New

होम -> सियासत

 |  4-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 07 सितम्बर, 2015 04:23 PM
शेखर गुप्ता
शेखर गुप्ता
  @shekharguptaofficial
  • Total Shares

भारत और पाकिस्तान दोनों इस समय 1965 युद्ध में अपनी-अपनी 'जीत' का जश्न मनाने में व्यस्त हैं.

भले ही दोनों अपनी जीत का दावा करते रहे हों. लेकिन 50 साल बाद भी सच्चाई यही है कि जब भी हम उस लड़ाई की बात करेंगे, परिणाम को लेकर एक धुंधली तस्वीर ही उभरती है. इतना जरूर है कि इसमें कई जानें गईं और राष्ट्रीय संसाधनो का बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ.

अगर इस जंग ने कुछ साबित किया तो वह ये कि युद्ध से आप कुछ भी हासिल नहीं कर सकते. निश्चित तौर पर कोई भी जंग आपको ऐसी शांति की ओर नहीं ले जाती जो लंबे समय तक कायम रह सके. एक पक्ष जीतता है, तो हारने वाला अपने घावों के भरने का इंतजार करता है और सही मौका मिलने पर फिर से हमला करता है. 1967 में छह दिनों की जंग में ही इजरायल ने अरब पर विजय हासिल कर ली थी. उसने वेस्ट बैंक, गोलान हाइट्स और सिनाई रेगिस्‍तान के भी कई भागों पर अपना कब्जा जमा लिया.

लेकिन छह सालों के अंदर ही 'योम किपुर युद्ध' में अरब ने वापसी कर ली. इस बार वे बेहतर योजना और तैयारी के साथ युद्ध में उतरे. नतीजा अलग रहा और इजरायल बमुश्किल अपनी साख बचा सका. यह वे दिन थे जब यह माना जाता था कि छोटे देशों को आसानी से मात दी जा सकती है, और इतिहासकारों में इस बात पर आज भी बहस होती है कि ऐसे देश जल्दबाजी या आवेश में अपने अघोषित परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकते हैं. बहरहाल, बाद में कैंप डेविड शांति समझौता अमल में आया. इस तरह इजरायल और मिस्र में शांति सहमति बनी जो कि उसका सबसे शक्तिशाली अरब पड़ोसी है.

यहां उपमहाद्वीप में हम आपस में तीन बड़ी लड़ाई (1947-48, 1965 और 1971) लड़ चुके हैं. इसके बावजूद हमारे बीच विवाद कायम है और दोनों देश भय और अविश्वास के माहौल में रहते हैं.

1965 की जंग जिसका एक साफ परिणाम सामने नहीं आया, वह दिखाता है कि दोनों देशों की फौज मुद्दों को सुलझा नहीं सकती. यह पाकिस्तान पर लागू होता है और भारत पर भी.

यह स्वीकार करते हुए भी कि दोनों देशों की इकोनॉमी ऐसी नहीं है कि वे सीमा की सुरक्षा से आगे की बात सोच सकें, जंग की बात तब होने लगी. नतीजा यह हुआ कि भारत मदद के लिए सोवियत संघ की ओर गया, जो ब्रिटेन और फ्रांस को पीछे छोड़ हमारे लिए हथियार सप्लाई करने वाला मुख्य देश बन गया. अमेरिका से निराश पाकिस्तान ने चीनी कैम्प की ओर रूख किया.

1965 की आधी-अधूरी जंग का नतीजा रहा कि हम 1971 की लड़ाई की ओर बढ़े. हालांकि 1971 में कौन जीता, इस पर कोई विवाद नहीं है. 1971 की जंग ने उपमहाद्वीप में कूटनीतिक संतुलन को नया रूप दिया. साथ ही उस युद्ध का नतीजा यह भी रहा कि चार दशक से ज्यादा का वक्त बीत चुका है और हम किसी और बड़ी लड़ाई से बचते आए हैं. लेकिन स्थायी शांति अब भी हमें हासिल नहीं हुई है. भारत और पाकिस्तान लगातार एक-दूसरे को घेरने की कोशिश करते रहते हैं. हमारी सेना का बड़ा हिस्सा अब भी मुस्तैदी से तैनात रहता है, पाकिस्तान से उस अधूरी लड़ाई को पूरा करने के लिए.

हम कह सकते हैं कि 1982 से पाकिस्तान ने हमारे पंजाब के अंदरुनी मसले में दखल देना शुरू किया और फिर कश्मीर में भी वैसे हालात खड़े करने की कोशिश की है. और तब से छोटी-मोटी मुठभेड़ लगातार होती रही हैं.

इसलिए 1965 युद्ध के पचास साल पूरे होने पर जश्न मनाने की बजाए खुद उस पर विचार करने की जरूरत है. दिल ही दिल में हम दोनों जानते हैं कि यह लड़ाई हमारी पारस्परिक विफलता का नतीजा थी. असल में दोनों ने इससे कुछ हासिल नहीं किया. लड़ाई के 15 दिनों बाद ही दोनों शरीर और दिमाग से थक चुके थे. दोनों के पास हथियारों और नीतियों की कमी थी. यह बात दोनों देशों के उन महान सैनिकों ने ही कही है जिन्होंने उसमें हिस्सा लिया था. वे सैनिक निश्चित रूप से उन प्रचारकों से ज्यादा ईमानदार और शिक्षित हैं, जो भ्रम फैलाने का काम करते हैं.

जो विवेकशील देश हैं वे आगे बढ़ जाएंगे. उन सैनिकों को श्रद्धांजलि दीजिए जिन्होंने उस युद्ध में अपनी जान गंवाई. उस लड़ाई से सैन्य-कूटनीतिक-सैद्धांतिक सीख लीजिए लेकिन दोबारा जंग में जाने के धोखे में खुद को मत रखिए. क्योंकि वह पचास साल पहले खत्म हो गई थी. बिना किसी ठोस निष्कर्ष के खत्म. हां, एक निष्कर्ष जरूर आया कि जंग से कोई हल नहीं निकलता.

(यह लेख लेखक के फेसबुक पेज से लिया गया है)

#1965 युद्ध, #भारत पाक युद्ध, #पाकिस्तान, 1965 युद्ध, भारत पाक युद्ध, पाकिस्तान

लेखक

शेखर गुप्ता शेखर गुप्ता @shekharguptaofficial

वरिष्ठ पत्रकार

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय