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Updated: 05 अगस्त, 2021 01:29 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की मौजूदा राजनीतिक तो ठीक ठाक चल रही है, लेकिन भविष्य धुंधला नजर आ रहा है. नीतीश कुमार की तात्कालिक छटपटाहट की असली वजह राजनीतिक भविष्य ही है - ऐसे में जातीय जनगणना (Caste Census) का मुद्दा उनको एक कारगर हथियार लगता है.

नीतीश कुमार की मुश्किल ये है कि एनडीए में वापसी के बाद बिहार के मुख्यमंत्री की उनकी कुर्सी तो बची हुई है, लेकिन ईर्द गिर्द बीजेपी (BJP) ने पहरा लगा रखा है. नीतीश कुमार को कमजोर करने का कोई भी मौका बीजेपी नहीं छोड़ती और मजबूरी में मन मसोस कर रह जाने के अलावा उनके पास कोई ऑप्शन भी नहीं बचता.

बकौल नीतीश कुमार विधानसभा की सीटें कम होने पर इनकार के बावजूद बीजेपी ने उनको मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन कुर्सी के बदले में बीजेपी हर चीज उनसे छीन लेना चाहती है - चाहे वो अरुणाचल प्रदेश में नीतीश कुमार के विधायक हों या फिर जेडीयू के अध्यक्ष ही क्यों न हों, बीजेपी नेतृत्व ने नीतीश कुमार और आरसीपी सिंह के बीच दूरियां तो बढ़ा ही दी है.

बीजेपी के साथ हो जाने के बाद नीतीश कुमार एक एक करके उन सभी मुद्दों पर समझौते करते गये, जिनको लेकर उनका अपना अलग स्टैंड हुआ करता रहा - चाहे वो अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा हो, तीन तलाक का मुद्दा हो या जम्मू-कश्मीर से जुड़े धारा 370 का ही मसला क्यों न हो. अब तो ऐसा लगता है नीतीश कुमार की राजनीति तो बस बीजेपी को फॉलो करने भर ही बची है.

जातीय जनगणना को तो नीतीश कुमार एक खास रमनीति के तहत एजेंडे के तौर पर पेश कर रहे हैं, लेकिन पेगासस पर तो करीब करीब वैसा ही स्टैंड है जैसा दबी जबान सीएए-एनआरसी जाहिर किया था. सीएए-एनआरसी को लेकर तो नीतीश कुमार ने योगी आदित्यनाथ के बिहार चुनाव प्रचार के भाषण के बाद सख्त लहजे में रिएक्ट भी किया था - देखते हैं किसमें इतना दम है कि हमारे लोगों को बाहर कर पाता है, लेकिन प्रशांत किशोर को जेडीयू से बाहर भी कर दिया था. तब प्रशांत किशोर का आरोप रहा कि नीतीश कुमार ने कदम दबाव में उठाया है.

जातीय जनगणना की मांग के साथ पेगासस जासूसी की जांच की डिमांड करने वाले नीतीश कुमार एनडीए के पहले नेता हैं जो जांच की मांग कर रहे हैं. पेगासस पर नीतीश कुमार का स्टैंड विपक्ष की मांग से ज्यादा मेल खा रहा है, लेकिन विपक्ष उससे ज्यादा एक्सेस देने को तैयार नहीं है - और जमानत पर जेल से छूट कर राजनीति में फिर से सक्रिय लालू यादव ही नीतीश कुमार के सामने दीवार बन कर खड़े हो जा रहे हैं. कहने को तो लालू यादव यही कहते हैं कि नीतीश कुमार उनके दिल में रहते हैं, लेकिन ये याद दिलाना भी नहीं भूलते कि विधानसभा चुनाव में, 'उसीने हरवा दिया'.

