मोदी के मैंडेट में राम मंदिर, कश्मीर और फिर...
आस्था और सबूत के बीच झूलती दलीलों वाले अयोध्या मसले जैसे मामले के लिए अदालत के बाहर से बेहतर क्या तरीका हो सकता है भला. मौका भी भरपूर है और दस्तूर भी - 2019 तक तो इसे आसानी से खींचा जा सकता है.
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क्योंकि मोदी के पास मैंडेट है इसलिए कश्मीर, मंदिर और...
और क्या? और तो फिर हिंदू राष्ट्र का एजेंडा ही बचा है! 2014 की जीत को 2017 से गति तेज हो चुकी है, लिहाजा 2019 ही क्यों उससे आगे भी क्यों नहीं?
जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती कश्मीर समस्या के हल के लिए मौजूदा हालात को बेहतरीन वक्त मान कर चल रही हैं. ये संयोग ही है कि सुप्रीम कोर्ट भी अयोध्या मंदिर का मसला अदालत से बाहर सुलझाने के लिए भी यही वक्त चुना है - और यूपी की बंपर जीत और गोरखपुर से उठाकर लखनऊ की गद्दी पर आदित्यनाथ योगी को बैठाने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस वक्त को जरा भी जाया नहीं करना चाहता - आगे का रास्ता वो डबल स्पीड से तय करना चाहता है.
मंदिर
पिछले साल दशहरे पर मोदी के लखनऊ जाने से लेकर मुख्यमंत्री योगी के संसद पहुंचने तक 'जय श्रीराम' का नारा तेज होने लगा है. पहले 'मोदी-मोदी' और अब 'जय श्रीराम' के साथ 'योगी-योगी' हो ही रहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ वैसे ही कह दिया जैसे सुना जाता है - 'जो रोगी चाहे वही वैद्य जी भी फरमायें.'
केशव मौर्या ने तो यूपी की कमान संभालते ही राम मंदिर को लेकर इरादे जाहिर कर दिये थे - बीजेपी के चुनाव घोषणा पत्र में भी इसे इस ख्याल के साथ शुमार किया गया कि वो किसी भी तरीके से आयोग की कार्रवाई के दायरे से बाहर रहे - संवैधानिक दायरे में राम मंदिर के निर्माण की कोशिश की जाएगी.
समझने वाले समझ भी गये जो नहीं समझ पाये वो अनाड़ी थे, हैं और आगे भी रहेंगे.
इन सब के बीच केंद्र की मोदी सरकार की ओर से रामायण म्यूजियम परियोजना भी बढ़ा दी गयी. 154 करोड़ रुपये की लागत वाले इस प्रोजेक्ट को अखिलेश यादव ने यथा संभव लटकाये रखा. योगी के आने के साथ ही केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा भी अब नये सिरे से सक्रिय हो गये हैं. थोड़ा गौर करें तो ये प्रोजेक्ट एक तरीके से मंदिर का वॉर्म अप सेशन ही लगता है.
रही सही कसर सुप्रीम कोर्ट ने पूरी कर दी है. अब कोर्ट तो जो सोचता है सोच समझ कर ही सोचता है - ठीक ही सोचा होगा. आस्था और सबूत के बीच झूलती दलीलों वाले ऐसे मामले के लिए अदालत से बाहर से बेहतर क्या तरीका हो सकता है भला.
मौका भी भरपूर है और दस्तूर भी - 2019 तक तो इसे आसानी से खींचा जा सकता है.
कश्मीर
जम्मू कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार की दूसरी पारी को भी कई महीने हो चुके हैं, मगर महबूबा मुफ्ती को सफाई देने से अब तक निजात नहीं मिल पाई है. अब भी उन्हें लोगों को समझाना पड़ रहा है कि बीजेपी के साथ पीडीपी का गठबंधन गलत नहीं था. हालांकि, इसकी तात्कालिक वजह अनंतनाग सीट पर उनके भाई तसद्दुक हुसैन सईद की उम्मीदवारी है जो उनके इस्तीफे के चलते खाली होने पर पीडीपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. महबूबा समझाती हैं - 'अगर किसी नेता को जम्मू और कश्मीर के लोगों और सूबे की बड़ी समस्याओं के समाधान का जनादेश मिला है, तो वो हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.'
मोदी को सब पर भारी साबित करने के लिए बीच बहस में महबूबा उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह को भी घसीट लेती हैं - 'मोदी दिसंबर 2015 में बिना तय कार्यक्रम के पाकिस्तान पहुंच गए जबकि पूर्व पीएम मनमोहन सिंह पाकिस्तान में अपना जन्म स्थान देखने की इच्छा जाहिर करने के बावजूद अपने 10 साल के कार्यकाल के दौरान कभी वहां जाने का साहस नहीं जुटा पाए.'
कश्मीर से अयोध्या तक के लिए...
और जब मोदी कश्मीर पहुंचते हैं तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कश्मीर मंत्र का उल्लेख करते हैं. मोदी की ही तरह राजनाथ सिंह भी वही मंत्र जपते हैं - 'कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत'. बात चलती है तो जिक्र होता है, लेकिन दूसरे मुद्दे उछलते ही ये बात पीछे छूट जाती है.
महबूबा कश्मीर समस्या के समाधान में AFSPA हटाने और पाकिस्तान से बातचीत की पक्षधर हैं. इंडिया टुडे कॉनक्लेव में उन्होंने AFSPA के बारे में भी अपना स्टैंड स्पष्ट किया कि वो एक साथ नहीं बल्कि धीरे धीरे ट्रायल के आधार पर इसे हटाना चाहती हैं. लगता है AFSPA के मुद्दे पर इरोम शर्मिला की हार के बाद महबूबा भी इस मसले पर अलर्ट हो गयी हैं.
जहां तक पाकिस्तान के साथ बातचीत का सवाल है तो उसका हाल हर किसी को पता है. दस साल तक मनमोहन सिंह के नहीं जा पाने या रास्ते में मोदी के नवाज शरीफ को जन्म दिन की शुभकामनाएं देने का भी वही नतीजा रहा, जो वाजपेयी की लाहौर यात्रा का हुआ. वाजपेयी को कारगिल तो मोदी को पठानकोट और उरी अटैक पाकिस्तान की ओर से रिटर्न गिफ्ट मिले.
महबूबा के विरोधी उनके नागपुर से कंट्रोल होने का इल्जाम लगाते रहे हैं. क्या महबूबा पाकिस्तान के खिलाफ बातचीत के बीच सर्जिकल स्ट्राइक से भी सख्त एक्शन की उम्मीद या इशारा कर रही हैं. देखना होगा महबूबा ये बात अनंतनाग उपचुनाव के बाद भी दोहराती हैं या नहीं?
राष्ट्र
संघ के कोयम्बटूर सम्मेलन से जो संकेत हैं वो यही कि उत्तर के बाद अब संघ की नजर दक्षिण भारत पर है - लेकिन सबसे पहले केरल और पश्चिम बंगाल. पूरे भारत में न सही असरदार सूबों में भी बीजेपी की सरकार बने और कुर्सी पर काडर के लोग बैठ जाएं फिर तो हर मुश्किल आसान हो जाएगी.
राष्ट्रवाद विमर्श संघ का सतत प्रयत्नशील और प्रगतिशील आख्यान है. बीच बीच में राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोह पर बहस बुला कर उसे जिंदा रखा जाता है - कभी चुनावों में मुद्दों से भटकाने के लिए तो कभी बड़े मुद्दों पर घिरी बीजेपी सरकारों की ओर से मीडिया का जरिये लोगों का ध्यान भटकाने के लिए. जब तक योगी-योगी चलता रहेगा तब तक न तो किसी का ध्यान महंगाई की ओर होगा न किसानों की दुर्दशा पर.
वैसे ये बात तो अब आम हो ही चुकी है कि यूपी सीएम के लिए योगी, मोदी और शाह की पहली पसंद नहीं थे - और ये भी कि बीजेपी ने भले ही यूपी के लिए सीएम कैंडिडेट घोषित नहीं किया लेकिन संघ पहले से इसके लिए खास रणनीति के साथ आगे बढ़ रहा था. लगता तो यही है कि इस रणनीति के मूल में भी अयोध्या मुद्दा ही रहा होगा.
मोदी ने यूपी चुनाव के बाद 'मुहं के लालों' का शुक्रिया अदा किया था. वैसे भी ताज्जुब की ही बात रही कि कब्रिस्तान से कसाब तक की बहस में मुहं के लालों ने सिर्फ कश्मीर जैसी हालत की चर्चा की - न तो किसी ने परिवार नियोजन पर सलाह दी न पाकिस्तान जाने की और न ही किसी ने हिंदू राष्ट्र की.
बहरहाल, संघ को ऐसी बातों में यकीन नहीं रखता. मोदी अगर वाजपेयी बनने की कोशिश कर रहे हैं तो उनकी मर्जी, संघ अपने तरीके से चलता है - जब उसे लगता है वो वाजपेयी और आडवाणी के बाद मोदी को खड़ा कर लेता है - और जरूरत पड़ती है तो योगी को भी मैदान में उतार देता है.
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