NDA में नीतीश का दम घुट तो रहा है, लेकिन रास्ता क्या बचा है
नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू बिहार का आधा चुनाव बगैर मैनिफेस्टो के लड़ चुकी है - और अब तो मतलब भी नहीं बनता. प्रशांत किशोर भी चुनाव प्रबंधन से दूर हैं - और बीजेपी के साथ एक एक पल गुजारना मुश्किल हो रहा है - लेकिन विकल्प कहां है?
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समय का चक्र घूमते घूमते एक निश्चित अंतराल के बाद पुरानी चीजें दोहराने लगता है. बिहार की राजनीति में, खास कर नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द वैसी ही चीजें फिर से नजर आने लगी हैं, जो 2014 के चुनावों से पहले देखी गयी थीं. तब तो नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ दिया था, लेकिन अभी तो ये संभव ही नहीं है.
आम चुनाव से पहले एनडीए छोड़ने के बाद नीतीश कुमार ने रास्ते ढूंढने शुरू कर दिये थे. 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले लालू प्रसाद के साथ मिल कर जेडीयू ने महागठबंधन बनाया और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बने. डेढ़ साल बीतते बीतते नीतीश कुमार के लिए सरकार चलाना मुश्किल हो गया - और वो NDA के साथ हो गये. सरकार चलने लगी, लेकिन छह महीने के भीतर ही चीजें लड़खड़ाने लगीं.
लालू प्रसाद ने तो अपनी किताब में दावा भी किया है कि नीतीश ने महागठबंधन में लौटने की काफी कोशिश की, लेकिन ठुकरा दिया. नीतीश कुमार ने तो नहीं लेकिन जेडीयू उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने भी मुलाकात की बात मानी है. बातें क्या हुईं ये तो नहीं मालूम, लेकिन इतना तो साफ है कि नीतीश कुमार को एक बार फिर एनडीए के भीतर घुटन होने लगी है.
बगैर मैनिफेस्टो के चुनाव लड़ने को मजबूर नीतीश कुमार
बिहार भी पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में शुमार है जहां सभी सात चरणों में वोटिंग हो रही है. अब तो सिर्फ तीन चरणों के ही चुनाव बचे हुए हैं.
हैरानी की सबसे बड़ी बात ये है कि चार दौर के मतदान खत्म हो जाने के बावजूद नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने अभी तक अपना मैनिफेस्टो तक नहीं जारी किया है.
नीतीश का सरमाया उनकी राजनीतिक छवि ही है. जनाधार वाले नेता न होकर भी नीतीश कुमार सुशासन के नाम पर सब कुछ ढक लेते हैं. नीतीश कुमार की छवि का एक आयाम उनकी सेक्युलर इमेज भी है. 2013 में भी नीतीश कुमार ने इसे बचाने के लिए ही एनडीए से नाता तोड़ लिया था. बिहार महागठबंधन का आधार भी यही बना और कांग्रेस के भी शामिल होने का.
एक बार फिर नीतीश कुमार के सामने बड़ी मुश्किल अपनी छवि बचाने की ही है. महागठबंधन छोड़ने के बाद से लालू परिवार नीतीश कुमार पर लगातार इसी कारण हमले करता रहा है - और जनादेश का निरादर बताने की वजह भी यही है.
महागठबंधन में तो नीतीश कुमार अपने मन की कर भी लेते थे, लेकिन एनडीए में तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के सामने कुछ होने से रहा. नीतीश कुमार के लिए बीजेपी ने अब तक जो सबसे बड़ी कुर्बानी दी है वो है अपने बराबर बिहार की 17 संसदीय सीटें जेडीयू को देना. ये मजबूरी ही है कि बीजेपी सरकार में अपने हिस्से में डिप्टी सीएम की पोस्ट से मान गयी है.
नीतीश कुमार की ताजा मुश्किल यही है कि अब तक वो जेडीयू का चुनाव घोषणा पत्र या निश्चय पत्र तक नहीं ला सके हैं. निश्चय पत्र को लेकर कई तारीखें बतायी गयीं, लेकिन यही देखते देखते वोटिंग के चार चरण बीत गये.
कह रहीम कैसे निभे... और कब तक निभे?
दरअसल, बीजेपी मौजूदा चुनाव में उन मुद्दों को लेकर बेहद आक्रामक हो चली है, जिस पर नीतीश कुमार या जेडीयू नेता कहा करते रहे कि दोनों दलों के विचार एक जैसे हैं. महागठबंधन छोड़ कर नीतीश कुमार के एनडीए में आने के बाद सवाल उठे. जेडीयू प्रवक्ता यही बताते रहे कि धारा 370 और आर्टिकल 35ए पर दोनों ही दलों का रूख कॉमन है, लेकिन हाल फिलहाल बीजेपी नेता इन मसलों पर आक्रामक होने लगे हैं.
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह सहित तमाम नेता घूम घूम कर कहने लगे हैं कि सत्ता में लौटने पर कश्मीर से धारा 370 और आर्टिकल 35ए खत्म कर दिया जाएगा. नीतीश कुमार के लिए सबसे मुश्किल चीज यही है.
