बीजेपी की हार पर गडकरी के 'मन की बात' कड़वी गोली थी
नितिन गडकरी पुणे में बैंक पेशेवरों के एक कार्यक्रम में शिरकत कर रहे थे. बैंको की कामयाबी और नाकामी की बातें समझाते समझाते वो राजनीति पर शिफ्ट हो गये - और बात जा पहुंची नेतृत्व की जिम्मेदारियों पर. फिर क्या था बवाल तो होना ही है.
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कुछ दिन से किसी न किसी बहाने नितिन गडकरी लगातार सुर्खियों में कभी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने को लेकर तो कभी बीजेपी नेताओं को कम बोलने की उनकी सलाह को लेकर.
नितिन गडकरी खुद भी इस बात को नोटिस कर रहे हैं और ट्वीटर पर ये बात साझा भी किया है. अपने ताजा बयानों को लेकर सफाई में गडकरी ने साफ किया है कि नेतृत्व के साथ भी उनका सब ठीक ठाक वैसे ही है जैसे बाकियों के साथ रिश्ते हैं.
ताजा विवाद गडकरी के उस बयान को लेकर है जिसमें वो इशारों इशारों में बीजेपी नेतृत्व को हार की जिम्मेदारी लेने की नसीहत दे रहे हैं. वैसे सफाई तो गडकरी इस बात को लेकर भी दे चुके हैं कि प्रधानमंत्री बनने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है.
बातों में तो दम है
नितिन गडकरी गेस्ट तो बैंकवालों के एक कार्यक्रम में थे लेकिन बातों बातों में ही वो मूल धंधे पर जा पहुंचे - राजनीति. ये कार्यक्रम पुणे जिला शहरी सहकारी बैंक असोसिएशन लिमिटेड द्वारा आयोजित किया गया था. जब उनका भाषण मीडिया के जरिये मार्केट में आया तो बवाल तो मचना ही था.
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी कहते हैं, 'कभी बैंक सफलता हासिल करते हैं तो कभी उन्हें विफलता भी हासिल करनी पड़ेगी... बैंकों को दोनों परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है... राजनीति में जब असफलता होती है तो कमेटी बैठती है लेकिन सफलता की स्थिति में कोई आपसे कुछ भी पूछने नहीं आता.'
सफलता क्या होती है, नितिन गडकरी ये भी समझाते हैं. जो बात कहते हैं वो किसी प्रोफेशनल मोटिवेशनल स्पीकर से भी ज्यादा प्रभावशाली लगता है. वैसे भी नितिन गडकरी अपनी साफगोई और सीधे सपाट विचारों के लिए जाने जाते हैं.
पूर्व बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा, 'सफलता के कई पिता होते हैं लेकिन विफलता अनाथ है... सफलता का श्रेय लेने के लिये लोगों में होड़ रहती है लेकिन विफलता को कोई स्वीकार नहीं करना चाहता... सब दूसरे की तरफ उंगली दिखाने लगते हैं.'
बीजेपी की हार के लिए जिम्मेदारी कौन?
बिलकुल सही बात कही है. सौ फीसदी सही है. सीधा, सपाट और सटीक.
नेतृत्व पर निशाना नहीं तो और क्या है?
सफलता और असफलता में बुनियादी फर्क बताने के बाद नितिन गडकरी नेतृत्व की खासियत बताते हैं. नेतृत्व को कैसा होना चाहिये और उसकी क्या जिम्मेदारियां होनी चाहिये - ये सब भी.
नितिन गडकरी कहते हैं 'संगठन के प्रति नेतृत्व की वफादारी तब तक साबित नहीं होगी, जब तक वह हार की जिम्मेदारी नहीं लेता.' बिलकुल सही कहा है. कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता.
बेशक नितिन गडकरी ये सारी बातें बैंक पेशेवरों के कार्यक्रम में कही है. मगर नितिन गडकरी ने ही तो बैंको की सफलता और असफलता को राजनीति के चश्मे से देखते हुए समझाया है. ऐसे में जब बीजेपी पांच राज्यों का विधानसभा चुनाव हार गयी है और वो 2019 में सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाये बैठी है, नितिन गडकरी की बातों को कैसे नहीं मौजूदा राजनीति से जोड़ कर देखा जाएगा. बोलने का अधिकार सबको है. राजनीति में बयान से यू-टर्न लेने की भी प्रवृत्ति प्रचलित है. फिर नितिन गडकरी ऐसा क्यों नहीं कर सकते भला. वैसे गडकरी अपने बयान से पलटे नहीं हैं, बल्कि नेतृत्व से रिश्ते पर उठते सवालों पर पर्दा डालते हुए ठीकरा दूसरों पर फोड़ दिया है.
In the last few days, I have noticed a sinister campaign by some opposition parties and a section of the media to twist my statements and use them out of context and draw politically motivated inferences to malign me and my party.
