मुस्लिम वोटर ने MCD election में कांग्रेस, AAP और बीजेपी का फर्क समझा दिया
दिल्ली नगर निगम चुनाव (MCD Election Results) के जरिये मुस्लिम मतदाताओं (Muslim Voters) ने कांग्रेस को पहली पसंद माना है. उसने सॉफ्ट हिंदुत्व के रास्ते पर चल रहे केजरीवाल को संदेश दिया है. मुसलमानों ने बीजेपी के पसमांदा मुस्लिम प्रयोग को पूरी तरह नकार दिया है.
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दिल्ली के मुस्लिम वोटर ने एमसीडी चुनाव (MCD Election Results) के नतीजों में कांग्रेस, अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी और भाजपा के लिए बड़े मैसेज दिए हैं. दिल्ली में मुस्लिम आबादी 15 फीसदी के आस पास है - और ये ओखला, मटिया महल, सीलमपुर, मुस्तफाबाद, बल्ली मरान, बाबरपुर, सदर बाजार, चांदनी महल, अबुल फजल एनक्लेव के अलावा श्रीराम कालोनी और बृजपुरी जैसे इलाकों में भी अच्छी खासी तादाद में है.
इंडिया टुडे एक्सिस माई इंडिया के एग्जिट पोल के सर्वे में पाया गया कि मुस्लिम वोट में आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 56 फीसदी रहा है, जबकि कांग्रेस का 23 फीसदी. सर्वे के मुताबिक, बीजेपी के हिस्से में 8 फीसदी मुस्लिम वोट आये हैं. एमसीडी चुनाव के नतीजों को देखें तो कुल 14 मुस्लिम पार्षद बने हैं, जिनमें कांग्रेस के 7 और आम आदमी पार्टी के 6 पार्षद चुने गये हैं - एक निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार को भी जीत मिली है.
मुस्लिम वोटर के लिए कांग्रेस पहली पसंद
आप ने इस चुनाव में 53 फीसदी मुस्लिम वोट हासिल किया है, लेकिन ये 2020 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 14 फीसदी कम है. जबकि कांग्रेस ने दिल्ली नगर निगम चुनाव में 30 फीसदी वोट हासिल किया है, लेकिन ये 2020 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 13 फीसदी ज्यादा है.
कांग्रेस ने कुल 24 मुस्लिमों को दिल्ली नगर निगम का टिकट दिया था और उनमें से सिर्फ 7 ही सफल हो पाये - लेकिन खास बात ये है कि कांग्रेस छह कैंडिडेट ने आम आदमी पार्टी के ही उम्मीदवारों हरा कर चुनाव जीता है.
एमसीडी चुनाव में आप के मुकाबले कांग्रेस भले ही काफी पिछड़ गयी हो,लेकिन मुस्लिम वोटर के बीच वो अब भी नंबर 1 बनी हुई है
कांग्रेस ने जो 5 सीटें जीती हैं, उन सभी सीटों पर दूसरे नंबर पर आप के मुस्लिम उम्मीदवार रहे हैं, जबकि एक सीट पर हिंदू उम्मीदवार की हार हुई है - और सबसे ज्यादा ताज्जुब की बात ये है कि एक सीट पर आम आदमी पार्टी ने असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM के उम्मीदवार को हरा कर जीत हासिल की है.
कांग्रेस की हालत भले ही पतली हो, लेकिन वो अरविंद केजरीवाल के मुकाबले खुद को हर कदम पर बीस साबित करने की कोशिश में है. ये हाल तब है जब कांग्रेस के कुल 9 ही पार्षद चुने गये हैं, लेकिन बोलने का मौका इसलिए मिल रहा है कि 9 में से सात मुस्लिम पार्षद हैं.
टीवी बहसों में अभी से कांग्रेस के प्रवक्ता कहने लगे हैं कि विधानसभा चुनावों के बाद दिल्ली दंगों को लेकर कांग्रेस का रुख पूरी तरह साफ रहा और ये बात मुस्लिम वोटर अच्छी तरह समझ रहा है. दंगों को लेकर कांग्रेस नेता एक बार फिर अरविंद केजरीवाल को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं.
