बिहार में 'मोदी' की आधी जीत है, आधी बाकी है...
चार साल बाद सुशील मोदी फिर से अपनी पुरानी कुर्सी पर काबिज हो गये हैं, लेकिन ये सफर अधूरा है जब तक वो बाकी आधी लड़ाई जीत नहीं लेते - बिहार में भी और बीजेपी में भी. नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने भी अभी आधी ही बाजी जीती है.
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बिहार में 'मोदी' से आशय यहां बीजेपी के दोनों मोदी से है - नरेंद्र मोदी और सुशील मोदी. सुशील मोदी बिहार के ताजा सत्ता परिवर्तन के लोकल कोऑर्डिनेटर रहे - क्योंकि आर्किटेक्ट तो रिमोट कंट्रोल के साथ दिल्ली में बैठा था. सुशील मोदी बीजेपी के सीनियर नेता हैं और एक बार फिर अपनी पुरानी 'डिप्टी सीएम' वाली भूमिका में लौट आये हैं, लेकिन बीजेपी इससे ज्यादा उन्हें देने के मूड में कभी दिखी भी नहीं. दो साल पहले जब चुनाव हो रहे थे तब भी तय नहीं था कि बीजेपी सुशील मोदी को जीतने पर मुख्यमंत्री बनाएगी भी या नहीं.
चार साल बाद सुशील मोदी फिर से अपनी पुरानी कुर्सी पर काबिज हो गये हैं, लेकिन ये सफर अधूरा है जब तक वो बाकी आधी लड़ाई जीत नहीं लेते - बिहार में भी और बीजेपी में भी. नरेंद्र मोदी (और अमित शाह) के लिए भी ये आधी ही जीत है, आधी बाकी है.
थोड़ा है, ज्यादा की जरूरत है
2015 में बिहारी बनाम बाहरी की चुनावी जंग में जीत बिहारियों की हुई थी. तब लालू ने 'बाहरी' नेताओं को भालू से फुंकवा कर भगा देंगे. बाहरी नेताओं से उनका आशय बीजेपी नेताओं मोदी और अमित शाह की जोड़ी से था.
बिहार में भी अच्छे दिन आएंगे
20 महीने बाद जैसे ही नीतीश को डीएनए में खोट की बात जुमला समझ में आई बिहारी और बाहरी का ऐसा घालमेल हुआ कि पंचमेल की खिचड़ी तैयार हो गयी. जल्दबाजी इतनी थी कि कोई इस चक्कर में भी नहीं पड़ा कि पक भी गयी या खिचड़ी अधपकी है, खाने-पीने के बाद आनन फानन में बर्तन भी धो डाले गये. जैसे बीते चार साल '16 जुलाई 2013 से 26 जुलाई 2017' के दौरान कुछ हुआ ही नहीं.
'विस्तार हो अपार...' के रास्ते पर आगे बढ़ रही मोदी शाह की जोड़ी ने बिहार में लालू को बेदखल कर सत्ता में आधे की हिस्सेदार तो बन ही गयी है. हो सकता है दिल्ली की भी तैयारी चल रही हो. यूपी की जंग में फतह के बाद दिल्ली में एमसीडी पर धावा बोल बीजेपी ने थोड़ा सफर तो पूरा कर ही लिया है. वो तो कपिल मिश्रा की दाल नहीं गल पायी वरना इंतजाम तो पूरा ही था. जगह जगह जंग जीतती आई बीजेपी को पहले इंद्रप्रस्थ और उसके कुछ ही दिन बाद पाटलिपुत्र में ही शिकस्त झेलनी पड़ी थी.
ये बीस महीने बीजेपी के लिए कैसे गुजरे होंगे वही जानती होगी. बिहार में 2015 की हार के लिए बीजेपी नेतृत्व की नजर में दुश्मन नंबर 1 लालू थे या नीतीश, बेहतर तो वे ही समझ रहे होंगे. जैसे ही सुशील मोदी को हरी झंडी दिखी उन्होंने महागठबंधन पर धावा बोल दिया. उन्हें एक कमजोर कड़ी की तलाश रही होगी और उन्होंने तेजस्वी को टारगेट किया. लगे हाथ नीतीश पर भी जाल फेंका और फिर काम हो गया.
बीजेपी के नजरिये से देखें तो उसने लालू को तो हाशिये पर धकेलने की कोशिश की ही है, नीतीश को भी गियर में तत्काल प्रभाव से ले लिया है. इससे फिलहाल ये तो पक्का हो गया है कि जो लालू लगातार आक्रामक रहे वो डिफेंसिव हो जाएंगे - और नीतीश जो विपक्ष को एकजुट करने के लिए इधर उधर भागते रहते थे, खामोशी के साथ कुछ दिनों के लिए ठहर जाएंगे.
ये आधी बाजी है
अगर मोदी सरकार जेडीयू नेताओं को मंत्रिमंडल में ले लेती है तो नीतीश के खिलाफ उसका मकड़जाल और भी मजबूत हो जाएगा. बीजेपी आगे भी चाहेगी कि नीतीश के पास नये सिरे से महागठबंधन खड़ा करने जैसा कोई ऑप्शन न बच पाये. अगर नीतीश कुछ नया करने की सोचें भी तो शिवसेना जैसी गर्दन फंसी रहे. महाराष्ट्र में शिवसेना की हालत बद से बदतर होती जा रही है लेकिन केंद्र सरकार में उसके मंत्री बने हुए हैं. महाराष्ट्र की तरह बिहार में बीजेपी चाहेगी की जेडीयू का भी वही हाल हो जाये जो शिवसेना का हुआ है और आरजेडी भी एनसीपी की तरह चर्चा भर के लिए बची रहे.
अपने स्वर्णिम काल का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रही बीजेपी को मालूम था कि हर हाल में महागठबंधन का विखंडन ही उसके हित में है, वरना 2019 में लालू और नीतीश के साथ होते 2014 दोहराना भी तकरीबन नामुमकिन था. इस तरीके से देखें तो बीजेपी ने आधी बाजी तो मार ही ली है.
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