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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 03 अप्रिल, 2015 04:01 PM
वाई.पी. राजेश
 
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धारणा या सोच एक ऐसी चीज है जिसे अलग-अलग विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से समझाया है. किसी ने इसे यथार्थ कहा है तो किसी का कहना है कि इसमें सच जैसी कोई चीज नहीं होती, सिर्फ एक धारणा होती है. नरेंद्र दामोदरदास मोदी को अगर अपनी परिभाषा गढऩी हो तो वे इसमें एक और बात जोड़ सकते हैं कि धारणा एक दुधारी तलवार है. अगर इसमें बेसब्री और उतावलेपन का तत्व जुड़ जाए, तो यह भाप बनकर उड़ सकती है. एक नेता जो सचमुच कर दिखाने और समृद्धि लाने के वादों पर सवार होकर इतने जोर-शोर से राष्ट्रीय मंच पर अवतरित हुआ था, आज वह हिचकोले खा रहा है. अपने उन्मादी भाई-बिरादरों के दिए झटकों और एक विजेता के नाते चक्के पर नियंत्रण कायम रख पाने में अपनी ही नाकामियों के परस्पर ऊहापोह के बीच उसकी गाड़ी फंस गई है. बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार महीने भर बाद जब अपनी पहली वर्षगांठ का भव्य जश्न मनाने की बाट जोह रही है, ऐसे समय में इंडिया टुडे समूह और सिसेरो ने विशेष जनमत सर्वेक्षण 'देश का मिज़ाज'करवाया है जो जमीनी सचाई का पता लगाने का काम करता है.


अब इस सरकार का हनीमून खत्म हो चुका है. इसकी पहली गवाही तो दिल्ली में 10 फरवरी को खुली ईवीएम मशीनों से मिलती है. इसके बाद के हफ्तों में जिस तरीके से विपक्ष में नई जान आई,  संसद में गतिरोध पैदा हुआ और सरकार का पारा नीचे की ओर लुढ़का, यह सब कुछ एक ही तथ्य को और विस्तार से पुष्ट करता है. पिछले 10 महीने के दौरान संघ परिवार ने राजनैतिक अपरिपक्वता और चुनावी अदूरदर्शिता से भरे फैसलों और मांगों का जिस कदर विषवमन किया है, उसने हनीमून के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम किया है. अब भारत में यह सवाल उठाने लगा है कि जिस क्षत्रप को उन्होंने गांधीनगर की गद्दी से रायसीना हिल के शिखर पर बैठाया, वह खुद को पटरी पर टिकाए रखने के लिए असहिष्णुता और धर्मांधता की उन ताकतों को दरकिनार कर पाएगा या नहीं जिन्होंने इस ऐतिहासिक जनादेश पर सेंधमारी शुरू कर दी है. शायद यह किसी भी नए प्रधानमंत्री के कार्यकाल के पहले ही साल में उसकी लोकप्रियता में आई यह सबसे तेज गिरावट होगी क्योंकि पिछले  साल अगस्त में जहां 57 प्रतिशत लोगों ने देश का मिज़ाज सर्वेक्षण में मोदी को प्रधानमंत्री पद के योग्य ठहराया था, आज वह दर घटकर सिर्फ  36 प्रतिशत रह गई है.
प्रधानमंत्री पद का जो उम्मीदवार अपने चुनाव प्रचार अभियान में हर वक्त विकास के नए नारे और राजकाज के नए जुमले गढ़ता रहा हो, उसके लिए ये आंकड़े थोड़े परेशान करने वाले हो सकते हैं. इस बदलाव को अगर मुहावरे में बांधा जा सके, तो कहना चाहिए कि ऐसा लग रहा है, गोया घड़ी के कांटे उलटे घूम रहे हैं या फिर समय का पहिया पूरा घूमने वाला है. गुजरात के सांप्रदायिक नरसंहार के लिए बरसों निंदा झेलते रहने वाले नेता से गुजरात को वृद्धि, विकास और तरक्की का पर्याय बना देने वाले नेता के रूप में नरेंद्र मोदी का कायापलट आधुनिक भारत की सियासत की सर्वाधिक पासापलट कहानियों में है. उनकी इस कामयाबी ने उस समय नया आयाम हासिल कर लिया जब राष्ट्रीय फलक पर उभरते हुए मोदी ने खुद को ऐसे शक्चस के रूप में पेश किया जिसका भारत को बेसब्री से इंतजार था, जो घोटाले,काहिली और अहंकार के उस अध्याय को पलट देता जिसकी चपेट में आकर देश रसातल में गोते खाने के खतरे से दो-चार था.

राहत की राह देख रहे एक उत्तेजित भारत ने उनकी दावेदारी में भरोसा जताया और इस बात से अधिकतर लोग इनकार नहीं कर सकते. आखिरकार, मोदी विकास और सुशासन की नई छवि बन कर उभरे थे. इसकी बड़ी वजह यह थी उनका तरकश मजहब और कट्टरता के उन जहर बुझे तीरों से पूरी तरह खाली हो चुका था जिसे उनके वैचारिक साथी समय-समय पर दागते रहे हैं और बदनामी की नई-नई सीढिय़ां चढ़ते रहे हैं. मोदी को इसका श्रेय जाता है कि वे अपनी शानदार जीत के बाद भी अपने मूल मुद्दों पर टिके रहे और राजकाज के अपने ढांचे से विवादास्पद मसलों को बाहर रखने के अपने संकल्प से नहीं डिगे. जाहिर है, जो नेता एक अभूतपूर्व चुनाव प्रचार के माध्यम से हजारों-लाखों लोगों तक पहुंच चुका था, उसे लोगों की नब्ज का भी कुछ एहसास रहा ही होगा.

बीजेपी को जैसी शानदार जीत मिली, वह सहजबोध को अभिभूत करने के लिए काफी थी. इससे एक नकली एहसास और आश्वस्ति यह पैदा हुई कि देश ने आखिरकार अपना फैसला देकर ऐसे एजेंडे को गले लगाया है जिसका उद्देश्य लोगों को भड़काना, उन्हें बांटना और तानाशाही कायम करना है. इसके बाद तो लव जेहाद, घर वापसी,हिंदू राष्ट्र और लोगों के पढऩे-लिखने, देखने-समझने, खाने-पीने, पहनने-ओढऩे से जुड़े सनक भरे फैसलों की सुर्खियों को विमर्श का सशक्त हिस्सा बनने में समय ही नहीं लगा. आज जनादेश सिर्फ एक अदद संक्चया भर रह गया है जिसमें उस बदलती हुई धारणा का अक्स दिख रहा है कि आखिर भारत ने वास्तव में मोदी को क्यों वोट दिया रहा होगा जबकि मोदी वास्तव में किस चीज का पर्याय थे. जिन शब्दों के माध्यम से यह धारणा जाहिर हो रही है, वे बहुत अपरिचित नहीं हैं और कल ही की बात लगते हैं. धार्मिक ध्रुवीकरण, सांप्रदायिक असहिष्णुता और हिंदू राष्ट्रवाद जैसे इन्हीं शब्दों को खुद से अलग करने में मोदी का पसीना छूट गया था.
ये सिर्फ  अतीत की इकलौती परछाइयां नहीं हैं. बीजेपी को सत्ता में वापस लाने के लिए आरएसएस और उसके नेताओं ने जमकर पसीना बहाया था. इसे अप्रत्याशित ही कहा जाएगा कि पिछले दस महीने में बीजेपी के ये वैचारिक अभिभावक और उनका समूचा परिवार बहुत मजबूत हुआ है. सभी भारतीयों के हिंदूू होने के बारे में बार-बार आने वाले बयानों से लेकर अकादमिक सत्र के बीचोबीच अचानक केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत को लागू करने जैसे फैसलों ने साबित कर दिया है कि भगवा सत्ता की आंच अब सीधे लोगों पर असर डाल रही है. पूरा भारत इस बात को समझ रहा है. लोगों में यह भाव घर कर चुका है कि मोदी आखिरकार आरएसएस के नियंत्रण से उतने मुन्न्ïत या पर्याप्त स्वतंत्र नहीं हैं. अपनी शर्तों पर काम करने का संघर्ष ऐसा लग रहा है कि और कठिन होता जा रहा है, ठीक वैसे ही जैसा एहसास अटल बिहारी वाजपेयी को दशक भर पहले हुआ था.
दोष मढऩे के मामले में भारत देरी नहीं करता और ऐसा करते समय वह हमेशा गलत भी नहीं होता, भले ही उसकी सूचना और बौद्धिकता का स्रोत टीवी की भड़कीली खबरें और बहसें हों. आज कट्टर हिंदू संगठनों के ज्यादा ढीठ हो जाने का दोष मोदी की जीत पर मढ़ा जा रहा है और ज्यादा-से-ज्यादा आवाजें ऐसी हैं जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के आरएसएस के सपने का विरोध करती सुनी जा रही हैं.

