2019 में मोदी-शाह की के सामने चुनौतियां चौतरफा होने लगी हैं
ताजा चुनावी नतीजे इतने दमदार भी नहीं हैं कि बीजेपी 2019 में 2014 की कांग्रेस जैसी समझी जानी लगे. हां, चुनावी हार के चलते एनडीए पर बीजेपी की पकड़ कमजोर होना और विपक्षी एकता बढ़ने की संभावना लड़ाई मुश्किल करेंगी, ये जरूर है.
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मोदी लहर और मोदी-शाह द्वय की चुनावी मशीन पर पहले भी सवाल उठे हैं. बल्कि दिल्ली और बिहार चुनावों में हार के बाद तो मार्गदर्शक मंडल भी नेतृत्व को आंखें दिखाने लगा था. अभी तो बीजेपी में आत्ममंथन और कांग्रेस में जश्न का माहौल बना हुआ है.
बीजेपी का आत्ममंथन उसके अपने कोर एजेंडे को लेकर है जो कर्नाटक से कैराना होते हुए एक बार फिर फेल हो गया है. न तो किसानों की जिन्ना बनाम गन्ने की लड़ाई में कोई दिलचस्पी है, न बाकियों को अली और बजरंगबली या फिर उनके SC या ST कैटेगरी को लेकर.
चुनावी हार का असर बीजेपी के भीतर के मुकाबले बाहर ज्यादा लग रहा है - एनडीए में. विपक्ष की एकता मजबूत होती नजर आ रही है - और उसी वक्त एनडीए टूटने लगा है. उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीए छोड़ने की घोषणा चुनाव नतीजे आने से एक दिन पहले ही कर दी थी.
कैसा होगा 2019 का एनडीए
चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी के बाद एनडीए छोड़ने वाले दूसरे नेता हैं - उपेंद्र कुशवाहा. चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा न मिलने के विरोध में एडीए छोड़ा तो, उपेंद्र कुशवाहा ने 2019 के लिए सम्मानजनक सीटें न मिलने का बहाना बनाया. वैसे उपेंद्र कुशवाहा तो निकलने की तैयारी तभी से करने लगे थे जब से नीतीश कुमार महागठबंधन छोड़ कर घर वापसी कर लिये थे.
एनडीए छोड़ कर बीजेपी के लिए कितनी बड़ी चुनौती बनेंगे कुशवाहा?
उपेंद्र कुशवाहा तो चले गये, अब रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी भी अंगड़ाई लेने लगी है. सीटों को लेकर चिराग पासवान बागी तेवर दिखाने लगे हैं. शिवसेना तो अयोध्या कांड पर पहले से नई इबारत लिखना शुरू कर दिया है. वैसे 2019 में अकेले चुनाव लड़ने की बात तो शिवसेना पहले से ही कर रही है. शिवसेना की एनडीए छोड़ने की धमकी भी उतनी ही जोरदार लगती है जितनी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पर केंद्र की मोदी सरकार को चेतावनी.
जेडीयू खेमे से भी अलख निरंजन उद्घोष सुने जा सकते हैं. राम मंदिर पर कानून जैसी कवायद नहीं चलेगी - जेडीयू नेता बीजेपी को आगाह करने लगे हैं. तीन राज्यों में सत्ता गंवाने और दो में सियासी घुसपैठ में नाकाम बीजेपी की निर्भरता नीतीश कुमार पर ज्यादा लगने लगी है. प्रशांत किशोर तो नये पेंच फंसाने की तैयारी में लगे ही हैं. खुद को साबित करने के लिए ही सही, पटना यूनिवर्सिटी का चुनाव जेडीयू को जिता कर संकेत भी दे दिया है. एबीवीपी के नेता को युवा जेडीयू में लाकर प्रशांत किशोर ये भी बता चुके हैं कि वो किस हद तक जा सकते हैं - और जेडीयू की जीत के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. बीजेपी भले छात्र संघ चुनाव के पहले यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर से मुलाकात और मुलाकात में चुनाव अधिकारी की मौजूदगी पर शोर मचाती रहे. पीके को ऐसी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता.
मौजूदा सहयोगियों की अहमियत बढ़ने के साथ ही एनडीए को कुछ नये साथियों की भी तलाश होगी. हालांकि, बीजेपी के हाथ वे ही लग पाएंगे जो पूरी तरह गैर-बीजेपी मूड बना चुके हों. नवीन पटनायक जैसे नेता भी हैं जिन्हें दोनों खेमों से परहेज है.
कितना चैलेंज देगा एकजुट विपक्ष
छत्तीसगढ़ एक्सपेरिमेंट और मध्य प्रदेश-राजस्थान में बीएसपी को मिली जीत के बाद मायावती को अपनी ताकत और सीमाएं दोनों का एहसास हो चुका है. अखिलेश यादव तो कह ही दिये थे कि वो मौका मिलने पर मायावती के अनुभवों का लाभ उठाएंगे. मायावती के कांग्रेस को सपोर्ट की घोषणा के तत्काल बाद अपना भी समर्थन देकर अखिलेश यादव ने आगे का स्टैंड भी साफ कर रखा है.
विधानसभा चुनाव के नतीजों से विपक्षी एकता में आई मजबूती
अब तो कोई संदेह नहीं लग रहा है कि मायावती और अखिलेश यादव को कांग्रेस के साथ गठबंधन से किसी तरह का परहेज होगा. फिर तो यूपी में ऐसे महागठबंधन की प्रबल संभावना बनती है जिसमें अजीत सिंह भी अपनी आरएलडी के साथ शामिल हो सकते हैं. कैराना चुनाव और उसके नतीजे ये बताने के लिए काफी हैं कि लड़ाई बीजेपी के लिए कितनी मुश्किल हो सकती है.
