Modi vs Mamata: इनसिक्योर पीएम vs इनसिक्योर सीएम
लग रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और ममता बनर्जी की आपसी जंग (Political Tussle) पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे आने के साथ खत्म हो जाएगी, लेकिन ये बढ़ती ही जा रही है - कहीं इसकी असली वजह दोनों के भीतर असुरक्षा की भावना तो नहीं?
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कोई मुकाम हासिल करने से मुश्किल उसे कायम रखना होता है. एक मुकाम हासिल होने के बाद दूसरे की चिंता भी खाये जाती है - और अगले मुकाम तक पहुंचने से पहले ही उसे लेकर मन में उमड़ते घुमड़ते ख्वाब फिक्र बढ़ा देते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) दोनों की ही हाल की गतिविधियों पर गौर करें तो ये सब दोनों ही नेताओं में कॉमन लगता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी में एक खास किस्म की समानता नजर आ रही थी. ममता बनर्जी के लिए 2021 की लड़ाई (Political Tussle) बिलकुल वैसी ही लग रही थी जैसे 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी ने लड़ाई लड़ी थी.
पश्चिम बंगाल का चुनाव भी ममता बनर्जी ने वैसे ही केंद्र की मजबूत सरकार को शिकस्त देते हुए जीता, जैसे नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन ताकतवर सरकार के खिलाफ 2012 में चुनावी जीत हासिल की थी. तब देश में यूपीए की सरकार थी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे. फिलहाल नरेंद्र मोदी खुद प्रधानमंत्री हैं - और उनके लिए इससे खराब बात क्या होगी कि जिस मनमोहन सरकार को कोसते हुए वो दिल्ली पहुंचे, पहुंचने के बाद उनके सामने भी भविष्य वैसा ही चुनौतीपूर्ण नजर आने लगा हो - और आगे ऐसी ही किसी के धाव बोल देने की आशंका हो जो ठीक वैसा ही व्यवहार उनसे करने को पहले से ही आतुर हो.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सबसे भरोसेमंद कैबिनेट साथी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के लिए पश्चिम बंगाल चुनाव का रिजल्ट बिलकुल 2015 के बिहार चुनाव जैसा रहा - और मुश्किल ये है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के पास तात्कालिक तौर पर कोई कमजोर कड़ी भी नजर नहीं आ रही है, जैसी तब नीतीश कुमार के केस में तेजस्वी यादव के चलते लालू प्रसाद यादव रहे.
ऐसा लग रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ममता बनर्जी की अरसे से जारी आपसी जंग पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे आने के साथ खत्म नहीं भी हुई तो कुछ दिन के लिए नरम पड़ जाएगी, लेकिन ये तो बढ़ती ही चली जा रही है - कहीं इसकी असली वजह दोनों के भीतर बस चुकी कोई गहरी असुरक्षा की भावना तो नहीं है?
झगड़ा नहीं, ये तो रगड़ा लगता है!
एक दौर रहा जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी के अलावा सिर्फ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ हद से ज्यादा आक्रामक देखने को मिलता था - ये तब की बात है जब अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री मोदी को 'मनोरोगी' और 'कायर' बताया करते थे - और राहुल गांधी 'खून की दलाली' जैसे इल्जाम लगाया करते थे.
ऐसा भी दौर देखने को मिला जब एनडीए से बाहर होते हुए नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ हमलावर देखे जाते, लेकिन बाद के दिनों में, खासकर दिल्ली चुनावों के नतीजे आने के बाद अरविंद केजरीवाल हनुमान जी के ऐसे भक्त हुए कि कभी कभी तो शक होने लगता था कि वो अरविंद केजरीवाल ही हैं या फिर अचानक से चिराग पासवान बन गये हैं - अरविंद केजरीवाल हाल फिलहाल ऑक्सीजन को लेकर राजनीतिक चालें तो तेज चले हैं, लेकिन उनके मुकाबले ममता बनर्जी के तेवर काफी तेज हो चुके हैं.
ये तो पहले से ही लग रहा था कि पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजे कुछ भी होने की स्थिति में ममता बनर्जी केंद्र की मोदी सरकार के प्रति ज्यादा उग्र रूप धारण कर सकती हैं, लेकिन ऐसा तो कतई नहीं लग रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी भी पश्चिम बंगाल की राजनीति में हद से ज्यादा दिलचस्पी लेते रहेंगे.
तृममूल कांग्रेस नेताओं से सीबीआई के पूछताछ और जेल भेजे जाने के बाद तो तस्वीर और भी साफ हो चुकी है - क्योंकि सवाल उठ रहे हैं कि जिस घोटाले में आरोपियों की सूची में मुकुल रॉय और शुभेंदु अधिकारी के भी नाम हों, तो सिर्फ टीएमसी नेताओं की गिरफ्तारी क्यों हुई? अपने अफसरों के बिल्लियों की तरह लड़ने के लिए चर्चित रही, सीबीआई लगता है फिर से तोता बन कर पिंजरे में लौट गयी है.
ममता बनर्जी तो कोविड 19 से पैदा हालात पर प्रधानमंत्री की बुलायी हुई पिछली दो मीटिंग से भी नदारद रही हीं, जब खबर आयी कि पीएम मोदी देश भर के कुछ जिलाधिकारियों से कोरोना वायरस संकट को लेकर बात करने वाले हैं तो भी तृणमूल कांग्रेस नेता ने विरोध जताया था - और विरोध की उसी राह पर चलते हुए वो कोविड पर मुख्यमंत्रियों की लेटेस्ट मीटिंग में पहुंच गयीं.
ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी दोनों की अपनी अपनी फिक्र तो है ही - कुछ बातें कॉमन भी हैं
दरअसल, ममता बनर्जी को अपने जिलाधिकारियों को प्रधानमंत्री मोदी के साथ मीटिंग से रोकना था. अगर वो खुद नहीं जातीं तो भला जिलाधिकारियों को मीटिंग से रोकने के लिए क्या तर्क देतीं. वो भी तब जबकि बीजेपी शासित राज्यों के साथ साथ गैर-बीजेपी सरकारों वाले राज्यों के डीएम मीटिंग में हिस्सा ले रहे हों. ममता बनर्जी ने पहले ही ऐसी मीटिंग को राज्यों के अधिकार और संघीय ढांचे में केंद्र के दखल की संज्ञा दे डाली थी - और मीटिंग के बाद साफ किया कि जब वो खुद मौजूद थीं तो जिलाधिकारियों के होने की क्या जरूरत थी.
वैसे राष्ट्रीय स्तर पर कोविड 19 को लेकर लॉकडाउन से परहेज और ऑक्सीजन, अस्पतालों के इंतजाम और जरूरी दवाइयों पर खामोश रवैया अख्तियार किये रहने के बाद, प्रधानमंत्री मोदी का सीधे जिलाधिकारियों से फीडबैक लेना या मन की बात करना भी कोई ठोस पहल जैसा तो नहीं ही लगता.
अब पटना के डीएम अपवाद हो सकते हैं. कोरोना संक्रमण की समीक्षा के दौरान पटना के डीएम डॉक्टर चंद्रशेखर सिंह ने प्रधानमंत्री मोदी को एक खास ऐप की जानकारी दी तो वो उनको काफी पसंद आया और वो बोले कि ऐप को अपडेट कर पूरे देश में लागू किया जाना चाहिये.
असल में बिहार में घर पर रह कर इलाज कराने वाले कोविड 19 के मरीजों की जानकारी के लिए एक ऐप बनाया गया है - HIT यानी होम आइसोलेश ट्रैकिंग ऐप. HIT ऐप के जरिये होम आइसोलेशन में रहने वाले सभी मरीजों के स्वास्थ्य से जुड़ा हर अपडेट रोजाना निगरानी कर रहे स्वास्थ्य विभाग को मिल जाता है. ऐप से ये तय करना भी आसान हो जाता है कि किस मरीज को होम आइसोलेशन में रहना है और किसे कोविड सेंटर में एडमिट करना है.
मोदी के साथ मीटिंग के बाद ममता बनर्जी तो आग बबूला नजर आयीं ही, प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने मोर्चा संभाला. रविशंकर प्रसाद ने ममता बनर्जी पर अशोभनीय आचरण प्रस्तुत करने का आरोप तो लगाया ही, ये भी कहा कि ममता बनर्जी ने पूरी बैठक को एक तरह से पटरी से उतारने की कोशिश की.
ममता बनर्जी का तो रविशंकर प्रसाद के उलट ही इल्जाम रहा, 'अगर राज्यों को बोलने नहीं दिया जाता तो उन्हें बुलाया क्यों जाता है? सभी मुख्यमंत्रियों को विरोध करना चाहिये कि मीटिंग में बोलने की इजाजत नहीं दी गई.'
अब एक सहज सा सवाल ये उठता है कि आखिर ये बंगाल की लड़ाई है या दिल्ली की गद्दी को लेकर जंग छिड़ चुकी है - क्या मोदी अब ममता बनर्जी को अपने लिए भी चुनौती मानने लगे हैं?
मोदी की टेंशन तो समझ में आती है
किसी को भी कोई शक शुबहा नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी 2002 के बाद अपने राजनीतिक कॅरियर के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं - अब तक तो मोदी सरकार पर सिर्फ राजनीतिक विरोधी ही अघोषित इमरजेंसी जैसा माहौल बना देने के आरोप लगते रहे, लेकिन अब तो धीरे धीरे आम लोगों के मन भी संकटकाल में बेपरवाह सरकार जैसी भावना घर करने लगी है - जाहिर है सारे फीडबैक मोदी को तो मिलते ही होंगे क्योंकि मोदी सरकार में कभी राजधर्म की याद दिलाने वाले वाजपेयी के दौर जैसे इंडिया शाइनिंग वाले फील गुड फैक्टर तो गायब ही लगते हैं.
मोदी को छवि की चिंता
ब्रांड मोदी क्या है - नरेंद्र मोदी की छवि ही तो है. हिंदू हृदय सम्राट की छवि. देश के मजबूत नेता की छवि. छवि जिसके साये में बहुसंख्यक हिंदू समाज किसी मुस्लिम आतंक की आशंका से खुद को महफूज महसूस करता है. छवि ऐसी कि आम चुनाव के पहले से ही लोगों के मन में ऐसी भावना जगने लगी थी कि मोदी के सत्ता में वापसी के साथ ही पाकिस्तान का नामोनिशान तक मिट जाएगा.
मुश्किल ये है कि बिहार चुनाव के दौरान मूड ऑफ द नेशन सर्वे में अपनी लोकप्रियता के शिखर पर रहे प्रधानमंत्री मोदी, रायटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक एक साथ दो-दो सर्वे में उनका पॉप्युलरिटी ग्राफ गिरते हुए दर्ज किया गया है - US डेटा इंटेलीजेंस कंपनी मॉर्निंग कंसल्ट और भारत के सी-वोटर सर्वे दोनों के हिसाब से नरेंद्र मोदी की छवि बीते सात साल में सबसे ज्यादा धूमिल पायी गयी है.
मोदी को मिशन 2022 की चिंता
पश्चिम बंगाल में बीजेपी नेतृत्व को मिले जख्म असम की सत्ता में वापसी कर लेने से थोड़े कम जरूर हुए होंगे, लेकिन बड़ी टेंशन तो मिशन 2022 है. अगले साल की शुरुआत में बीजेपी को यूपी और उत्तराखंड और आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में सत्ता हाथ से फिसलने से बचाने की चुनौती है.
किसान आंदोलन के बीच पंचायत चुनाव के नतीजों ने पंजाब से तो उम्मीदें भी खत्म कर दी होंगी, लेकिन गोवा के ताजा हालात और मणिपुर की अंदरूनी उठापटक की चिंता भी तो खाये ही जा रही होगी.
2022 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के लिए सबसे महत्वपूर्ण यूपी चुनाव हैं जहां पंचायत चुनावों में शिक्षकों की मौत पर मुआवजे का विवाद भुला भी दें तो नतीजों जिस तरीके से समाजवादी पार्टी ने बढ़त बनायी है और बीजेपी अयोध्या, काशी और मथुरा में जूझती नजर आयी है - संकेत तो तकरीबन साफ साफ ही हैं.
हालात तो यही कह रहे हैं कि कोरोना की दूसरी लहर में बेकाबू हो चुके हालात के चलते हर तरफ से फेल साबित हो रहे योगी आदित्यनाथ को भी कुर्सी बचाये रखने के लिए अयोध्या की दिवाली और राम मंदिर निर्माण से कहीं ज्यादा ब्रांड मोदी के आसरे ही उम्मीद बची होगी - लेकिन जब ब्रांड मोदी ही बेअसर होने लगे तो क्या आस लगायी जाये?
मोदी को 2024 की भी थोड़ी फिक्र तो होगी ही
ये तो पानी की तरह साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने 2024 से पहले किसी तरह का खतरा नहीं है. शिवसेना और अकाली दल की तरह बचे हुए सहयोगी एनडीए छोड़ दें तब भी.
कांग्रेस और राहुल गांधी को तो बीजेपी पॉलिटिकली न्यूट्रलाइज ही समझने लगी थी, लेकिन ममता बनर्जी के रूप में जो नया खतरा उभर रहा है वो तो दिल की धड़कन बढ़ाने वाला ही है.
और वैसे भी अब राम मंदिर जैसा कोई ठोस और वोट दिलाने वाला मुद्दा भी आगे के लिए नहीं है - और सर्जिकल स्ट्राइक का भी बार बार स्कोप थोड़े ही होता है.
मोदी के अहं पर चोट तो महसूस होती ही होगी
कहां लगातार चुनावी हार के चलते सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की बोलती बंद हो चुकी थी. कहां कांग्रेस नेतृत्व मोदी-शाह के लिए चुनौती पेश कर पाता कि अंदर ही G-23 की बगावत शुरू हो गयी थी.
कहां कोरोना संकट पर विजय प्राप्ति के डंके पीटे जा रहे थे कि कोविड 19 के दूसरे दौर ने अचानक ही धावा बोल दिया - और जहां जहां खामियों पर परदा पड़ा हुआ था, एक झटके में सब सामने आ गया.
विपक्ष को तो अरसे से ऐसे ही मौके की तलाश थी - अब विपक्ष तीखे सवाल पूछने लगा है और उसे जनता का भी सपोर्ट मिलने लगा है. टूल-किट के बहाने नकेल कसने की तैयारी तो हो रही है, लेकिन कांग्रेस है कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर स्मृति ईरानी तक पर FIR दर्ज कराने पर तुला है.
अब ये सब होने लगे तो अहं पर चोट तो समझी ही जाएगी - और चोट कहीं भी हो पीड़ा तो होती ही है. शारीरिक पीड़ा तो सही भी जा सकती है, मानसिक पीड़ा तो ज्यादा ही खतरनाक होती है - डिप्रेशन में भेज देती है.
ममता की चिंता भी समझी जा सकती है
प्रधानमंत्री मोदी के मुकाबले ममता बनर्जी की चिंता को समझने की कोशिश करें तो थोड़े अलग किस्म की लगती है - वैसे भी ममता बनर्जी की आंदोलनकारी राजनीति और अराजक रवैया इतना पुराना हो चुका है कि अब तो लड़ने की आदत भी सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा ही बन चुकी होगी.
ममता बनर्जी खुद भी कहती हैं कि वो फाइटर हैं. पश्चिम बंगाल चुनावों में भी साबित कर दिया कि वो फाइटर हैं, लेकिन मुश्किल तो ये है कि मुख्यमंत्रियों की मीटिंग से भी वो एक फाइटर की तरह ही निकलती हैं - और मैदान में फिर से फाइटर की तरह आ जाती हैं.
कभी कभी तो लगता है कि ममता बनर्जी ये भी भूल जाती हैं कि वो एक सूबे की मुख्यमंत्री भी हैं, महज एक फाइटर नहीं. साइड इफेक्ट ये होता है कि राज्य के लोगों को कभी हिंसा तो कभी कोरोना जैसी बीमारी से जूझते हुए इंतजार करना पड़ता है कि जब मुख्यमंत्री को फुरसत मिलेगी तो उन पर भी नजरें इनायत होंगी.