अब अगर जेडीयू का निश्चय पत्र आता तो नीतीश कुमार को इन मुद्दों पर भी सफाई देनी पड़ती. अगर इन्हें निश्चय पत्र में शामिल करते तो भी लोग सवाल पूछते और नहीं शामिल करते तो बीजेपी नेतृत्व. लिहाजा नीतीश कुमार ने निश्चय पत्र को ही ठंडे बस्ते में डाल रखा है.
दमघोंटू साबित होने लगा है बीजेपी का साथ
वंदे मातरम बोलने को लेकर भी देश की राजनीति बंटी हुई है. वंदे मातरम ही देश में सेक्युलर और सांप्रदायिक कही जाने वाली राजनीति में फर्क दिखाने का मजबूत आधार बना हुआ है. बीजेपी और संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले हिंदुत्ववादी नेता वंदे मातरम के नारे बड़े गर्व से लगाते हैं - लेकिन मुस्लिम नेता या सेक्युलर होने का दावा करने वाले नेता इससे परहेज करते हैं.
हाल ही का एक वाकया है. बिहार की एक रैली में मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों मौजूद थे. तभी प्रधानमंत्री मोदी जोर जोर से वंदे मातरम के नारे लगाने लगे. मोदी के साथ साथ बीजेपी के दूसरे नेता भी हाथ उठा कर मुट्ठी बांधे वंदे मातरम बोलने लगे - लेकिन नीतीश कुमार चुपचाप बैठे रहे. थोड़ा बहुत मुस्कुराते रहे.
नीतीश कुमार के लिए वो घड़ी भी वही चुनौती लेकर आयी थी जिसके चलते वो जेडीयू का मैनिफेस्टो नहीं सके. बीजेपी के साथ मिल कर नीतीश कुमार सरकार भले चला रहे हों, लेकिन वंदे मातरम बोल कर वो अपना मुस्लिम वोट बैंक भला कैसे गंवा दें. बुरा तो मोदी और दूसरे बीजेपी नेताओं को भी लगा होगा लेकिन उन्हें भी सबक सिखाने के लिए सही वक्त का इंतजार होगा. ये तो पहले से ही अंदाजा लगाया जा रहा था कि बीजेपी बिहार में जेडीयू का वही हाल करेगी जो उसने महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ किया. सत्ता से बेदखल कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कब्जा कर ही लिया. अब शिवसेना बीजेपी की सरकार में एक सहयोगी भर है.
नीतीश कुमार की एक मुश्किल ये भी है कि प्रशांत किशोर भी पार्टी में होने के बाद नहीं होने जैसे हो चुके हैं. प्रशांत किशोर ने खुद ही ट्वीट कर बताया भी था कि चुनाव प्रबंधन से उनका कोई वास्ता नहीं है क्योंकि ये काम दूसरे वरिष्ठ नेता संभाल रहे हैं - और वो राजनीति की बुनियादी चीजें सीखने की कोशिश कर रहे हैं. समझा जा सकता है, प्रशांत किशोर जिस फील्ड के माहिर हैं वही काम वो नहीं कर रहे हैं.
नीतीश कुमार के उस बयान के भी मायने निकालने मुश्किल हो रहे थे जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रशांत किशोर को बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के कहने पर जेडीयू का उपाध्यक्ष बनाया गया. लेकिन नीतीश कुमार ने ये नहीं बताया कि क्यों प्रशांत किशोर को चुनाव प्रक्रिया से बाहर कर दिया. कहीं इसमें भी अमित शाह की कोई भूमिका तो नहीं है.
गौर करने वाली बात ये है कि बीजेपी ने नीतीश कुमार की पार्टी को बिहार में सीटें तो अपने बराबर दे दी, लेकिन असली हैसियत तो नतीजे आने पर मालूम होगी. उम्मीदवारों की संख्या बराबर होने से क्या फर्क पड़ता है - असर तो इस बात का होगा कि कौन कितनी सीटें जीत कर लाता है. बगैर मैनिफेस्टो और प्रशांत किशोर की गैरहाजिरी में चुनाव मैदान में जूझ रहे नीतीश कुमार के लिए आने वाले दिनों में चुनौतियां बढ़ने वाली हैं. नीतीश कुमार राजनीति को बड़ी गहरायी से समझते हैं और सोच समझ कर एक एक कदम बढ़ाते हैं.
बिहार चुनाव के दौरान कई बार सवालों के जवाब में नीतीश कुमार कबीरदास का एक दोहा सुनाया करते थे - 'धीरे धीरे रे मना धीरे धीरे सब होय, माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आये फल होय.'
गुजरते वक्त और बदले हालात में बीजेपी के साथ रिश्तों के मामले में नीतीश कुमार पर कबीरदास से ज्यादा रहीम का एक दोहा ज्यादा सूट कर रहा है - 'कह रहीम कैसे निभे बेर केर के संग, वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग.'
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