राहुल गांधी के साथ एनडीए के पुराने पार्टनर चंद्रबाबू नायडू खुल कर मैदान में आ ही चुके हैं. शरद पवार और एचडी देवगौड़ा जैसे नेता कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं ही. देवगौड़ा और ममता बनर्जी के मन में अगर कुछ शक शुबहा रहा हो तो कांग्रेस की लेटेस्ट पारी उसका पहले ही जवाब दे चुकी है.
ताजा जीत का आगे जो भी प्रभाव पड़े, फिलहाल इतना तो हो ही चुका है कि कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साह से लबालब हैं और विपक्षी खेमे को भी कांग्रेस पर सवाल उठाने में संकोच हो सकता है.
बीजेपी की बागी ब्रिगेड के राफेल सौदे पर शोर मचाने का बीजेपी को नुकसान तो हुआ ही. शोर का पूरा फायदा उठाते हुए राहुल गांधी ने अपने लिए 2019 के संघर्ष की राह थोड़ी आसान भी कर ली है. कांग्रेस के रिएक्शन से भी साफ है कि वो राफेल को इतनी जल्दी ठंडे बस्ते में नहीं डालने वाले. असल में उन्हें ये भी मालूम है कि मिशेल के जरिये सत्ता पक्ष उन्हें घेरेगा ही, इसलिए जब तक संभव है मैदान में डटे रहो. और कुछ न सही - जब जवाबी पलटवार ही करना है. मुंहतोड़ जवाब ही देना है. गाल बजाने हैं. गाल से दीवाल को धक्के देना है - फिर क्या फर्क पड़ता है.
कितना चल पाएगा मोदी का जादू?
2019 को देखते हुए बीजेपी की चुनौतियां जरूर बढ़ रही हैं, लेकिन कई बातें पूरी तरह उसके पक्ष में भी हैं. तीनों राज्यों की चुनावी परिस्थितियां अलग रहीं. जरूरी नहीं कि 2019 तक माहौल ऐसा ही बना रहे. तब तक अगर कांग्रेस शासन खुद को स्थापित नहीं कर पाया तो बीजेपी को पूरा फायदा मिल सकता है - लेकिन अगर उल्टा हो गया तो कहना मुश्किल है.
वैसे भी छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाये तो राजस्थान और मध्य प्रदेश में बीजेपी ने सत्ता गंवाई जरूर है, लेकिन संघर्ष में कोई कमी नहीं मानी जा सकती है. मध्य प्रदेश में अगर आधा दर्जन वो सीटें हाथ से नहीं फिसली होतीं, जहां हार का अंतर मामूली रहा - तो तस्वीर कुछ और हो सकती थी. फिर तो मायावती के खातें में कुछ सीटें जाने से बीजेपी को कोई फर्क भी नहीं पड़ता. निर्दलीय तो साथ आ ही जाते. वैसे मध्य प्रदेश में माना गया कि शिवराज सिंह चौहान को मोदी सरकार की सत्ता विरोधी लहर ले डूबी.
मोदी सरकार के सत्ता विरोधी फैक्टर की पहली कैजुअल्टी है मध्य प्रदेश की सत्ता का हाथ से निकल जाना. 2019 में तो पूरा देश ही सामने होगा. ऐसा हर इलाके में हो सकता है.
2019 में मोदी का जादू कितना असरदार?
नॉर्थ ईस्ट से बीजेपी को चाहे जितनी भी उम्मीद हो, हिंदी पट्टी में तो ऐसा मिला-जुला असर तय माना जा रहा है - ज्यादातर निगेटिव भी है आगे और भी होगा, ऐसी ही संभावना लगती है.
मोदी ने यूपी में बीजेपी की सरकार बनवा डाली, लेकिन योगी को सत्ता सौंपे जाने के बाद बीजेपी को लोक सभा की तीन तीन सीटें गंवानी पड़ी - जिनमें खुद योगी और यूपी के डिप्टी सीएम केशव मौर्या की भी सीट शामिल है. कैराना तो विपक्ष का रोल मॉडल हो सकता है. सिर्फ यूपी ही नहीं, बल्कि पूरे देश में.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में आम चुनाव के दौरान क्या सीन होगा अभी से कयास लगाना ठीक नहीं होगा. बिहार में बीजेपी को अब बात बात पर नीतीश कुमार का मुंह देखना पड़ेगा. ये ठीक है कि सीटों पर 50-50 समझौता हो चुका है - लेकिन कौन-कौन और कहां-कहां, ये तो फैसला होना तो बाकी ही है.
राफेल अभी शांत नहीं होने वाला. किसान कर्जमाफी के पैमाने पर पार्टियों को तौलने लगे हैं, दूसरी सुविधाएं उन्हें शायद बेदम नजर आती हैं. नौजवान रोजगार के लिए आस लगाये हुए हैं - कारोबारी और मध्य वर्ग की अपनी ख्वाहिशें और मुश्किलें हैं.
बाद में जो भी हो - अभी तो ऐसा लग रहा है कि मंदिर मुद्दा और योगी आदित्यनाथ भी धार धीमी पड़ने लगी है. अगर राष्ट्रवाद का एजेंडा आगे बढ़ाने और राफेल पर सुप्रीम कोर्ट और मिशेल के बावजूद विपक्ष की बोलती बंद करने में बीजेपी नाकाम रही तो क्या करेगी? मोदी के जादू की ताकत इन्हीं सब से बढ़ती और घटती है.
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