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Updated: 08 जुलाई, 2015 02:14 PM
अपर्णा पांडे
अपर्णा पांडे
 
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रूस में शंघाई कॉरपोरेशन ऑर्गनाइजेशन (SCO) की होने वाले बैठक से इतर नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच मुलाकात की खबरें अभी से सुर्खियों में हैं. लेकिन बुनियादी स्तर पर यह मुलाकात दोनों देशों के रिश्तों में कितना बदलाव ला पाएगा, इस बारे में शक है. हर बार जब भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री किसी अंतर्राष्ट्रीय बैठक में जाते हैं, तो उम्मीदों की कई पतंगे हवा में तैरने लगती हैं.

मोदी फिलहाल मध्य एशिया के पांच देशों के आठ दिनों के दौरे पर हैं. इन देशों में उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिकस्तान और ताजिकिस्तान और फिर रूस शामिल हैं. रूस में मोदी एससीओ और ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, और दक्षिण अफ्रीका) की बैठकों में हिस्सा लेंगे.

मोदी विकास के नाम पर सत्ता में आए और विदेश नीति में उन्होंने अपनी पहल शुरू भी की. मोदी और उनके सलाहकारों को लगता है कि बेहतर अर्थव्यवस्था भारत को घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आगे ले जाने में कामयाब होगी. मोदी की विदेश नीति मुख्य तौर पर भारत में निवेश बढ़ाने पर  जोर दे रही है.

मोदी ने आम चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल करने के बाद अपने शपथ ग्रहण समारोह में सभी दक्षिण एशियाई देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया था. मोदी के अनुसार भारत उन सभी देशों से करीबी रिश्ते बनाना चाहता है जो भारत में रूचि लेते हैं. इसलिए भारत पड़ोसी देशों को हर प्रकार की आर्थिक सहायता, व्यापार और भरोसे का माहौल देगा. लेकिन उसके बदले में उसे उम्मीद है अन्य देश भी उसकी सुरक्षा और कूटनीतिक जरूरतों को समझेंगे. इसी के तहत भारत अपने करीबी नेपाल, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों को दो बिलियन डॉलर की सहायता दे रहा है.

साउथ ईस्ट और सेंट्रल एशियाई देशों में मोदी की कोशिश आर्थिक मदद, व्यापार और कनेक्टिविटी बढ़ाने की है. इसलिए भारत ने मंगोलिया को भी एक बिलियन डॉलर और वियतनाम को 100 डॉलर मिलियन की सहायता दी है. साथ ही भारत सरकार इन क्षेत्रों में रोड और रेल की परियोजनाओं को बढ़ाने में भी मदद करेगी.

दूसरी ओर, नवाज शरीफ भारत और अफगानिस्तान के संबंध में पाकिस्तान की नीति में बदलाव के वादे के साथ सत्ता में आए. हालांकि वहां की सत्ता में सेना का सीधा दखल दर्शाता है कि पाकिस्तान की विदेश और रक्षा नीति पूरी तरह शरीफ के हाथ में नहीं है. मैंने पहले भी अपनी किताब 'एस्केपिंग इंडिया' में पाकिस्तान की अफगानिस्तान और भारत को लेकर विदेश नीति के बारे में बात की है. पाकिस्तान में कई जिहादी ग्रुप हैं. लेकिन भारत को अब भी वहां बड़ा दुश्मन माना जाता है. साथ ही अफगानिस्तान को लेकर पाकिस्तान की ज्यादातर नीति भारत को ध्यान में रख कर बनाई जाती है.

भारत ने 1990 के बाद से ही अपने पड़ोसियों के साथ आर्थिक संबंध बनाने की कवायद शुरू कर दी. इसमें पाकिस्तान भी शामिल है. वहीं पाकिस्तान का नेतृत्व, खासकर सेना की ओर से भारत के साथ आर्थिक रिश्तों को और गहरा करने की कोशिशों का विरोध किया जाता रहा है. उनका मत है कि सबसे पहले कश्मीर मुद्दे का हल निकाला जाना चाहिए. इसी साल जून में शरीफ के विदेश सलाहकार सरताज अजीज ने कहा है कि पाकिस्तान, 'भारत की शर्तों' पर उससे बात नहीं करेगा. साथ ही वह भारत के साथ किसी ऐसे डॉयलॉग में शामिल नहीं होगा जिसका एजेंडा कश्मीर और जल मुद्दा नहीं है.

