुद्ध तथा महावीर की ये धरती कालांतर मे पिछड़ते पिछड़ते एक बर फिर भयानक अनिश्चितता के सन्मुख खड़ी है. परंतु शायद अभूतपूर्व संशय की आगत परिस्तिथियों मे ही यहां के पुनरुत्थान और पुनर्जागरण के बीज भी छुपे हैं. संकट की यह स्थिति चुनौतियों के साथ अवसर भी ले कर आयी है.

जिन राज्यों की ओर लोगों का पलायन हुआ है, वहां क्वैरेंटाईन व इलाज के बाद पहुंचने वाले इस प्रवासित कार्यबल के लिए रोजगार व आजीविका उप्लब्ध कराना सबसे बड़ी चुनौती होगी. यही चुनौती उनके लिए एक अवसर भी है. जहां मनरेगा नियमों में बदलाव कर अन्य गतिविधियों को इसमें शामिल करने और मोदी सरकार द्वारा इसका फंड बढ़ाए जाने से तत्कालिक राहत मिल सकेगी, वहीं नीतिश कुमार, हेमंत सोरेन और योगी आदित्यनाथ की सरकारों को एक साथ सरकारी खर्च बढ़ाना होगा और उन सेक्टर्स में निजी निवेश को बढ़ावा देना होगा, जिन्हें दशकों से नजरंदाज किया जाता रहा.

ज्यादा अस्पताल, लैब्स एवं सम्बंधित स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण तथा बेहतरीन स्कूल एवं उच्च शिक्षा के संस्थानों की स्थापना से न केवल रोजगार निर्माण होगा बल्कि राज्य से बाहर क्रमशः इलाज व शिक्षा के लिए जाने वाले मरीजों एवं विद्यार्थियों के साथ बाहर जाने वाला पैसा भी राज्य में ही रहेगा. वापस आने वाले श्रमिकों में अनेक हुनरों से लैस हैं. हज़ारों टेलरिंग, जरदौज़ी, कैंडल मेकिंग, ग्रूमिंग एवं हाॅर्टिकल्चर आदि में निपुण कुशल श्रमिक हैं.

सरकार को इन लोगों को प्रोत्साहन देने के साथ ऐसी यूनिटों की स्थापना को बढ़ावा देना होगा, जो न केवल उन्हें व अन्य लोगों को रोजगार दें, अपितु आर्थिक गतिविधि को त्वरित कर आय और रोजगार का निर्माण भी करें. कृषि इन राज्यों का मुख्य व्यवसाय है. खेती मे उत्पादकता व लाभ बढ़ा कर उसे फायदेमंद व्यवसाय बनाना होगा ताकि इस क्षेत्र में भी रोजगार का निर्माण हो. वेयर हाउसिंग एवं प्रोसेसिंग की सुविधाओं के साथ काॅन्ट्रैक्ट फार्मिंग से इसमें निश्चित मदद मिलेगी.

बिहार व झारखंड मिलकर भारत में सब्जियों व फलों के तीसरे सबसे बड़े उत्पादक हैं. फूड प्रोसेसिंग, डेयरी, चीनी, मैन्युफैक्चरिंग एवं निर्माण इन राज्यों में सबसे तेजी से बढ़ते उद्योगों में हैं. इन क्षेत्रों में निवेश से न केवल राज्य को मदद मिलेगी, बल्कि वापस आते इन प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर भी निर्मित होंगे. इन सब के साथ सबसे आवश्यक यह होगा कि ये राज्य- खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश अपने यहां औद्योगिकरण मे व्याप्त जड़ता को विधिवत और नीतिगत तरीके से समाप्त करें.

इस दिशा मे पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम ये होगा कि बिहार और झारखंड की सरकारें उद्योग के लिये जमीन उप्लब्ध करायें. कोविड के कारण चीन तथा अन्य देशों को छोड़ कर अन्य देशों मे अपने प्लांट और इकाई लगाने को तत्पर कंपनियों और औद्योगिक घरानों को अपने यहां आकर्षित करने का इससे अच्छा मौका नही हो सकता.

पर्याप्त और सस्ता श्रमिक बल, पानी, जमीन, भरपूर कनेक्टिविटी एवं खनिजों की दृष्टि से पर्याप्त संसाधनों के साथ इन दो राज्यों में निजी या सार्वजनिक उद्योगों का पसंदीदा और यथोचित स्थान बनने के सभी गुण हैं. साथ ही इसके लिए लालफीताशाही और सरकारी अड़चनों को भी समाप्त किया जाना जरूरी होगा. यदि यह चुनौती अवसर में बदलेगी, तो इन पिछड़े राज्यों में दीर्घकालिक व अभूतपूर्व विकास के अवसर उत्पन्न होंगे.

सबसे बड़ी बात यह होगी कि पूरबियों, बिहारियों व झारखंडवासियों को फिर कभी आजीविका की तालाश मे प्रवासी मजदूर बनने की मजबूरी नही होगी और उपयोगिता समाप्त होने पर तिरस्कृत कर भगा दिये जाने का भय भी. यदि हमारा राजनैतिक नेतृत्व यह करने मे सफल होता है तो रोजगार की तलाश में राज्यों के बाहर जाने का कुचक्र समाप्त होगा और राज्यों को अपने मानव संसाधन के प्रभावशाली उपयोग का सुनहरा अवसर प्राप्त होगा.

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लेखक

प्रणव झा प्रणव झा

लेखक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में सचिव हैं

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