Nitish Kumar क्या कर पाएंगे यदि अमित शाह JDU से रिश्ता खत्म करना चाहें?
बिहार में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के पक्ष में पांच साल पहले वाली बहार तो बची हुई नहीं लगती है. जेडीयू की तरफ से प्रशांत किशोर गठबंधन (BJP-JDU alliance in NDA) के नाम पर जितना भी दबाव बनाना चाहें - लगता तो नहीं कि अमित शाह (Amit Shah) को झुका पाएंगे!
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की शह पाकर प्रशांत किशोर CAA-NRC के नाम पर बीजेपी नेतृत्व (Amit Shah) को लगातार निशाना बना रहे हैं. लगे हाथ सीटों के बंटवारे का हिसाब-किताब (BJP-JDU alliance in NDA) भी आगे बढ़ा रहे हैं. बीजेपी की तरफ से बिहार से एक एमएलसी का ही रिएक्शन आया है - प्रशांत किशोर होते कौन हैं? जेडीयू नेता आरसीपी सिंह भी प्रशांत किशोर के खिलाफ इसी अंदाज में प्रतिक्रिया देते रहे हैं.
नीतीश कुमार की तरफ से दबाव की ये राजनीति नयी तो नहीं है, लेकिन बीजेपी की तरफ से किसी बड़े नेता या खुद अमित शाह ने कोई टिप्पणी नहीं की है. नये साल पर सुशील मोदी के साथ गले मिल कर और मीडिया के एक सवाल के जवाब में 'सब ठीक है' बोल कर नीतीश कुमार ने स्थिति को आउट ऑफ कंट्रोल होने से बचाने की कोशिश भी की है.
अमित शाह ने पीडीपी के साथ गठबंधन कर जम्मू-कश्मीर में सरकार भी बनायी और जब मन भर गया तो अचानक तोड़ भी लिया - और धारा 370 के खत्म होने के बाद तो वो बहस भी समाप्त हो गयी. झारखंड चुनाव के बीच ही अमित शाह ने सुदेश महतो की पार्टी AJSU से चुनावी गठबंधन तोड़ लिया और महाराष्ट्र में तो बचाने की कोशिश भी नहीं की - फिर क्या मान कर चला जाये?
लेकिन तब क्या होगा जब अमित शाह ने नीतीश कुमार की पार्टी से नाता तोड़ने का फैसला ही कर लिया?
मोदी कैबिनेट को लेकर JDU में ख्याली पुलाव तो नहीं पक रहा?
खबर है कि नीतीश कुमार अपने दो दुलरुआ नेताओं को मोदी कैबिनेट 2.0 में बैठे हुए देखना चाहते हैं - लेकिन ऐसी कोई खबर नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की भी इन बातों में कोई दिलचस्पी है. '2020 में नीतीश कुमार ही बिहार में NDA के नेता होंगे', अमित शाह का गठबंधन को लेकर अब तक का फाइनल बयान यही आया है, लेकिन उसमें शर्तें भी थीं कि पूरे देश में NDA प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगा.
झारखंड में जेडीयू उम्मीदवारों को उतार कर नीतीश कुमार ने शर्त तोड़ी भी - और हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री पद की बधाई न देकर जोड़ने की कोशिश भी की है. थोड़ा बहुत पैच-अप तब भी किया था जब सरयू राय के समर्थन में वोट मांगने जमशेदपुर जाने से मना कर दिया था. फिर भी सरयू राय की जीत को नीतीश कुमार और अमित शाह अपने अपने तरीके से महसूस तो कर रही रहे होंगे.
बिहार में गठबंधन तभी कायम रह सकेगा जब अमित शाह को भी लगे कि बीजेपी को नीतीश कुमार की जरूरत है.
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि जेडीयू यूनियन कैबिनेट में शामिल होने को तैयार बैठी है - और सूत्रों के हवाले से बताया गया है कि मंत्री पद की कतार में नीतीश के पसंदीदा दो नेता खड़े हैं - ललन सिंह और आरसीपी सिंह. जेडीयू को दो मंत्रियों को ये कोटा मिलने के पीछे शिवसेना का NDA से अलग होना माना गया है. नीतीश को मौके का ये फायदा मिल सकता है - लेकिन शर्त ये है कि बीजेपी भी जेडीयू की तरह तैयार हो जाये.
बीजेपी के राजी न होने के तमाम कारण हैं और प्रशांत किशोर का CAA-NRC को लेकर ट्विटर पर विरोध प्रदर्शन अभी तो सबसे ऊपर ही है. रिपोर्ट में सूत्रों का मानना है कि ऐसा होने पर प्रशांत किशोर भी शांत हो जाएंगे - वैसे भी, अगर अशांत भी रहे तो क्या हो सकता है?
जब तक बीजेपी नेतृत्व की तरफ से इस बारे में कोई औपचारिक संकेत नहीं मिलते - मान कर चलना होगा कि ये सब जेडीयू के भीतर पकाया जा रहा ख्याली पुलाव भर है.
नुकसान तो झारखंड में भी हुआ और महाराष्ट्र में भी
अगर सत्ता गंवाना ही पैमाना है तो बीजेपी को झारखंड और महाराष्ट्र में एक जैसा ही नुकसान हुआ है - महाराष्ट्र में बहुमत हासिल करने के बाद भी बीजेपी सत्ता से बाहर हो गयी क्योंकि शिवसेना के साथ उसका गठबंधन टूट गया. झारखंड में सत्ता से बाहर होने में भी गठबंधन का टूटना सत्ता के हाथ से फिसल जाने की बड़ी वजह बना - ऐसा दोनों दलों को मिले वोटों के आधार पर माना जा रहा है.
