महागठबंधन को विचारधारा के चश्मे से देखकर मोदी गलती कर रहे हैं
प्रधानमंत्री मोदी का चैलेंज है - 'देखना ये है कि यह महागठबंधन चुनाव के पहले टूटता है या फिर चुनाव के बाद? मोदी की नजर में महागठबंधन विचारधारा के बूते ही खड़ा हो सकता है. सवाल है कि महागठबंधन आइडियोलॉजी के खिलाफ खड़ा नहीं हो सकता क्या?
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15 अगस्त 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पांचवीं बार लाल किले से झंडा फहराने जा रहे हैं - और अगले चुनाव में अपनी जीत के साथ ही आगे के लिए भी पूरी तरह आश्वस्त हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने तो विपक्ष को 2024 में भी दोबारा अविश्वास प्रस्ताव लाने की चुनौती दे रखी है.
समाचार एजेंसी एएनआई को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मोदी ने मॉब लिंचिंग से लेकर जॉब हंटिंग तक सभी मसलों पर 'मन की बात' कही है, लेकिन महागठबंधन को आइडियोलॉजी के चश्मे से उनका देखना गलती से मिस्टेक ही लगता है!
मोदी की नजर में प्रस्तावित महागठबंधन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नजर में महागठबंधन की सारी कवायद नाकाम हो चुकी है. मोदी का दो टूक कहना है कि विपक्ष का महागठबंधन विकास का नहीं, बल्कि विरासत का महागठबंधन हैं.
प्रधानमंत्री मोदी चुनौती भी देते हैं - देखना ये है कि यह महागठबंधन चुनाव के पहले टूटता है या फिर चुनाव के बाद. अब वे जानते हैं कि जाति, वर्ग, समुदाय और धर्म के आधार पर उनका चुनावी अंकगणित विकास की कैमिस्ट्री का सामना नहीं कर सकता है.
महागठबंधन के लिए विचारधारा की जरूरत होती है...
2019 में अपनी वापसी को लेकर आत्मविश्वास से लबालब प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं - 'लोग एक मजबूत और नतीजे देने वाली सरकार को पसंद करते हैं.'
मोदी की नजर में लोग बीजेपी और बाकियों के बीच के फर्क को समझ चुके हैं, 'लोगों ने स्पष्ट रूप से इन पार्टियों और बीजेपी के बीच के अंतर को पहचाना है... और विपक्ष के पास जीतने के लिए ऑल बनाम वन लड़ाई बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं...'
प्रधानमंत्री मोदी का मानना है कि विचारधारा या आइडियोलॉजी ही गठबंधन को बांधे रख सकता है कुछ और नहीं. मोदी कहते हैं, "महागठबंधन के सच्चे चरित्र को समझें... महागठबंधन व्यक्तिगत अस्तित्व के लिए है, वैचारिक समर्थन के लिए नहीं... महागठबंधन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए है, न कि लोगों की आकांक्षाओं के लिए... महागठबंधन पूरी तरह से सत्ता की राजनीति के लिए है, न कि लोगों के जनादेश के लिए... महागठबंधन वंशवाद को लेकर है, विकास को लेकर नहीं... महागठबंधन दिमाग या विचारों के किसी भी संघ को लेकर नहीं है, बल्कि ये अवसरवाद है."
महागठबंधन के लिए विचारधारा की जरूरत कितनी?
लगता है आइडियोलॉजी के हिसाब से एनडीए को प्रधानमंत्री मोदी मिसाल मानते हैं. उसी एनडीए को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का दर्द उनके बाद कुर्सी पर बैठे मनमोहन सिंह भी जता चुके हैं. देखा जाये तो एनडीए में भी सिर्फ बीजेपी और शिवसेना की आइडियोलॉजी मिलती जुलती है.
बीजेपी और शिवसेना के अलावा एनडीए के बाकी दल अपनी सुविधा के हिसाब से साथ रहते हैं. नीतीश कुमार की जेडीयू इसका बेहतरीन नमूना है. जब जी चाहा एनडीए के साथ रहे और जब कुछ नया दिखा तो लालू प्रसाद के साथ महागठबंधन खड़ा कर लिया. बिहार महागठबंधन में तो कांग्रेस भी साथ रही.
नीतीश कुमार के बिहार महागठबंधन छोड़कर पाला बदलने में एनडीए का केंद्र की सत्ता में होना सबसे ज्यादा मायने रखता है.
बीजेपी अगर केंद्र की सत्ता में नहीं होती तो भी क्या नीतीश कुमार दोबारा एनडीए में शामिल होते? जहां तक टीडीपी, अकाली दल और शिवसेना का सवाल है तो सब के सब अपनी अपनी सुविधा और जनाधार देख रहे हैं. मौका देख कर सभी बयानबाजी करते हैं और फिर एनडीए के साथ हो जाते हैं. अविश्वास प्रस्ताव और राज्य सभा उपसभापति चुनाव इनके स्टैंड की पोल खोलने के लिए काफी हैं.
विचारधारा के खिलाफ भी तो महागठबंधन खड़ा हो सकता है
प्रधानमंत्री मोदी के हिसाब से तो बिहार का महागठबंधन भी चुनाव होते ही टूट जाना चाहिये थे, लेकिन डेढ़ साल सरकार चलने के बाद जाकर टूटा. वैसे महागठबंधन के टूटने बीजेपी का कोई रोल नहीं रहा, इस दावे के साथ शायद ही कोई इंकार कर सकता है.
वैसे कोई बता सकता है कि रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी की आइडियोलॉजी एनडीए के कितनी करीब है? पासवान तो यूपीए में भी बड़े आराम से खप जाते हैं - और कोई जरूरी नहीं कि 2019 आते आते वो प्रस्तावित महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगे!
वैसे यूपीए गठबंधन बनने के पीछे भी प्रधानमंत्री मोदी को कोई आइडियोलॉजी जैसी बात लगती है क्या? यूपीए गठबंधन के पीछे बीजेपी जैसी आइडियोलॉजी और एजेंडा भले न हो लेकिन दोबारा सत्ता हासिल कर 10 साल तक शासन तो चलाया ही.
ये गलती से मिस्टेक नहीं तो क्या है?
गुजरात में घोषित तौर पर कोई महागठबंधन नहीं बना था, लेकिन कांग्रेस ने बीजेपी विरोधी युवा नेताओं को सपोर्ट किया - और वे सब मिल कर चुनाव लड़े. नतीजा क्या रहा सबने देखा ही. गुजरात मॉडल के नाम पर 2014 में केंद्र की सत्ता पर कब्जा जमाने वाली बीजेपी के लिए 100 सीटें जीतना मुहाल हो गया था. वो भी तब जब अमित शाह और केंद्र सरकार के मंत्री पूरे सूबे में दिन रात जमे रहे - और खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था.
ये ठीक है कि 2017 में यूपी में जो अखिलेश यादव और राहुल गांधी का गठबंधन फेल रहा, लेकिन उसकी कामयाबी को लेकर यकीन ही कितनों को था. खुद मुलायम सिंह यादव को भी उस गठबंधन से कोई उम्मीद नहीं रही. गठबंधन भी ऐसा कि कांग्रेस के गढ़ अमेठी में भी उसके उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिल पाये. कर्नाटक में तो बीजेपी न कमाल दिखा सकी और न ही कमल खिलने के संकेत दिखे. जबरन कुर्सी पर कब्जे का ऐसा नमूना पेश किया कि अदालती इंसाफ के तराजू पर वो टिक ही नहीं पाया.
लेकिन उसी यूपी में तीन उपचुनाव हारने के बाद भी क्या मोदी को नहीं लगता कि विरोधियों का एकजुट हो जाना कितना खतरनाक हो सकता है. कैराना में बीजेपी के लिए तो खुद मोदी ने भी बागपत से वोट मांगे ही थे. अजीत सिंह की आरएलडी के टिकट पर समाजवादी पार्टी के कैंडिडेट को मायावती की बीएसपी और कांग्रेस सहित सभी दलों ने सपोर्ट किया और बीजेपी हाथ मलती रह गयी.
कभी ये नहीं भूलना चाहिये कि आइडियोलॉजी के पक्ष में भले न सही, विचारधारा खिलाफ तो महागठबंधन खड़ा हो ही सकता है.
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