ऑपरेशन लोटस की टेंशन
ममता बनर्जी को पहले ये आशंका थी कि 200 से कम सीटें आयीं तो बीजेपी का ऑपरेशन लोटस कभी भी अपनी करामात दिखा देगा. ममता बनर्जी की अपील का असर भी हुआ और लोगों ने पिछली बार से भी ज्यादा सीटें झोली में भर दीं.
असम में हिमंता बिस्व सरमा को मुख्यमंत्री बना कर बीजेपी नेतृत्व ने तो ममता बनर्जी की जान ही सुखा दी है. अब तो मुकुल रॉय और शुभेंदु अधिकारी के साथ साथ तृणमूल कांग्रेस में मन मसोस कर रह गये असंतुष्टों के मन में भी ख्याली पुलाव तो पकने ही लगे होंगे - जो अब भी मानते होंगे कि टीएमसी में बने रहे और ममता बनर्जी कोलकाता से कहीं दिल्ली शिफ्ट हो गयीं तो गद्दी तो अभिषेक बनर्जी को ही मिलेगी.
बीजेपी ने ये चारा हर उस राज्य में डाल दिया है जहां गैर-बीजेपी सरकारें हैं और कोई भी महत्वाकांक्षी नेता अब पाला बदल कर बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री बनाये जाने के हसीन सपने देखने लगा होगा. ममता बनर्जी को अगर ऐसी कोई चिंता है तो ये स्वाभाविक ही है.
राष्ट्रपति शासन की आशंका
जिस तरह से पश्चिम बंगाल बीजेपी केंद्र सरकार से राज्य में हुई हिंसा को लेकर एक्शन की गुहार लगा रही है. जिस तरीके से गवर्नर जगदीप धनखड़ भी ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ एक्टिव हैं - और हिंसा की जांच पड़ताल के लिए केंद्रीय टीम भेजी जा रही है, खतरे की घंटी बजती भले न सुनायी दे, लेकिन काम कर रही है इसमें तो कोई शक नहीं ही है.
अगर दुर्घटनावश भी केंद्र को कोई मजबूत बहाना मिल गया तो राज्यपाल की रिपोर्ट पर धारा 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाना कोई बड़ी बात नहीं होगी.
टीएमसी नेता तो जेल गये - अब आगे क्या?
जिस तत्परता से सीबीआई ने एक ही घोटाले में आरोपी मुकुल रॉय और शुभेंदु अधिकारी पर आंच न आने देने के साथ साथ टीएमसी के नेताओं को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया है - ममता बनर्जी को आगे परिवार की चिंता तो सता ही रही होगी.
जैसे सीबीआई ने टीएमसी नेताओं को पकड़ कर जेल भेज दिया - क्या पता अगला निशाना उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी हों. अभिषेक बनर्जी की पत्नी से तो चुनावों के दौरान ही नोटिस देकर सीबीआई के अफसर पूछताछ कर ही चुके हैं.
2024 की टेंशन - दो पैरों से दिल्ली कैसे जीतेंगी
बेशक ममता बनर्जी ने एक पैर से बंगाल जीत लिया हो, लेकिन अगर दो पैरों से दिल्ली जीतने की बात कही है तो उसका तनाव भी तो सवार होगा ही. ममता बनर्जी को मालूम होना चाहिये कि अगर देश के लोग कोरोना काल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नाराज हो सकते हैं तो पश्चिम बंगाल के लोगों के पास उनसे कहीं ज्यादा ही नाराज होने के चांस हैं - क्योंकि उनके पास बीजेपी को सत्ता सौंपने का विकल्प था, फिर भी लोगों ने ममता बनर्जी को ही मौका देने का फैसला किया.
अगर ममता बनर्जी ने निराश किया तो उनके मन में बंगाल में डबल इंजिन की सरकार न होने का अफसोस बैठने लगेगा और बीजेपी तो घात लगाकर बैठी ही है - कहीं ऐसा न हो दिल्ली दूर ही रहे और बंगाल भी हाथ से फिसल जाये?
अब ऐसा ही लगता है जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ममता बनर्जी दोनों के मन में असुरक्षा की भावना बलवती होने लगी है - और दोनों के बीच फिलहाल जो भी राजनीति संघर्ष देखने को मिल रहा है वो तो इनसिक्योर होने का ही नतीजा लगता है.
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