पाकिस्तान के कर्ताधर्ता इसे समझने को तैयार नहीं है कि सीमा विवाद और आर्थिक सहयोग दो अलग-अलग चीजें हैं. उदाहरण के तौर पर चीन-ताइवान, चीन-जापान, चीन-दक्षिण कोरिया और भारत-चीन का उदाहरण ले सकते हैं. इन सभी देशों के बीच सीमा विवाद हैं, लेकिन इसका असर उनके बीच के व्यापार पर नहीं पड़ा. दरअसल, आर्थिक तौर पर एक-दूसरे के करीब आने से विवादित मुद्दों पर भी बातचीत का एक अच्छा माहौल तैयार होता है.

पाकिस्तान भले ही भारत के साथ आर्थिक समझौते को नहीं बढ़ाना चाहता लेकिन उनके अन्य पड़ोसी देश, जिसमें अफगानिस्तान भी शामिल है, भारत के साथ रिश्ते को लेकर गंभीर हैं. अर्थनीति कहती है कि पाकिस्तान अगर सभी के साथ मिल कर चलने को तैयार नहीं हुआ तो अलग-थलग पड़ जाएगा. इसी साल अप्रैल में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ घनी ने भारत का दौरा किया. उन्होंने साफ कहा है कि अगर पाकिस्तान उन्हें भारत के साथ व्यापार के लिए रास्ता मुहैया नहीं कराता, तो वे भी पाकिस्तान को मध्य एशिया के लिए रास्ता नहीं देंगे.

आजादी के बाद से ही हर भारतीय प्रधानमंत्री की नीति पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने की रही है. मोदी ने हालांकि अलग राह चुनी है. मोदी के अनुसार वह भी पाकिस्तान के साथ रिश्ते मजबूत करना चाहते हैं. लेकिन तभी जब पाकिस्तान सीमा पार से घुसपैठ को बढ़ावा देने बंद करे और अपने पड़ोसी देशों भारत और अफगानिस्तान के साथ आर्थिक रूप से कदम मिला कर चले.

अगर पाकिस्तान का नेतृत्व यह समझता है कि मोदी के कार्यकाल में भी सब कुछ पहले की तरह चलता रहेगा तो उसे संभल जाना चाहिए. पिछले एक साल में इसकी बानगी भी देखने को मिली है. भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के साथ सामान्य रिश्ता बनाए रखा है. दोनों प्रधानमंत्रियों ने साड़ी और आम एक-दूसरे को जरूर भेजे हैं लेकिन दोनों देशों के बीच व्यापक स्तर पर बातचीत का माहौल अब भी शुरू नहीं हो सका है. भारतीय विदेश सचिव एस. जयशंकर ने जब मार्च-2015 में पाकिस्तान का दौरा किया. उन्होंने तब भी साफ किया कि यह दौरा सार्क यात्रा के तहत है. इसे दोनों देशों के बीच बातचीत की शुरुआत नहीं मानी जाए.

इसी प्रकार पिछले एक साल में जब भी पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी की घटनाएं हुई हैं, भारत ने उसका मजबूती से जवाब दिया है.

बहरहाल, केवल बैठकों से बात नहीं बनने वाली है. कई स्तरों पर बदलाव की जरूरत है. मोदी ने भारत की विदेश नीति में कुछ बदलाव के साथ इसकी शुरुआत की है. मोदी इस समय आर्थिक स्तर पर भारत को दुनिया के अन्य देशों के साथ खड़ा करने की कोशिश में जुटे हैं. पाकिस्तान अगर जल्द ही समझ लेता है कि वह भी आर्थिक स्तर पर इससे फायदा उठा सकता है तभी दोनों देश आगे बढ़ सकते हैं. नहीं तो, बात हाथ मिलाने, वाघा पर कैंडल जलाने, क्रिकेट डिप्लोमेसी और सीमा पर एक-दूसरे को धमकाने तक ही सीमित रह जाएगी.

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लेखक

अपर्णा पांडे अपर्णा पांडे

लेखिका वाशिंगटन डीसी के हडसन इंस्टीट्यूट में रिसर्च फैलो हैं और इन्होंने एक किताब 'Escaping India: Explaining India's Foreign Policy' भी लिखी है.

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