दिल्ली दंगों को लेकर अरविंद केजरीवाल का स्टैंड काफी संदिग्ध नजर आया था. जब दिल्ली के लोग दंगे से जूझ रहे थे, मुख्यमंत्री होकर भी अरविंद केजरीवाल घर में बैठे रहे. तब उनको लगा था कि चूंकि दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है, इसलिए सारी तोहमत बीजेपी नेता अमित शाह पर आएगी - और वो साफ साफ बच जाएंगे, लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ.
तब कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की भूमिका पर सवालिया निशान भी लगाया था - और दिल्ली दंगों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ तत्कालीनी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मुलाकात भी की थी.
सोनिया गांधी की पहले के बाद कांग्रेस और बीजेपी तो आपस में ही उलझ गये. बीजेपी नेता कांग्रेस नेतृत्व को 1984 के दिल्ली दंगों की याद दिलाने लगे, लेकिन अरविंद केजरीवाल की भूमिका पर सबसे ज्यादा सवाल उठे थे - और कुछ न सही, कम से कम वो लोगों के बीच खड़े होकर शांति की अपील तो कर ही सकते थे. अगर ऐसा भी नहीं कर सकते तो किस बात मुख्यमंत्री कहे जाएंगे?
कांग्रेस अब उसी बात को याद दिलाकर मुस्लिम समुदाय पर एहसान जताने की कोशिश कर रही है - और बीजेपी को घेरते हुए अरविंद केजरीवाल को टारगेट पर ले रही है. अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कांग्रेस को ये मौका तो मुस्लिम वोटर ने ही दिया है.
मुसलमानों को रास नहीं आया केजरीवाल का सॉफ्ट हिंदुत्व
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली नगर निगम की 250 सीटों में से 14 वार्डों में मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे - और गौर करने वाली बात ये है कि उनमें से 6 ही चुनाव जीत पाये हैं. देखा जाये तो कांग्रेस और बीजेपी के मुकाबले आप का प्रदर्शन काफी बेहतर है.
जामा मस्जिद वार्ड से आप की सुल्ताना आबाद, बल्ली मारान से मोहम्मद सादिक आप के पार्षद चुने गये हैं. कुरैश नगर सीट पर खास बात ये है कि आप की शमीम बानो ने बीजेपी की शमीना रजा को शिकस्त दी है, जबकि श्रीराम कालोनी में आप के मोहम्मद आमिल मलिक ने बीजेपी के प्रमोद झा को हराया है.
चांदनी महल सीट वार्ड में आप के मोहम्मद इकबाल ने कांग्रेस के मोहम्मद हामिद को और बाजार सीता राम वार्ड में आप की रफिया महिर ने कांग्रेस की सीमा ताहिरा को हरा कर चुनाव जीत लिया है.
देखा जाये तो मुस्लिम वोटर के बीच आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन पर अरविंद केजरीवाल के बयानों का प्रभाव कम ही लगता है. ऐसा इसलिए भी माना जा सकता है क्योंकि आप उम्मीदवारों को उन इलाकों में शिकस्त मिली है, जिनके बारे में अरविंद केजरीवाल ने सोचा भी नहीं होगा - और वो है आप विधायक अमानतुल्ला खान का इलाका, जहां कांग्रेस ने घुसपैठ कर ली है.
क्या अरविंद केजरीवाल का 'जय श्रीराम' बोलना और हिंदुत्व की राजनीति करने का वादा मुस्लिम समुदाय को अच्छा नहीं लग रहा है?
अगर दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों का हाल बीजेपी उम्मीदवारों जैसा हुआ होता, तो एक बार ऐसा माना भी जा सकता था. लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं हुआ है. अमानतुल्ला खान के खिलाफ हुई पुलिस कार्रवाई को आम आदमी पार्टी ने मुद्दा बनाने की काफी कोशिशें की थी, लेकिन उनके इलाके की अबुल फजल और जाकिर नगर की सीटों पर कांग्रेस की जीत तो अलग ही कहानी कह रही है.
रही बात हिंदुत्व की राजनीति की, तो अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 के समय से ही जय श्रीराम के नारे लगाने लगे थे. दिल्ली चुनाव जीतने के बाद दिल्लीवालों को तो आई लव यू कहा था, लेकिन थैंक यू हनुमान जी को ही बोले थे - और सबसे ज्यादा चौंकाने वाला बयान तो अरविंद केजरीवाल का नोटों पर पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें लगाने वाला रहा है.
हाल ही में एक इंटरव्यू में अरविंद केजरीवाल से हिंदुत्व की राजनीति को लेकर सवाल पूछा गया तो बोले, 'हिंदू होकर मैं हिंदुत्व नहीं करूंगा... तो और क्या करूंगा…'
अब अगर ऐसी बयान देने के बाद भी दिल्ली नगर निगम चुनाव में आम आदमी पार्टी के 14 में से छह उम्मीदवार चुनाव जीत जाते हैं, तो भला अरविंद केजरीवाल की हिंदुत्व की राजनीति का असर कैसे समझा जा सकता है - लेकिन अमानतुल्ला खान के इलाके में आप की हार तो अरविंद केजरीवाल को उनको लेकर अपने स्टैंड पर फिर से विचार करने की सलाह तो दे ही रहा है.
बीजेपी का पसमांदा कार्ड दिल्ली में फेल
हैदराबाद में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसमांदा समुदाय के लोगों तक पहुंच बनाने की बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं को सलाह दी थी. मोदी का कहना रहा कि ओबीसी कोटे में होने के चलते जिन सरकारी योजनाओं के लाभार्थी पसमांदा मुस्लिम को बताया जाये कि सरकार उनके बारे में क्या सोचती है. उसके बाद से ही उत्तर प्रदेश में जगह जगह पसमांदा सम्मेलन कराये जा रहे हैं जहां बीजेपी के मंत्रियों की मौजदगी भी देखी गयी है.
असल में मुस्लिम समुदाय की आबादी में पसमांदा मुसलमानों की 80-85 फीसदी हिस्सेदारी है. बीजेपी की तरफ से यूपी में पसमांदा सम्मेलन तो कराये ही जा रहे हैं, नजर बिहार की राजनीति पर भी टिकी हुई है.
2017 के एमसीडी चुनाव में बीजेपी ने छह मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था. एक उम्मीदवार का नामांकन रद्द हो गया था, जबकि बाकी पांच चुनाव हार गये थे - इस बार बीजेपी ने एक नया प्रयोग किया था, लेकिन नतीजे बिलकुल वैसे ही रहे. बीजेपी के सभी उम्मीदवार चुनाव हार गये.
बीजेपी ने पिछली बार जिन मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था, उनमें पसमांदा समुदाय से सिर्फ दो थे, इस बार के एमसीडी चुनाव में बीजेपी ने सिर्फ पसमांदा मुस्लिमों को ही उम्मीदवार बनाया था - जिनमें तीन महिलाएं रहीं.
बीजेपी उम्मीदवारों में सिर्फ शमीना रजा एक मात्र प्रत्याशी रहीं जो कुरैश नगर वार्ड में दूसरे स्थान पर आयी थीं, जबकि चौहान बांगर वार्ड से सबा गाजी, मुस्तफाबाद से शबनम मलिक और चांदनी महल से इरफान मलिक तीनों ही सीधी लड़ाई से बाहर रहे. तो क्या इसकी वजह बीजेपी का एक साथ गुजरात और दिल्ली में मुस्लिम वोटर को लेकर डबल स्टैंडर्ड रहा होगा?
ऐसा भी नहीं लगता कि दिल्ली के मुस्लिम वोटर ने बीजेपी उम्मीदवारों को लेकर एक बार भी गंभीरता से नहीं सोचा. क्योंकि ऐसा होता तो कुछ सीटों पर बीजेपी के मुस्लिम उम्मीदवार दूसरी पोजीशन पर नहीं पाये जाते.
तो क्या गुजरात के वोटर को 2002 के दंगों की याद दिलाकर बीजेपी दिल्ली में हाथ धो बैठी? ये तो सबको समझ में आया ही कि दंगाइयों को सबक सिखाने की बात कर केंद्रीय गृह मंत्री ने बीजेपी के वोटर को राजनीतिक मैसेज ही दिया था - और आने वाले दिनों में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का वादा भी उसी पॉलिटिकल लाइन को आगे बढ़ाता है.
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