— Nitin Gadkari (@nitin_gadkari) December 23, 2018
नितिन गडकरी ये भी समझाते हैं कि एक नेता तभी हारता है जब या तो उसकी पार्टी कहीं चूक रही होती है, या वो खुद लोगों का भरोसा जीतने में असफल होता है. हारे हुए उम्मीदवारों को भी गडकरी अपनी सलाह देते हैं - 'दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए'.
नितिन गडकरी अपने बयान को जैसे भी समझायें, लेकिन उनके नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तो बगैर किसी का नाम लिए टारगेट करते हैं और कहते भी हैं - 'समझने वाले समझ गये जो ना समझें वो...'
तो क्या नितिन गडकरी ये समझाना चाहते हैं कि जो कुछ वो कह रहे हैं उन शब्दों को नहीं, उनकी भावनाओं को समझा जाये. वैसे समझी तो भावना ही जा रही थी.
गडकरी चर्चा में तो हैं ही
नितिन गडकरी चर्चा में तो हैं ही. अक्सर कम रहते होंगे, लेकिन फिलहाल तो उनकी काफी चर्चा हो रही है. इस बात को वो खुद नोटिस भी कर रहे हैं. बात अलग है कि वो नोटिस अलग तरीके से कर रहे हैं.
हाल ही में महाराष्ट्र के चर्चित किसान नेता किशोर तिवारी ने नितिन गडकरी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग उठायी थी. बीजेपी के पैतृक संगठन आरएसएस को पत्र लिख कर किशोर तिवारी ने कहा है कि अगर 2019 का चुनाव जीतना है कि नरेंद्र मोदी की जगह नितिन गडकरी को आगे लाया जाये. किशोर तिवारी कोई मामूली आदमी भी नहीं, महाराष्ट्र सरकार में उन्हें राज्य मंत्री का दर्जा हासिल है.
बहरहाल, नितिन गडकरी ने ये ऑफर ये कहते हुए ठुकरा दिया है कि वो जहां और जैसे हैं उसी में खुश हैं. उन्हें प्रधानमंत्री बनने में कोई दिलचस्पी नहीं है. अब जो चाहे शब्दों और भावनाओं को अपने अपने हिसाब से समझ सकता है.
खुद नितिन गडकरी ने हाल ही में बीजेपी के ही कुछ लोगों के मुंह में कपड़े डाल कर चुप कराने की बात कही थी. नितिन गडकरी ने फिल्म 'बांबे टू गोवा' के उस सीन का हवाला दिया था जिसमें एक बच्चे के माता-पिता उसे खाने से रोकने के लिए उसके मुंह में कपड़े का टुकड़ा ठूंस देते हैं. नितिन गडकरी ने कहा था, 'हमारी पार्टी में कुछ लोगों के लिए ऐसे ही कपड़े की जरूरत है.'
बस इतना ही बोल कर छोड़ दिये. नितिन गडकरी ने ये नहीं बताया कि ऐसे कौन लोग हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी ऐसे लोगों को मुंह के लाल कह चुके हैं - और चुप रहने की हिदायत भी दे चुके हैं. यूपी विधानसभा चुनाव के बाद तो मोदी ऐसे लोगों का शुक्रिया भी कहा था.
ये पूछने पर कि क्या उनका इशारा योगी आदित्यनाथ की ओर है, जो हनुमान को दलित बता चुके हैं, नितिन गडकरी मानते हैं कि उन्होंने मजाक किया था. अब लीजिए वो इतने सीरियस होकर लोगों को अपनी बात समझा रहे थे और कोई ये कहे कि मजाक कर रहे थे तो कैसा लगेगा.
गडकरी की प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश नहीं!
आरएसएस के बेहद करीबी माने जाने वाले नितिन गडकरी 2010 से 2013 तक बीजेपी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. नितिन गडकरी के दूसरे कार्यकाल के लिए बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने पार्टी संविधान में संशोधन भी किया था और राष्ट्रीय परिषद की मंजूरी भी मिल गयी थी, लेकिन किस्मत को ये कतई मंजूर न था. ऐन वक्त पर नितिन गडकरी को अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा और फिर राजनाथ सिंह को कमान सौंपी गयी. ये अमित शाह के दिल्ली पहुंचने से पहले की बात है.
राजनीति में कुछ भी यूं ही नहीं होता - और बैंकों के कार्यक्रम में राजनीति की बात! नितिन गडकरी तो राजनीति में भी बिजनेस की बात कर लेते हैं. विकास विमर्श के प्रसंग में भी नफे-नुकसान के लंबे चौड़े आंकड़े जबानी बता देते हैं?
सवाल ये नहीं है कि नितिन गडकरी ने जो कहा उसका संदर्भ और प्रसंग क्या था? सवाल तो ये भी नहीं कि जो शब्द कहे गये उनका भाव क्या था? बड़ा सवाल ये है कि ये सब किसके 'मन की बात' है - स्वयं नितिन गडकरी की या संघ की?
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