अगर आज लोकसभा चुनाव हो जाएं तो बीजेपी और एनडीए को पता चलेगा कि वे जिस लहर पर सवार होकर आए थे, वह थम चुकी है और उनकी नाव में दरारें पड़ चुकी हैं. देश का मिज़ाज सर्वेक्षण कहता है कि अभी चुनाव होने पर बीजेपी को कुल 27 सीटों का नुक्सान होगा और वह गिरकर 255 पर आ जाएगी, जो तीन दशकों में पहली बार हासिल स्पष्ट बहुमत की उसकी उपलब्धि का अंत होगा. छह महीने पहले जबरदस्त समर्थन था और पार्टी ने 16 मई को जबरदस्त आंकड़ा हासिल किया ताा. इस हिसाब से एनडीए को कुल सीटों में से 36 का नुक्सान होगा और उसका कांटा 299 पर थम जाएगा. दूसरी ओर कांग्रेस ने 44 सीटें हासिल कर के एक अलग किस्म का जो इतिहास पिछले चुनाव में रचा था, वह आज की तारीख में अतिरिक्त नौ सीटें पाकर अर्धशतक को तो पार कर जाएगी, हालांकि यह कहानी बिलकुल अलहदा है.

जो दिख रहा है, वैसा होना नहीं था. मोदी का वादा विकास, सुशासन, न्यूनतम सरकार अधिकतम राजकाज, कौशल विकास, नौकरियों, बुनियादी ढांचे, भ्रष्टाचार से जंग,गरीबी के खात्मे, स्मार्ट शहरों, स्वच्छ देश और अच्छे दिनों कों लेकर था. इस फेहरिस्त में वह सब कुछ शामिल है जिसकी भारत को जबरदस्त दरकार है. इतना तो तय है कि वे अपने इन लक्ष्यों से भटके नहीं हैं और कम से कम इनके बारे में बातें तो करते ही हैं, हालांकि उनके आलोचकों ने यह कहना शुरू कर दिया है कि मोदी का विकास का एजेंडा दरअसल संघ परिवार के मूल कार्यक्रमों के लिए मुखौटा भर था. इससे कहीं ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि क्या मोदी अपनी वैचारिक मातृ-संस्था से निपटने में नाकाम हैं या वे इस बारे में अभी विचार ही कर रहे हैं या फिर यह भी संभव है कि वे किसी किस्म के टकराव से बचने के लिए जान-बूझकर उसकी कार्रवाइयों की ओर से अपनी आंखें मूंदे हुए हों ताकि खुद को अपने काम पर केंद्रित कर सकें.

जहां तक मतदाताओं का सवाल है, उन्हें श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे अब भी तीसरी संभावना को ही मानकर चल रहे हैं. मोदी को अब भी उनके प्रयासों का श्रेय दिया जा रहा है और भारत ने अभी सारी उम्मीद नहीं छोड़ी है. उन्हें खास तौर से कूटनीति के मोर्चे पर सबसे ज्यादा श्रेय मिल रहा है—न्यूयॉर्क और सिडनी में उनके बेहद लोकप्रिय रहे भाषण, गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को मुक्चय अतिथि के रूप में बुलाना, जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे के साथ बगीचे की सैर और साबरमती रिवरफ्रंट पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ रात्रिभोज समेत ऐसे तमाम उच्च कूटनीतिक दृश्य इसकी गवाही देते हैं. सोने की कढ़ाई से अपना नाम लिखे सूट को पहनने पर तमाम झिड़कियों के बावजूद मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि दुनिया में भारत की छवि को सुधारना रही है.
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर वैश्विक रुझान मोदी के हक में रहे हैं. वैश्विक तेल कीमतें गिरने की वजह से मुद्रास्फीति में कमी आई, जिस वजह से रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कटौती कर दी. बाजार और निवेशकों के बीच माहौल सकारात्मक रहा है, शेयर बाजार ने नई ऊंचाइयों को छुआ और 2015-16 के बजट को लेकर ज्यादा शिकायतों की गुंजाइश नहीं बन सकी. 'मेक इन इंडिया' विनिर्माण क्षेत्र का नया मंत्र है जो उड़ान भरने को तैयार है, साथ ही सरकार ने बीमा में उच्चतर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और कोयला तथा खनिज उत्खनन में पारदर्शिता के लिए संसदीय मंजूरी प्राप्त करने में कामयाबी हासिल की है. भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान बनाया जाना अगला बड़ा कदम रहने वाला है जो कांग्रेस नीत विपक्ष के विरोध से अटका पड़ा है.

इस संदर्भ में देखें तो लगता है कि मोदी सरकार को लेकर भारत उतना अधीर नहीं है और उन पर भरोसा किए हुए है कि वे सशक्त आर्थिक किलेबंदी के लिए जरूरी सामान जुटा ही लेंगे. अर्थव्यवस्था में मद्धम गति से सुधार के लिए मोदी को सराहना मिल रही है, भले ही मेक इन इंडिया नाम की उनकी नीति अब तक कागजों पर ही है जबकि स्वच्छ भारत कार्यक्रम की वजह से लोग कम से कम अपने चारों ओर फैले कचरे पर बात तो करने ही लगे हैं. सांप्रदायिकता के मंडराते बादलों पर मची चीख-पुकार को अगर उन्होंने सुविधाजनक तरीके से दरकिनार कर दिया, तो इन बड़ी कामयाबियों से वह राहत महसूस कर सकते हैं. सवाल उठता है कि क्या उनका लक्ष्य बस इतना था कि उन्हें एक ऐसे शख्स के रूप में जाना जाए जिसकी सरकार ने अपेक्षा से ज्यादा प्रदर्शन किया है? तब तो उनके चुनाव प्रचार के जुमले गंभीर खतरे में पड़ जाएंगे. यही संकट अपने प्रति उनकी छवि को भी पैदा हो जाएगा. उन्होंने भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री के बतौर इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी को अगर पीछे छोड़ भी दिया है, तो उससे क्या फर्क पड़ता है? ऐसी धारणाओं की अल्पजीविता को तो मोदी भी बखूबी समझते होंगे क्योंकि उन्हें सत्ता में आए अभी महज 10 माह हुए हैं, कम से कम दस साल तक उनसे रहने की उम्मीद की जा रही है और उन्हें जो विरासत छोड़कर जानी है, उसे अब भी आकार देने की शुरुआत नहीं हुई है. वे इतिहास पर भी निगाह रखते हैं, लिहाजा, उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि इंदिरा गांधी की लोकप्रियता को पीछे छोडऩे के लिए उन्हें कुछ और दूरी तय करना बाकी है क्योंकि 2001 में रिकॉर्ड 43 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि वे अब तक की सबसे बढिय़ा प्रधानमंत्री थीं.
कांग्रेस कुछ राहत की सांस ले सकती है और अपने 44 टुकड़े समेटकर नए सिरे से अगुआई करने को प्रेरित हो सकती है. पहली बात, आज की तारीख में ज्यादा लोगों को ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस अगले पांच साल में उभर सकती है. कांग्रेस का अगला अध्यक्ष राहुल गांधी को बनाने के लिए उनके पीछे पर्याप्त ठोस समर्थन मौजूद है. कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर सोनिया का प्रदर्शन कमजोर हुआ है, हालांकि राहुल की वजह से पार्टी में पीढिय़ों के बीच आई दरार से उपजे विभाजन के खतरे को थामने के लिए सोनिया ने कमान अपने हाथ में ले ली है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल आज अगर संकटग्रस्त नहीं होते तो इस सर्वेक्षण के बल पर खुद को खुशकिस्मत ही समझ रहे होते, लेकिन मार्च में उनके पार्टी के भीतर घटे घटनक्रम ने दिखा दिया है कि चुनाव में शानदार जीत ही अकेले सब कुछ नहीं होती. यह सर्वेक्षण मार्च के अंत में आप के भीतर पैदा हुए संकट से पहले किया गया था इसलिए उस वक्त तक लोग केजरीवाल के मोह में फंसे दिख रहे थे. भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर पसंद के मामले में भारतीय राजस्व सेवा का यह पूर्व अधिकारी मोदी के ठीक पीछे खड़ा है, पर उसे अब भी अपने ऊपर लगी राजनैतिक सनक की मुहर से निजात पाना है.

फिलहाल, राहुल, सोनिया, केजरीवाल और अन्य नेता अपनी सुविधा से एक कदम पीछे हट सकते हैं. देश को चलाने का जनादेश मोदी को मिला है और लोगों ने ही इस सर्वेक्षण के माध्यम से चेतावनी जारी कर दी है कि वे किस दिशा में इस देश को ले जाना पसंद करते हैं, और सरकार को किन चीजों से बचना चाहिए. अब कैप्टन मोदी पर है कि वे अपने जहाज के पाल को दुरुस्त कर लेते हैं या फिर इशारों की अनदेखी कर खतरों को न्योता देते हैं, क्योंकि भारतीय वोटरों ने बार-बार दिखाया ही है कि वे कितने संगदिल हो सकते है.

, देश का मिजाज, मोदी, सरकार

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