पाकिस्तान को लेकर मोदी के पास नहीं है साफ नीति
अपने एक साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से विदेश मामलों पर तत्परता दिखाई है, वैसी शायद किसी और क्षेत्र में नहीं. निश्चित रूप से वे वैश्विक मामलों पर बात करना पसंद करते हैं.
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अपने एक साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से विदेश मामलों पर तत्परता दिखाई है, वैसी शायद किसी और क्षेत्र में नहीं. निश्चित रूप से वे वैश्विक मामलों पर बात करना पसंद करते हैं. इस लिहाज से उन्हें हाल में कुछ सफलताएं भी मिली हैं. अमेरिका के साथ उन्होंने रिश्तों में गर्माहट लाने की कोशिश की. चीन से जरूर कुछ निराशा हाथ लगी लेकिन वे बांग्लादेश के साथ एक महत्वपूर्ण सीमा समझौता करने में कामयाब रहे. मोदी ने नेपाल को यह भरोसा दिलाया कि भारत उसके साथ और बेहतर ढंग से पेश आएगा. इन कोशिशों का नतीजा अच्छा रहा और वैश्विक स्तर पर भारत की साख बढ़ी है.
हालांकि ऐसा एक क्षेत्र बाकी है, जहां मोदी अपनी रणनीति को लेकर बहुत उलझे हुए नजर आ रहे हैं. पाकिस्तान के मामले में ऐसा लगता है कि मोदी अब तक किसी ठोस योजना को नहीं अपना सके. इसलिए पाकिस्तान के मामले में समय-समय पर उनकी सरकार की तरफ से एक मिश्रित प्रतिक्रिया देखने को मिलती रही है.
नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को बुलाया. इसके बाद विदेश सचिव स्तर की बातचीत का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया. पाकिस्तान कश्मीर के हुर्रियत नेताओं के साथ अपने संबंधो को खत्म करने के लिए राजी नहीं हुआ लेकिन मोदी ने विदेश सचिव को इस्लामाबाद भेज दिया. मोदी का दावा है कि वह पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहते हैं लेकिन साथ ही वह संयुक्त राष्ट्र और काठमांडू में सार्क देशों की सभा में नवाज शरीफ की अनदेखी भी करते हैं. यही नहीं, एक तरफ एक मंत्री कहते हैं कि भारत सीमा के उस पार पाकिस्तान में भी छापेमारी कर सकता है और दूसरी तरफ मोदी फोन पर नवाज शरीफ को रमजान की मुबारकबाद देते हैं.
पाकिस्तान के बारे में आगे क्या करना है, इसके बारे में विदेश नीति बिल्कुल साफ और अच्छी नहीं कही जा सकती. सबसे बड़ी भ्रांति शायद यह भी है कि भारत क्षेत्रीय स्तर पर पाकिस्तान को अलग-थलग करना चाहता है. 'सार्क माइनस वन' नीति व्यापार और परिवहन के तहत सभी सार्क देशों को एक-दूसरे के करीब लाने की कोशिश है. भारत-पाकिस्तान झगड़े को पीछे छोड़ दक्षिण एशियाई देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने का यह एक तरीका हो सकता है. लेकिन यह पाकिस्तान से डील करने का कारगर तरीका नहीं हो सकता.
यह कहना भी गलत है कि भारत-पाकिस्तान के बीच अब तक हुई बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला. साल 2003 में एक समझौते के बाद लाइन ऑफ कंट्रोल (LOC) पर दोनों सेनाओं के बीच तनाव कम हुआ और घुसपैठ में भी कमी आई. सीमापार व्यापार को बढ़ावा मिला, एक विश्वास का माहौल भी बना. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यह कारवां थोड़ा और आगे बढ़ा. वीजा के नियमों में ढील और बेहतर व्यापार का माहौल तैयार हुआ. जो लोग यह कहते हैं कि बात करने से कुछ हासिल नहीं हो रहा, वे यह भी तो नहीं बताते कि बिना बात किए भी क्या हासिल कर लेंगे.
भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत के खिलाफ सबसे बड़ा तर्क यही दिया जाता है कि पड़ोसी देश ने हमेशा धोखा दिया. अटल बिहार वाजपेयी सरकार के दौरान जिस प्रकार दिल्ली-लाहौर बस यात्रा शुरू होने के कुछ दिनों बाद कारगिल युद्ध हुआ, मोदी शायद उस परिस्थिति से बचना चाहते हैं. वो 2009 में आम चुनाव के कुछ महीनों पहले हुए 26/11 मुंबई हमले के हालात में खुद को नहीं डालना चाहते.
क्या होगा अगर मोदी के कार्यकाल में भी ऐसी ही कोई बड़ी दुर्घटना घट जाए?
मोदी शायद अपनी इमेज को लेकर ज्यादा चिंतित हैं. अगर भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत नहीं होती, तस्वीरों के लिए हाथ नहीं मिलाया जाता तो मोदी की इमेज पर शायद ज्यादा असर नहीं पड़ेगा. वे पूर्व में वाजपेयी और मनमोहन की तरह ठगा हुआ महसूस नहीं किए जाएंगे. अगर सीमा पार से कोई बड़ा हमला होता भी है तो मोदी के मजबूत नेता वाली छवि पर असर नहीं पड़ेगा. लेकिन सवाल यह भी है कि अगर ऐसा कुछ होता है तो मोदी की प्रतिक्रिया क्या होगी. क्या वह वाजपेयी और मनमोहन की तरह कूटनीतिक विरोध दर्ज कराएंगे. या संसद पर हुए हमले के बाद वाजपेयी की तरह सीमा पर सैनिक दबाव बढ़ाएंगे?
संभवत: पाकिस्तान को लेकर मोदी ने मिश्रित प्रतिक्रियाओं का जाल जानबूझ कर बनाया है ताकि हम उनके इरादे को लेकर केवल अटकलें लगाते रहें.
मोदी को 2016 में इस्लामाबाद में होने वाले सार्क सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए पाकिस्तान की यात्रा करनी पड़ सकती है. इस सम्मेलन की तारीखों के बारे में अभी फैसला नहीं हो सका है. ऐसे में भारत और पाकिस्तान अपने रिश्तों को लेकर बहुत उदासीन भी नहीं रह सकते. जरूरी नहीं कि विदेश नीति हमेशा बड़े तामझाम और तस्वीरों के साथ आगे बढ़ाई जाए. पाकिस्तान के साथ रिश्तों को आगे बढ़ाना एक धीमी और जटिल प्रक्रिया है. इसके लिए पहले विश्वास का एक माहौल तैयार करना होगा और इसकी शुरुआत अभी से हो जानी चाहिए. शायद यह बैठक बातचीत के दौर को फिर से शुरू करने का एक बेहतर जरिया बन कर सामने आए.
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