New

होम -> सियासत

 |  7-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 28 नवम्बर, 2018 12:39 PM
आईचौक
आईचौक
  @iChowk
  • Total Shares

जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उनमें से तीन बीजेपी के लिए बहुत मायने रखते हैं - मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान. चुनाव प्रचार में पार्टी ने पूरी ताकत झोंक दी, ऐसा मान कर चलना चाहिये. मगर, ऐसा वाकई नहीं है. बीते विधानसभा चुनावों की तुलना में ये तीनों ही चुनाव बिलकुल अलग तरीके से लड़े जा रहे हैं.

नॉर्थ ईस्ट को छोड़ दें तो मौजूदा चुनावों से पहले दो अहम विधानसभा चुनाव हुए हैं - एक, गुजरात और दूसरा, कर्नाटक. मौजूदा तीन विधानसभाओं की तुलना कर्नाटक से तो नहीं लेकिन गुजरात से तो बनती ही है. आखिर वहां भी तो पहले से ही बीजेपी की सरकार रही - ऊपर से तीन बार तो नरेंद्र मोदी ही मुख्यमंत्री भी रहे थे.

जो तामझाम गुजरात चुनाव में देखने को मिला वो न तो मध्य प्रदेश में नजर आ रहा है, न राजस्थान में और न ही छत्तीसगढ़ में नजर आया. बीजेपी के सबसे बड़े स्टार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भागीदारी भी बीते चुनावों के मुकाबले आधी या उससे भी कम रखी गयी है. आखिर ऐसा क्यों है? क्या मौजूदा चुनावों में जीत को लेकर बीजेपी उतनी आश्वस्त नहीं है जितनी गुजरात में रही? या फिर बीजेपी किसी भी सूरत में अपने ब्रह्मास्त्र को बचा कर रखना चाह रही है.

मोदी की इतनी कम रैलियां क्यों

2017 में गुजरात विधानसभा के लिए चुनाव हुए जिसमें बीजेपी ने सत्ता बचा ली. गुजरात में बीजेपी के सत्ता बचाने का श्रेय भी पूरी तरह प्रधानमंत्री मोदी को दिया गया, वरना क्षेत्रीय नेताओं ने तो लुटिया डूबोने का इंतजाम कर ही रखा था.

'विकास गांडो थयो छे' मुहिम की काट के लिए खुद प्रधानमंत्री को मोर्चा संभालना पड़ा और कांग्रेस तब तक नरम नहीं पड़ी जब तक मोदी ने खुद नहीं कह दिया - 'हूं छू विकास, हूं छू गुजरात.'

narendra modiब्रह्मास्त्र हर रोज नहीं आजमाये जाते... है कि नहीं?

तब गली मोहल्ले में केंद्रीय मंत्रियों का काफिला चलता रहा. हर छोटी बड़ी जगहों पर उनकी सभाएं और प्रेस कांफ्रेंस हुआ करती रही. खुद अमित शाह और उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी ने भी डेरा डाल लिया था. कुछ दिनों के लिए तो हालत ऐसी थी कि पूरी दिल्ली ही अहमदाबाद से लेकर गुजरात के दूर दराज के इलाकों तक में घूमती नजर आ रही थी. ये बात अलग है कि इतने सबके बावजूद बीजेपी की सीटें 100 का आंकड़ा नहीं छू सकीं. फिर भी ये क्या कम रहा क्या कि जैसे तैसे सरकार बच गयी.

लेकिन मध्य प्रदेश में मजमा अलग लग रहा है. गुजरात में प्रधानमंत्री मोदी ने 34 पब्लिक मीटिंग की थीं, जबकि मध्य प्रदेश में 11 रैलियां कर रहे हैं. करीब एक तिहाई कार्यक्रम जबकि गुजरात की 182 सीटों के मुकाबले मध्य प्रदेश में 230 सीटों के लिए चुनाव हो रहे हैं.

गुजरात के बाद कर्नाटक विधानसभा के चुनाव हुए थे जहां मोदी की 21 जनसभाएं हुईं और वहां विधानसभा की 224 सीटों के लिए चुनाव हुए. 2015 के बिहार चुनाव में मोदी ने 31 रैलियां की थीं जहां 243 सीटों के लिए चुनाव हुए. गुजरात से पहले यूपी विधानसभा की 403 सीटों के लिए हुए चुनाव में मोदी ने जरूर 24 रैलियां की थीं. ये चुनाव असम के बाद हुए था जहां मोदी के कार्यक्रमों से परहेज देखा गया. शायद दिल्ली और बिहार की हार के जख्म काफी हरे थे.

vasundhara raje, shivraj singh, raman singhमोदी पर सिर्फ जीत का श्रेय, बाकी दारोमदार मुख्यमंत्रियों पर...

छत्तीसगढ़ में दोनों दौर के चुनाव हो चुके हैं और वहां भी मोदी की 10 रैलियां आयोजित की गयी थीं. राजस्थान में सबसे अंत में 7 दिसंबर को चुनाव होने हैं और राज्य में बाकियों के बराबर ही रैलियां तय हुई हैं - प्रधानमंत्री मोदी की अगली रैली 25 नवंबर को अलवर में है. अलवर से इसी हफ्ते एक बुरी खबर आई है जहां नौकरी न मिलने से निराश छह नौजवानों ने आत्महत्या की योजना बनायी और चार ट्रेन के सामने कूद गये. तीन की तो मौके पर ही मौत हो गयी लेकिन एक बुरी तरह जख्मी हो गया जिसका इलाज चल रहा है. बताते हैं कि दो नौजवानों ने आखिर वक्त पर इरादा बदल लिया.

मोदी के कार्यक्रम कम रखे जाने के पीछे दो दलीलें सामने आ रही हैं - एक, बीजेपी अपने मुख्यमंत्रियों को फ्रंट पर रखना चाहती है और दूसरा, 2019 की रणनीति का हिस्सा है.

आधी रात की वो मुलाकात

राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और आला नेतृत्व मोदी-शाह की जोड़ी से तनातनी की बातें तो आम हैं. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह अब तक अपनी बदौलत ही जीतते आये हैं. केंद्र की सत्ता में मोदी के पहुंचने और शाह के बीजेपी की बागडोर थामने से बरसों पहले की ये बातें हैं.

राजस्थान में तो मजबूरी थी ज्यादातर मामलों में चलनी वसुंधरा राजे की ही थी, मध्य प्रदेश में भी बीजेपी ने शिवराज सिंह चौहान को अपने हिसाब से रणनीति तैयार करने का फ्री-हैंड दिया गया है. नवंबर की शुरुआत में जब उम्मीदवारों को टिकट बांटे जा रहे थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने फीडबैक के आधार पर 85 विधानसभाओं में बदलाव की सलाह दी थी. चूंकि फैसला शिवराज सिंह को ही करना था इसलिए मिल जुल कर 54 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे गये - और करीब आधे दर्जन उम्मीदवारों के चुनाव क्षेत्र में बदलाव किये गये.

इसी हफ्ते की बात है, चुनाव प्रचार से निवृत होने के बाद शिवराज सिंह आधी रात को भोपाल में संघ के दफ्तर पहुंचे थे. संघ नेताओं से शिवराज सिंह की इस मुलाकात की खासी चर्चा है क्योंकि मुलाकात करने शिवराज सिंह अकेले गये थे जबकि प्रचार के दौरान कई और साथी भी साथ होते हैं. करीब डेढ़ घंटे के डिस्कशन में ऐसी 60 सीटों पर भी चर्चा हुई जहां बीजेपी उम्मीदवारों का प्रदर्शन अच्छा नहीं पाया गया है. ऐसे इलाकों में प्रचार और पहुंच बढ़ाने का फैसला हुआ है. उम्मीदवारों को भी किसानों और सरकारी कर्मचारियों के बीच पहुंच बढ़ाने की सलाह दी गयी है जिन्होंने बीजेपी मैनिफेस्टो के प्रति निराशाजनक रिस्पॉन्स दिखाया था. ऐसे इलाकों में किसान अनियमित बिजली सप्लाई और यूरिया की अनुपलब्धता से नाराज बताये जाते हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से ऐसी ही कोशिश यूपी विधानसभा चुनावों के दौरान अंतिम चरण में देखने को मिली थी. तब संघ की ही सलाह पर प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ने वाराणसी में डेरा डाला और शहर में मोदी का रोड शो भी कराया गया. तब संघ नेताओं को बीजेपी कार्यकर्ताओं की बगावत से मुश्किल होने की आशंका थी. बहरहाल, मेहनत का फल मीठा तो मिला ही - नतीजे तो अच्छे आये ही.

बीजेपी की चुनावी मुहिम में प्रधानमंत्री मोदी के कार्यक्रम कम रखे जाने के पीछे एक वजह 2019 का चुनाव भी है - कहीं कोई ऊंच-नीच हो भी जाये तो ब्रांड मोदी पर आंच न आये.

ताकि 2019 में कायम रहे ब्रांड मोदी

2014 में यूपी में ज्यादा सीटें जीतने की चर्चा भले ही सबसे ज्यादा हो, लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ये तीनों ही राज्य ऐसे रहे जहां सारी सीटें बीजेपी की झोली में पड़ी थीं. सिर्फ छत्तीसगढ़ में एक सीट कांग्रेस के खाते में पहुंची थी.

बीजेपी 2019 में भी इसे दोहराने की कोशिश करेगी, लेकिन इस बार ये मुश्किल लग रहा है. फिर भी बीजेपी आलाकमान कोई रिस्क लेना नहीं चाहता. राजस्थान में वसुंधरा की जिद मानने और शिवराज को खुली छूट देने के पीछे भी बीजेपी की यही दूरगामी सोच है.

ऐसे चुनाव तो साल भर होते आये हैं लेकिन करीब होने के कारण इन चुनावों को मोदी सरकार के लिए सत्ता के सेमीफाइनल के तौर पर भी लिया जा रहा है. सारे के सारे जीत गये तो ब्रांड मोदी की बल्ले बल्ले और कुछ गड़बड़ हुआ तो ठीकरा तो मुख्यमंत्रियों के सिर फूटना तय ही है.

इन्हें भी पढ़ें :

मध्य प्रदेश चुनाव: कांग्रेसी अतीत के अंधकार में बीजेपी का भविष्‍य टटोल रहे हैं मोदी

वसुंधरा राजे की जिद के आगे राजस्थान में बीजेपी की जीत पर सवाल

मध्य प्रदेश चुनाव के बीच सुषमा स्वराज ने 'हाफ-संन्यास' की घोषणा क्यों की?

लेखक

आईचौक आईचौक @ichowk

इंडिया टुडे ग्रुप का ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय