भारतीय सेना का बजट चीन - पाकिस्तान को राहत ही देगा
रक्षा की तीनों सेनाओं के नए उपकरणों की खरीद के लिए अनुमानत: 1,72,203 करोड़ रुपये की जरुरत होती है. लेकिन उन्हें केवल 93,982 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे. इतनी रकम तो पहले से खरीदे जा चुके उपकरणों की किस्त के बराबर भी नहीं हैं.
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2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि सेना की स्थिति में सुधार आएगा. मोदी सरकार ने लीक से हटकर सैनिकों की बहादुरी का सम्मान किया और खुद को एक राष्ट्रवादी सरकार बताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. लेकिन रक्षा मंत्रालय के संसदीय स्थायी समिति की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, जब यह भारतीय सेना के लिए पैसे देने की बात आई, तो सरकार की देशभक्ति की कमी साफ दिखती है.
इस बात के साफ संकेत आंकड़ों को देखने से मिलते हैं. रक्षा बजट का हिस्सा औसतन हमारे जीडीपी का 2 प्रतिशत रहता था, लेकिन पिछले दो सालों से ये आंकड़ा गिरकर क्रमश: 1.56 प्रतिशत और 1.49 प्रतिशत हो गया है.
पुराने उपकरण-
भाजपा के वरिष्ठ सांसद मेजर जनरल (रिटायर्ड) बीसी खंडुरी की अध्यक्षता वाली कमेटी इस निष्कर्ष पर पहुंची कि सेना के 68 प्रतिशत उपकरण पुराने हो चुके हैं. सेना के वाइस चीफ लेफ्टिनेंट जनरल सरत चंद ने समिति को बताया कि "नियमित रखरखाव की जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए अपर्याप्त निधियों का आवंटन, कमियों को पूरा करना, आपदाओं के समय की तैयारी... निश्चित रूप से इस सभी पर एक नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. इससे समय पर भुगतान न करने के कारण जो हम कानूनी मुद्दों का सामना कर रहे हैं, उसके अलावा हमारे उपकरणों की सेवा क्षमता भी प्रभावित होगी." और एक एरिया जो सीधे तौर पर प्रभावित होगी वो हैं- उरी, नागोटा और सुंजवां. इन इलाकों में आतंकी हमले के बाद यहां की सुरक्षा व्यवस्था बहुत जरुरी हो गई है.
आर्मी के पास हथियारों की किस्त चुकाने तक के पैसे नहीं
अगर आपको ये बताया जाए कि अगले वित्त वर्ष में रक्षा के लिए आवंटन 2,79,305 करोड़ रुपये का होगा, साथ ही पेंशन के लिए अतिरिक्त 1,08,853 करोड़ रुपये मिलेंगे, तो आपको गुमराह किया जा रहा है. क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी सेना हमारी है. और इनके वेतन और भत्ते पर खर्च के साथ साथ मौजूदा उपकरण और बुनियादी ढांचे को बनाए रखने के लिए काफी पैसा खर्च किया जाता है.
असली कहानी तो ये है कि जहां रक्षा की तीनों सेनाओं के नए उपकरणों की खरीद के लिए अनुमानत: 1,72,203 करोड़ रुपये की जरुरत होती है. लेकिन उन्हें केवल 93,982 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे. इतनी रकम तो पहले से खरीदे जा चुके उपकरणों की किस्त के बराबर भी नहीं हैं जो कि 1,10,043 करोड़ रुपये के लगभग है. अगर दूसरे शब्दों में कहें तो नए उपकरणों की बात तो भूल जाइए, सेनाओं ने जो उपकरण खरीद रखे हैं उनके भुगतान को भी पूरा करने की स्थिति में वो नहीं हैं.
सिर्फ 3,600 करोड़ रुपए दिए गए-
सेना 40 दिन लंबी लड़ाई के लिए गोला बारुद जमा करने के लिए शिद्दत से कोशिश कर रही है. इसमें से 10 दिन तो घमासान लड़ाई हो सकती है. इस क्षेत्र पर सबसे बुरा असर पड़ेगा. सरकार ने सेना को 2,246 करोड़ रुपए के सामान खरीदने की इजाजत दी थी और 9,980 करोड़ रूपए के समझौतों पर बातचीत हुई थी. कमी को पूरा करने के लिए सेना को 6,380 करोड़ रुपये की आवश्यकता है, लेकिन उन्हें सिर्फ 3,600 रुपये का आवंटन किया गया है. मतलब आज के समय में देश एक छोटी लड़ाई भी नहीं लड़ सकता है.
हमारी बेकार सुरक्षा प्रणाली का एक हानिकारक परिणाम यह है कि हम खुद को बनाए रखने के लिए भी आयात पर निर्भर हैं. स्टॉकहोम पीस अनुसंधान संस्थान (SIPRI) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2013-2017 की अवधि में भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक रहा है. यह पूरे विश्व का 12 प्रतिशत था और 2008-2012 से 2013-2017 के बीच आयात में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
कोई भी देश जबतक अपने हथियारों को खुद डिज़ाइन नहीं करता, अपने हथियारों को विकसित और विनिर्माण नहीं करता, तब तक एक महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति नहीं बन सकता है. इसके पीछे कारण यह है कि उपकरणों को अक्सर निर्माता अपने जरुरतों के हिसाब से बनाते हैं, ऐसे में हथियार खरीदने वाले देश की जरुरतों को ये पूरा करे ऐसा जरुरी नहीं.
आर्मी में सुधार की जरुरत
गौरतलब बात ये है कि हमारी सेना की ये स्थिति तब है जब रक्षा मंत्रालय की तरफ से सेना को चीन और पाकिस्तान से युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दिया हुआ है. अगर संसदीय समिति की रिपोर्ट को देखें तो चीन की भूल जाइए हमारी सेना तो पाकिस्तान तक से लड़ने के लिए तैयार नहीं है.
सुधार की जरुरत है-
हमारे सशस्त्र बलों की समस्याओं का समाधान सभी के सामने है और स्पष्ट है. सबसे पहले, सेना के सर्वोच्च प्रबंधन में गहरे सुधार की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि रक्षा मंत्रालय और तीनों डिफेंस सर्विसेज के उच्च मुख्यालय एक टीम के रूप में काम करते हैं.
रक्षा संगठन और नीति की समस्याओं से निपटने के लिए, राजनीतिक प्रमुखों, जैसे मंत्रियों और सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति, दो तरह के सेवाओं के सलाहों की जरुरत है- वर्दी वाले लोगों से और नागरिक सेवा वाले लोगों से.
दुर्भाग्य से, एक ओर जहां विशेषज्ञ सैन्य सलाह तो उपलब्ध है, लेकिन दूसरी तरफ नौकरशाही से उन्हें सिर्फ लाल फीताशाही ही मिलती है. विशेषज्ञता की कमी होने की वजह से तीनों रक्षा सेवाओं पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए नौकरशाही प्रक्रियात्मक बाधाओं का सहारा लेती है. इसने खरीद की प्रक्रिया को गैर-कार्यात्मक बना दिया है. और आधुनिकीकरण की योजनाओं में तीनों सेवाओं को कम से कम दस-पंद्रह साल पीछे कर दिया है.
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