देश का मिज़ाज: अपने ही डुबो रहे मोदी को
नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले साल भारी जनादेश के साथ जनता की जो स्वीकृति अर्जित की, उसके एक हिस्से को गंवा बैठने में उसे सिर्फ 10 महीने लगे हैं.
-
Total Shares
नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले साल भारी जनादेश के साथ जनता की जो स्वीकृति अर्जित की, उसके एक हिस्से को गंवा बैठने में उसे सिर्फ 10 महीने लगे हैं. विकास और प्रशासन के मिशन पर निकले व्यक्ति की छवि भेदकर रख देने के लिए जरूरत पड़ी है, सिर्फ कुछ बेलगाम तोपों की और उन्हें चुप करने की मांग पर मोदी की रहस्यमय चुप्पी की.
पार्टी नेता बताते हैं कि सांप्रदायिक असहिष्णुता की छवि का पुष्ट होना और इसके विपरीत मोदी की विकास समर्थक छवि का मंद पड़ना 2014 की सर्दियों से शुरू हुआ था, जब आरएसएस से जुड़े संगठनों ने दो अलग-अलग अभियान शुरू किए थे. एक वह था, जो कथित 'व जेहाद' के खिलाफ छेड़ा गया था और दूसरा हिंदू धर्म में पुन: परिवर्तन या 'घर वापसी' के लिए था.
जैसा विहिप के पितृपुरुष अशोक सिंघल लोकसभा चुनावों में जीत के बाद से लगातार कहते आ रहे हैं, ''देश में एक बड़ा वर्ग है, जो हमारे खोए हुए राज की वापसी के सपने देखता है. पृथ्वीराज चौहान के बाद अब जाकर (मोदी के तहत) भारत की बागडोर हिंदुत्व को मिली है."
यानी तरह-तरह के सुर समय-समय पर निकलते रहते हैं. जो हर मौके पर टीम मोदी की खिंचाई करने के लिए विपक्ष को मुद्दे थमा देते हैं. जिन पर समाज के विभिन्न वर्गों से चिंता और गुस्से से लेकर चिढ़ भरी प्रतिक्रियाएं आती हैं और सरकार बैकफुट पर आ जाती है. देखिए, पिछले साल सितंबर में उत्तर प्रदेश में उपचुनावों की तैयारियों के दौरान गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ ने 'लव जेहाद' के खिलाफ युद्धघोष किया. यह बात शांत होती, उससे पहले ही साक्षी महाराज की यह टिप्पणी आ गई कि मदरसों में आतंकवादी तैयार हो रहे हैं और उसके बाद दिसंबर में राज्यमंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने 'हरामजादे' बनाम ''रामजादे" का सिद्धांत दिया.
उसी माह उत्तर प्रदेश के राज्यपाल और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे राम नाईक का बयान आया कि अयोध्या में राम मंदिर जल्द-से-जल्द बनना चाहिए और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का दावा आया कि भगवद्गीता को एक राष्ट्रीय पवित्र पुस्तक घोषित किया जाए. दिल्ली विधानसभा के चुनाव जैसे ही करीब आए, सर्दियों में चर्चों पर हमले और तोड़फोड़ हुई, जिसका नतीजा ईसाइयों की बेचैनी में निकला.
इस साल वसंत में हरियाणा और महाराष्ट्र में गोमांस पर प्रतिबंध लगाए जाने पर राष्ट्रीय बहस छिड़ गई. इस आग में घी का काम केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने यह कहकर किया कि ''इस देश में गोहत्या की अनुमति नहीं दी जा सकती. इस पर प्रतिबंध के लिए हम पूरी ताकत लगाएंगे."
एक वरिष्ठ अफसरशाह कहते हैं कि ईद के दिन सरकारी कार्यक्रम का आयोजन करने का मोदी का फैसला, रमजान के दौरान इफ्तार का आयोजन करने से मंत्रियों की आनाकानी और 25 दिसंबर को सुशासन दिवस मनाने का सरकारी फरमान-इस सबसे इस बेचैनी में इजाफा हुआ कि एक कथित हिंदू अतिराष्ट्रवादी सरकार अपनी ताकत दिखाने लगी है.
बहुत कम, वह भी बहुत देरी से?
मोदी मंत्रिमंडल के एक शीर्ष मंत्री ने इंडिया टुडे को उस समय बताया था, ''इन तत्वों को लगता है कि उनके अति-उत्साह से नागपुर (आरएसएस मुख्यालय) प्रसन्न होगा, लेकिन सचाई यह है कि इस से नागपुर भी नाखुश है." कई मंत्री इस बात पर अफसोस जताते हैं कि ऐसी बेलगाम तोपों ने विपक्ष को जनता का ध्यान विकास से दूर हटाने का मौका दे दिया है.
एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री का कहना है कि मोदी ने इन तत्वों को नियंत्रण में करने की कोशिश की थी. वे कहते हैं, ''आरएसएस के प्रचारक राजेश्वर सिंह को धर्म जागरण (पश्चिमी उत्तर प्रदेश में घर वापसी) कार्य से हटाना परदे के पीछे की गई कार्रवाई का स्पष्ट उदाहरण है."
लेकिन जब तक मोदी धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को भरोसा दिलाने के लिए पहली बार खुली कोशिश करते, तब तक विपक्ष सरकार को घेरने और जनता के एक बड़े वर्ग को आंशिक रूप से यह समझाने में सफल हो गया था कि मोदी के ''अच्छे दिन" का वादा बस वादा ही था.
बीजेपी के लिए समस्या यह है कि उसके नेता इधर कुआं, उधर खाई वाली दुविधा को समझते हैं. एक सरकारी अधिकारी, जो वाजपेयी सरकार में भी कार्य कर चुके हैं, कहते हैं, ''समस्या यह है कि बीजेपी सार्वजनिक रूप से खुद को उन चिंताओं से अलग नहीं कर सकती है, जो संघ के नेताओं के विचार-विमर्श में व्यक्त होती हैं. बीजेपी का किसी भी स्तर का नेता आरएसएस के बयानों से सहमत नजर आना चाहता है."
ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि खुद मोदी ने भी शुरुआत में हाशिए पर पड़े इन तत्वों को जवाब देने में संकोच किया था. एक सरकारी अधिकारी कहते हैं, ''जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत उसी समय 'हिंदू राष्ट्र' पर लंबा भाषण दे रहे हों तो प्रधानमंत्री, जो खुद आरएसएस प्रचारक रह चुके हैं, उन लोगों को सार्वजनिक रूप से जवाब कैसे दे सकते हैं?"
हालांकि बीजेपी के कई नेता और संघ के प्रचारक दावा करते हैं कि आरएसएस ने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के पहले जान-बूझकर मोदी को अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए समय देने का फैसला किया है. वे कहते हैं कि यह बात हाल ही में आरएसएस की नागपुर में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सामने आई. यह संघ परिवार के शीर्ष अधिकारियों की सबसे बड़ी बैठक थी. यहां राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और कई अन्य विवादास्पद मुद्दे नहीं उठाए गए.
एक ओर आरएसएस के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी कहते हैं कि कई साल बाद 'भारतीय दर्शन' के लिए प्रतिबद्ध एक टीम निर्णय लेने के केंद्र में है. वहीं दूसरी ओर बैठक में प्रस्तुत आरएसएस की सालाना रिपोर्ट में सरकार को दबाव से बाहर निकालने का प्रयास दिखाई दिया. सालाना रिपोर्ट में उल्लेख किया गया कि 'राष्ट्र' अपेक्षा करता है कि सरकार जनता की उम्मीदों को समझे और उसके अनुसार काम करे. लोग भी सरकार की सीमाओं को समझते हैं."
कई मंत्री भी इस आम समझ से असहमत हैं कि सरकार हिंदुत्ववादी तत्वों की ऊंचे सुर में की जा रही बयानबाजी से ऊब चुकी है. दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद कहते हैं, ''प्रधानमंत्री दृढ़तापूर्वक यह घोषणा कर चुके हैं कि वे भारतीय समाज के हर वर्ग के प्रधानमंत्री हैं. सभी (वर्गों) के कल्याण की दिशा में पूरी प्रतिबद्धता है, वह भी बेहिचक और अटूट." पार्टी प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन भी यही भावना दोहराते हैं, ''नरेंद्र मोदी हिंदुओं के नेता नहीं है, बल्कि पूरे हिंदुस्तान के नेता हैं. वे किसी हिंदुस्तानी को धर्म के चश्मे से नहीं देखते. उनका एक ही नारा हैः सबका साथ, सबका विकास." प्रसाद कहते हैं, ''हाशिए पर पड़े तत्वों का थोड़ा बेतुका जोश सरकार या पार्टी की विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करता."
शायद प्रधानमंत्री के निर्देश पर ही कई वरिष्ठ मंत्री महीनों से चुप रहे हैं, ताकि संवाद के कई सुर एक साथ न निकलें. एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के मुताबिक, माना जाता है कि मोदी ने अब उनसे आग्रह किया है कि वे विवादास्पद बयानों का जवाब तुरंत दिया करें. शायद इसी वजह से परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में सार्वजनिक रूप से ईसाई समुदाय की भावनाओं पर मरहम लगाने की पहल की.
तो सरकार और पार्टी का भविष्य क्या है? पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक 4 अप्रैल को बेंगलूरू में होने जा रही है. वहां से कुछ जवाब मिलने की उम्मीद की जा सकती है. लेकिन असल आम आदमी का इस पर क्या सोचना है, इसका पता अगले सर्वेक्षण में ही चल सकेगा.
आपकी राय