मेल टुडे अखबार की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि झारखंड में सीटों के हिसाब से वोटों की हिस्सेदारी पर गौर करें तो बीजेपी 81 में से 40 सीटें जीत सकती थी. वैसे बहुमत का आंकड़ा 41 है - और हेमंत सोरेन के गठबंधन को 34 सीटें हासिल हुई हैं. एक सीट तो बीजेपी आसानी से मैनेज कर लेती. और कोई नहीं तो आरजेडी के टिकट पर चतरा से जीते सत्यानंद भोक्ता तो घरवापसी के लिए तैयार हो ही जाते.
वोट शेयर का हिसाब ये है कि बीजेपी और AJSU को मिले वोटों को जोड़ दें तो ये 41.5 फीसदी हो रहा है, जबकि JMM-कांग्रेस और RJD मिल कर भी 35.4 फीसदी ही पाये हैं. ऐसा पहली बार भी नहीं हुआ है - 2014 में भी बीजेपी ने आजसू के साथ 34.95 फीसदी में ही सरकार बना ली थी और 44.01 फीसदी वोट पाने वाला बिखरा विपक्ष (JMM, कांग्रेस, JVM और RJD) सत्ता की सीढ़ियों के पहले ही लुढ़क गया था.
नीतीश कुमार के साथ गठबंधन को बनाये रखने या तोड़ देने को लेकर फैसले में ये आंकड़े अमित शाह के लिए मददगार साबित हो सकते हैं - वैसे नीतीश कुमार के साथ चुनावी गठबंधन के मामले में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में वोटिंग के पहले की परिस्थितियां तस्वीर को ज्यादा साफ कर रही हैं.
नीतीश के बगैर बिहार में BJP का प्रदर्शन कैसा हो सकता है?
कोई भी चुनावी या सत्ताधारी गठबंधन एक ही बात पर टिका होता है - दोनों ही पक्षों का एक-दूसरे से कितना स्वार्थ है?
इस पैमाने पर बीजेपी के महबूबा मुफ्ती की PDP, ठाकरे परिवार की शिवसेना और सुदेश महतो की AJSU से जुड़े और टूटे रिश्तों को परखा जा सकता है. बीजेपी और नीतीश कुमार के बीच दोबारा हुए गठबंधन और JDU के महागठबंधन से अलग होने की कहानी भी काफी हद तक ऐसी ही है.
थोड़ी सी अलग कहानी पंजाब की लगती है. 2017 में बादल परिवार के शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी मिल कर ही विधानसभा चुनाव लड़े, लेकिन ऐसा लगा जैसे बीजेपी नेतृत्व महज रस्म अदायगी कर रहा हो. थोड़ा आगे बढ़ कर सोचें तो लगा जैसे बीजेपी नेतृत्व अकाली दल को कांग्रेस के हाथों हारते हुए देखने का मजा ले रहा हो - लेकिन 2019 के लोक सभा चुनाव में ये भी देखने को मिला कि बीजेपी नेतृत्व को अकाली दल की कितनी जरूरत रही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नामांकन के वक्त प्रकाश सिंह बादल के पैर भी छूए थे.
सबसे बड़ा सच तो ये है कि सम्मान भी रिश्तों की मिठास या मजबूरी का ही मोहताज होता है.
अब जरा बिहार के मौजूदा राजनीतिक हालात पर नजर डालते हैं. नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री के तौर पर 15 साल पूरा होने जा रहा है. मौके की नजाकत को देखते हुए तेजस्वी यादव ने पोस्टर वार शुरू कर दिया है - 15 साल बनाम 15 साल. पोस्टर के जरिये आरजेडी का कहना है कि हिसाब लीजिए भी और दीजिये भी.
पटना में आरजेडी की तरफ से जगह जगह ऐसे पोस्टर लगाये गये हैं.
ये तो सौ फीसदी सच है कि बीजेपी के पास बिहार में नीतीश कुमार के कद का वैसे ही कोई नेता नहीं है जैसे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को सीधे सीधे टक्कर देने वाला. ये बीजेपी की मजबूरी हो सकती है, लेकिन नीतीश कुमार की भी अपनी मजबूरी है.
2015 में लालू प्रसाद के साथ मिल कर नीतीश कुमार ने बिहार अस्मिता, बाहरी और डीएनए की जंग बना दी थी, लेकिन अब खुद नीतीश कुमार सत्ता विरोधी लहर के शिकार होते जा रहे हैं. दिल्ली में शीला दीक्षित, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सभी के सत्ता से हाथ धो बैठने की कहानी मिलती जुलती ही है - लोक साल दर साल एक ही चेहरा देखते देखते कई बार ऊब जाते हैं. नीतीश कुमार के सामने इस बार सबसे बड़ी चुनौती यही है. जाहिर है बीजेपी भी इस ऐंगल से सोच भी रही होगी.
फिर तो बीजेपी बिहार में भी महाराष्ट्र चुनाव से पहले वाली बहार देख ही रही होगी. महाराष्ट्र चुनाव से पहले बीजेपी नेताओं का एक तबका शिवसेना का साथ छोड़ देने के पक्ष में रहा. ऐसा नेताओं का मानना रहा कि बीजेपी बगैर शिवसेना के भी महाराष्ट्र में चुनाव जीत कर अपनी सरकार बना सकती है. बिहार भी तकरीबन ऐसी ही स्थिति में बीजेपी के कुछ नेताओं को नजर आ रहा होगा.
नीतीश कुमार को एनडीए में लाकर अमित शाह 2015 की हार का आधा बदला तो ले ही चुके हैं - 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़कर अधूरा बदला पूरा किया जा सकता है.
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