क्या नीतीश की छवि भी पासवान एवं अजित सिंह जैसी हो गई है?
नीतीश कुमार ने जिससे सच्ची दुश्मनी की उससे दोस्ती भी कर ली. उनकी राजनीति वैसी ही चल रही है जैसे पासवान और अजित सिंह की.
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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल को पटखनी दे कर भाजपा के साथ सरकार बना ली तो बहुत लोगों को यक़ीन ही नहीं हुआ. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उनकी प्रतिद्वंदिता इस हद तक थी की उसको घृणा कहना कोई अतिसयोक्ति नहीं होगी.
विद्वेष का आलम यह था की वो सार्वजनिक क्रायक्रमों में मोदी नजदीक भी नहीं जाते थे. डरते थे की कोई एक फ्रेम में उन दोनों का फोटो न खींच ले. 2013 में जब भारतीय जनता पार्टी ने मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया तो बिहार के मुख्यमंत्री ने इस पार्टी के साथ अपना 17 साल पुराना दोस्ताना को भी त्याग दिया.
पहले वो लालू के भी दोस्त हुआ करते थे. उनका अपना बड़ा भाई मानते थे. पर वर्ष 1994 में उन्होंने लालू को छोड़ कर जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिलकर समता पार्टी बना लिए और उनके सबसे बड़े राजनीतिक प्रतिद्वंदी हो गए. प्रतिद्वंदिता भी लगभग दुश्मनो जैसी. दोनों एक दूसरे को फूटी आँख भी नहीं देखना चाहते थे. पर जब वो मोदी के कारण भाजपा का साथ छोड़े तो पुनः लालू के छोटे भाई बन गए. पिछले हफ्ते वो एक बार फिर से बड़े भाई को त्याग दिया और मोदी के मित्र और प्रशंसक हो गए.
मोदी एवं नीतीश की प्रतिद्वंदिता लगभग वैसी ही थी जैसी मुलायम सिंह यादव एवं मायवती की, जयललिता एवं करूणानिधि की थी. ऐसा माना जाता था की दोनों कभी मिल ही नहीं सकते. लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री ने पुनः साबित कर दिया की राजनीति अनंत सम्भावनों का खेल है और यहाँ पर कोई किसी का न दोस्त है न दुश्मन. अगर कोई है भी तो बस तात्कालिक है.
सत्ता पाने के लिए लोग अपने दोस्तों को छोड़ कर प्रतिद्वंदियों से साथ मिला लेते हैं. हर नेता बात सिद्धांत की करता है पर सबसे बड़ा सिद्धांत है अवसरवादिता और सबसे बड़ा लक्ष्य है सत्ता. नीतीश कुमार अपने रजनीतिक पारी में दो बार भाजपा से मित्रता की एवं दो बार दुश्मनी भी निभाई. लालू भी समय-समय पर बड़े भाई एवं प्रतिद्वदी बनते रहे.
आज की भारतीय राजनीति मूलतः दो धुरों में बाटी हुई है. राजनीतिक दल या तो भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के हिस्सा है या इसके विरोधी है. विरोधी दल या तो कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायन्स में है या इसके मित्र हैं. कुछ दल दोनों से सामान दुरी भी बना के रखे हुए हैं. जहाँ भाजपा अपने आपको राष्ट्रवादी मानती हैं वहीं इसके विरोधी अपने आपको सेक्युलर एवं भाजपा को साम्प्रादयिक मानते हैं. ऐसा नहीं है की एक दल, एक धुरी को छोड़ कर दूसरे धुरी में नहीं जाता है. पर ऐसा उदहारण बहुत कम है की कोई दल दो-दो बार दोनों के साथ रहा हो.
इस कला के भारतीय राजनीती के सबसे बड़े खिलाड़ियों में से एक हैं राम विलाश पासवान. अभी वो मोदी सरकार में मंत्री हैं. इसके पहले वो विश्वनाथ प्रताप सिंह, देवे गौड़ा, इन्दर कुमार गुजरात, मनोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं. वो समय के अनुसार अपने आपको कभी राष्ट्रवादी बना लेते हैं तो कभी सेक्युलर. उनके इस तरह की राजनीति पर कटाक्ष करते हुए एक बार लालू यादव ने कहा था की ‘सुलझा हुआ मौसम वैज्ञानिक है रामविलास पासवान’.
पासवान को भी इस कला में स्पर्धा देने वाले एक और नेता हैं राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजित सिंह. पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के इकलौते बेटे अजित सिंह लगभग हर सरकार में मंत्री रहे हैं. चाहे सरकार वीपी सिंह की हो, नरसिंह राव की, अटल बिहारी वाजपेयी की या की मनमोहन सिंह की वो हमेशा मंत्री रहे हैं. पर इस बार इनकी गोटी सहीं नहीं चली एवं सरकार से बाहर हैं.
राम विलाश पासवान का जहाँ बिहार के दलितों के नेता हैं वहीँ अजित सिंह को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों का वोट मिलता रहा है. पर दोनों की राजनितिक विश्वस्यनीयता बहुत ही कम है. वो कब, कहाँ एवं किसके साथ हाँथ मिला लें कोई नहीं जानता. वो कभी राष्ट्रवादी हो जाते हैं, तो कभी समय की मांग को देखते हुए सेकुलरिज्म का भी जामा पहन लेते हैं. आज लगता है की नीतीश कुमार भी अपने आप को पासवान एवं अजित सिंह के ही श्रेणी में शामिल कर लिए हैं. 2013 में नीतीश ने मोदी पर चुटकी लेते हुए कहा था कि राजनीति में कभी टोपी पहननी पड़ती है और कभी टीका भी लगाना पड़ता है, लगता है आज वो अपने कहे का अक्षरसः पालन कर रहे हैं.
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