नीतीश चाहते हैं बिहार के नाम पर बीजेपी भी साथ दे

हो सकता है नीतीश कुमार को भी अपना राजनीतिक भविष्य वैसा ही नजर आने लगा हो जैसा कभी इंदिरा गांधी या वीपी सिंह को नजर आया होगा. इंदिरा गांधी और वीपी सिंह के पास तो इमरजेंसी या मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने की हैसियत भी रही, लेकिन नीतीश कुमार तो ऐसी चीजें भी बीजेपी के हाथों गंवा चुके हैं - लेकिन जातीय जनगणना में नीतीश कुमार को काफी स्कोप नजर आ रहा है, ऐसा लगता है.

नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना की मांग ऐसे वक्त उठायी है जब बीजेपी और केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की गतिविधियां तेज हो चली हैं - और बीजेपी भी मन ही मन इसे गंभीरता से लेने लगी है. यूपी चुनाव में उतरने से पहले पश्चिम बंगाल की हार बीजेपी को काफी परेशान कर रही है.

ममता बनर्जी के एक्टिव होने से राहुल गांधी और अब पूरा विपक्ष आगे कुछ पाये या नहीं फिलहाल दबाव बनाने में तो सफल लगता ही है. ऐसे में जबकि बीजेपी नेतृत्व आने वाले यूपी विधानसभा चुनाव पर फोकस है, नीतीश कुमार की जातीय जनगणना की डिमांड एक नयी चुनौती बन कर उभर रही है.

nitish kumarजातीय जनगणना नीतीश कुमार के लिए हवा का वो झोंका है जो पहरेदारी में भी दरवाजे खिड़कियां खोल देता हो

जातीय जनगणना का मुद्दा नीतीश कुमार को मल्टीपरपज हथियार जैसा लग रहा है. नीतीश कुमार जातीय जनगणना के नाम पर तेजस्वी यादव से मुलाकात कर लालू यादव को नये सिरे से दोस्ती का ऑफर भी दे रहे हैं - और बीजेपी को चौतरफा घेरने की कोशिश कर रहे हैं.

नीतीश कुमार मोदी-शाह को मैसेज देना चाहते हैं कि ऐसे कई मुद्दे हैं जिनके नाम पर वो एनडीए फिर से छोड़ भी सकते हैं - और बीजेपी ऐसा फिलहाल तो नहीं ही चाहेगी. बीजेपी की मुश्किल ये है कि उसके पास अभी तक नीतीश कुमार का विकल्प पूरी तरह तैयार नहीं है.

न तो बीजेपी के पास अकेले इतना नंबर है कि कांग्रेस या आरजेडी के कुछ विधायकों को तोड़ कर सरकार बना सके - और न ही विरोधी खेमे में बीजेपी को कोई ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट या हिमंत बिस्वा सरमा ही नजर आ रहे हैं.

बीजेपी ने ये जरूर किया है कि अपने ही नेता सुशील मोदी को पैदल कर नीतीश कुमार को थोड़ा कमजोर किया, अति पिछड़े वर्ग से दो-दो डिप्टी सीएम पहरेदारी में बिठा दिया - और मुस्लिम वोट बैंक को थोड़ा बहुत मैसेज देने के लिए भागलपुर से दिल्ली जम हुए सैयद शाहनवाज हुसैन को पटना भेज कर नीतीश कुमार को शह भर दिया है, मात दे पाना तो अभी मुमकिन है नहीं.

नीतीश कुमार ने बिहार में अति पिछड़े वर्ग की राजनीति से अपने जनाधार में थोड़े विस्तार की कोशिश की है, लेकिन बीजेपी की नजर वहां भी टिकी हुई है. मोदी सरकार ने नीट परीक्षा के ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी आरक्षण देने की घोषणा कर कदम तो बढ़ाया है, लेकिन जातीय जनगणना के लिए भी राजी हो जाएगी, अभी नहीं लगता. हालांकि, बीजेपी भी पहले जातीय जनगणना की पक्षधर रही है.

नीतीश कुमार चाहते हैं कि जातीय जनगणना की उनकी डिमांड में बिहार बीजेपी भी साथ दे और प्रधानमंत्री मोदी को ज्ञापन देने वाले प्रतिनिधिमंडल में साथ भी खड़ी रहे. जेडीयू प्रवक्त नीरज कुमार कह रहे हैं कि जब विधानसभा में दो-दो बार जातीय जनगणना का प्रस्ताव पारित करने में सभी राजनीतिक दल साथ खड़े रहे, तो आगे भी राज्य के सभी नेताओं को पहले की तरह बिहार के मसले पर एक साथ खड़ा रहना चाहिये.

मुद्दा ऐसा है कि बीजेपी नेता न तो चुप रह पा रहे हैं, न बोल ही पा रहे हैं. हर बीजेपी नेता बचने की कोशिश कर रहा है. बिहार के डिप्टी सीएम तारकिशोर प्रसाद इसे केंद्र का मुद्दा बता कर पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन बिहार के लोगों के हक की बात पर खामोशी अख्तियार कर लेने के सिवा कोई उपाय नहीं सूझ रहा है.

ये तो संघ की भी कमजोर नस है

नीतीश कुमार एक बार फिर बीजेपी को एक बार फिर बचाव की मुद्रा में लाने की कोशिश कर रहे हैं. 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान के बाद बीजेपी को बार बार सफाई देनी पड़ी थी कि आरक्षण खत्म करने का उसका कोई इरादा नहीं है. बाद में मोहन भागवत को भी इसी स्टैंड का सपोर्ट करना पड़ा कि आरक्षण से छेड़छाड़ के पक्षधर नहीं है.

तब मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी. बीच बीच में संघ के कुछ अन्य नेता भी ऐसे बयान देते रहे हैं, लेकिन संघ की मुश्किल तब बढ़ जाती है जब जातीय विरोधाभास के चलते हिंदू समुदाय आपस में ही बंट जाता है और आरक्षण के नाम पर आमने सामने आ जाता है.

संघ को बीजेपी के लिए एकजुट हिंदू समुदाय वाली स्थिति ही ज्यादा सूट करती है जब मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो तो कोई फर्क न पड़े. बीजेपी पश्चिम बंगाल चुनाव में हार के बाद समीक्षा से इस नतीजे पर पहुंची है कि उसकी हार की वजह मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण रहा. मतलब, हिंदू वोट बंट गया - और ऐसा जहां कहीं भी होगा बीजेपी को हार का मुंह देखना ही पड़ेगा.

हिंदुओं को एकजुट रखने के लिए संघ एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान जैसे अभियान भी चलाने की कोशिश कर चुका है - लेकिन वो दिखावे से आगे कभी बढ़ ही नहीं पाता.

जातीय जनगणना की मांग जोर पकड़ रही है - और बीजेपी को छोड़ कर धीरे धीरे जातीय राजनीति करने वाले सारे राजनीतिक दल साथ खड़े हो सकते हैं. मायावती को इससे फर्क तो नहीं पड़ता क्योंकि उनके दलित वोट बैंक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की गणना तो होती ही है. हां, अगर उनकी भी अखिलेश यादव के ओबीसी वोट बैंक पर निगाह हो तो सपोर्ट कर सकती हैं, लेकिन जब अखिलेश यादव खुद ये डिमांड कर रहे होंगे तो मायावती के साथ कोई ओबीसी क्यों जाना चाहेगा.

ये तो नीतीश कुमार को भी मालूम होगा ही कि केंद्र सरकार जातीय जनगणना को लेकर इतना जल्दी तैयार नहीं हो सकती - क्योंकि जातीय जनगणना कराने के बाद आरक्षण को लेकर समस्याएं बढ़ जाएंगी. अभी तो सुप्रीम कोर्ट के 50 फीसदी आरक्षण की सीमा तय कर देने से SC-ST की हिस्सेदारी के बाद जो कुछ बचता है वो ओबीसी को मिल जाता रहा है, लेकिन मुसीबत तब बढ़ेगी जब ओबीसी की आबादी अभी की अनुमानित संख्या से बहुत ज्यादा या फिर कम हो जाये - ऐसे में नीतीश कुमार की जातीय जनगणना की डिमांड टाइमपास से ज्यादा कुछ और नहीं लगती.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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