New

होम -> सियासत

 |  4-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 09 मार्च, 2016 06:51 PM
पीयूष बबेले
पीयूष बबेले
  @piyush.babele.5
  • Total Shares

वह जमाना, इस समय भारत में मौजूद किसी शख्स ने देखा तो नहीं होगा, लेकिन मिडिल स्कूल तक की इतिहास की किताब में उसका अक्स जरूर देखा होगा. उस जमाने में औरतों को उनके पति के साथ सती होने के लिए विवश किया जाता था. मामला चूंकि धर्म का था, इसलिए जुल्म को भी धार्मिक उत्सव का जामा पहनाया जाता था. महिला रोती रहती थी और ढोल-नगाड़ों के उद्दाम शोर और सती माता की जय के नारों के बीच उसे जिंदा जला दिया जाता था. बाद में समाज कहता था कि वह जो जला कर मार दी गई, कितनी महान सती नारी थी. उसके बाद कितनी लंबी लड़ाइयां चली और कैसे यह परंपरा आखिर को बंद हुई, यह भी सब को पता है.

हालांकि अब भी कभी किसी दूर के इलाके से सती होने का समाचार दो-चार साल में आता है, तो जनता वहां मंदिर बनाना नहीं भूलती. दारोगा जी भी कागज का पेट भरने लायक कार्रवाई कर सती माता को प्रणाम कर लेते हैं.

आज दिल्ली में यमुना तट पर जो तमाशा हो रहा है, उसमें उसी सती प्रसंग की याद आ रही है. वे सब लोग जो बरसों से यमुना बचाने का जुमला उछालते थे, आज उसे सता-सताकर सती कर रहे हैं. वे सब जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं, वह नदियों को बचाने के लिए तय की गई हमारी सारी नीतियों के खिलाफ है. वे यह भी जानते-जानते हैं कि जब-जब गंगा के किनारे कुंभ होता है तो अंत में प्रदूषण का स्तर कई गुना बढ़ जाता है. वे यह भी जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट और अलग-अलग हाइ कोर्ट कई-कई बार स्पष्ट कर चुके हैं कि नदी की कोख में तो क्या उसके तट से 200 मीटर दूर तक कोई निर्माण न हो. उन्हें यह भी पता है कि यमुना में पहले से किए गए निर्माणों को भी आज तक दिल्ली शहरी वास्तुकला बोर्ड ने अपनी मंजूरी नहीं दी है. लेकिन फिर भी वे ऐसा कर रहे हैं. और न सिर्फ कर रहे हैं, बल्कि सरकार, पुलिस, सेना और तमाम बाबा बिरादरी का सहयोग हासिर करके ऐसा कर रहे हैं. जो पूछता है कि आप यमुना पर जुल्म न करो, तो वे उसे धर्मद्रोही या मौके के हिसाब से देशद्रोही भी कह सकते हैं.

लेकिन उनमें इतनी ताकत आई कहां से? शायद अपने पूर्ववर्तियों के डंके की चोट पर नदी का नाश करने से. यमुना में अक्षरधाम मंदिर का भव्य परिसर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय मंजूर हुआ और लालकृष्ण आडवाणी ने इसमें खासी दिलचस्पी दिखाई. यह काम धर्म के नाम पर हुआ. उसके बाद दिल्ली मेट्रो ने मनमोहन सरकार के जमाने में अपना डिपो और यहां तक की अपार्टमेंट बना दिए, यह काम विकास के नाम पर हुआ. उसके बाद राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर मनमोहन सिंह सरकार में ही पूरा खेल गांव यमुना की छाती पर बना दिया गया, यह काम राष्ट्रवाद के नाम पर हुआ. अब जब मोदी सरकार आई है तो उस के राज में भी तो यमुना पर कोई जुल्म होना चाहिए.

जो लोग इस बात से डर रहे हैं कि यमुना के अंदर सैकड़ों एकड़ में सांस्कृतिक जश्न हो रहा है, उन्हें समझ लेना चाहिए कि यह तो शुरुआत भर है. इस देश में अतिक्रमण करने की यही परंपरा है. आज यमुना का भला करने के नाम पर रंगारंग कार्यक्रम होगा और कल यमुना को साफ करने के नाम पर वहां बड़ा स्थायी निर्माण हो सकता है. जब खुद जल संसाधन मंत्री मान रही हों कि सरकार के निजाम को ताक पर रख हो रहे इस आयोजन से यमुना साफ होगी, तो फिर और कोई कैसे इसे बढऩे से रोक पाएगा.

अब आप उन रिपोर्टों पर न जाइए तो वैज्ञानिक माथापच्ची करके बनाते रहे. जिनके मुताबिक यमुना के ट्रीटमेंट प्लांट के लिए ही हर साल कम से कम 2,000 करोड़ रु. चाहिए हैं. उस रिपोर्ट पर भी न जाइए, जो कहती है कि यमुना में न्यून्तम इतना पानी तो छोड़ा जाए कि उसे साफ किया जा सके. उस रिपोर्ट पर भी न जाइये जो कहती है कि हम यमुना में गिरने वाले आधे पानी को भी साफ नहीं कर पाते. और उस रिपोर्ट पर भी मत जाइये कि हमारे ट्रीटमेंट प्लांट बमुश्किल 75 फीसदी क्षमता पर काम करते हैं. अब यमुना को वैज्ञानिकों की जरूरत नहीं हैं. किसी जमीनी काम की जरूरत नहीं है. उसे बाबा लोग यमुना मां के जयकारे लगाते हुए सती कर देंगे. और जो इस हत्याकांड का विरोध करेगा, वह धर्मविरोधी कहलाएगा. अगर किसी के पास राजनैतिक रसूख है तो वह एक हाथ से जुर्माना दे और दूसरे हाथ से गा-बजाकर जुर्म करे.

 

लेखक

पीयूष बबेले पीयूष बबेले @piyush.babele.5

लेखक इंडिया टुडे में विशेष संवाददाता हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय