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Updated: 29 अक्टूबर, 2022 11:18 PM
कौशलेंद्र प्रताप सिंह
कौशलेंद्र प्रताप सिंह
  @Edkpsingh
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बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को लेकर देश के समझदारों और ईमानदारों ने सोशल मीडिया पर खूब धमाल मचाया हुआ है. बुरे दिनों के पक्षधरों का कहना है कि सत्ता में रहना चाहिए, वही अच्छे दिनों की ललक में लगभग आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा चुपचाप से कह रहा है कि साथ नहीं रहना चाहिए. कारण दोनों के अपनी-अपनी सीमाओं में स्पष्ट है.

अच्छे और बुरे के बाहर भी कुछ लोग है, जो भारत को थोड़ा-बहुत समझते है. उनका पक्ष भी आप को जानना चाहिए. एक दौर था जब भारत पर हिन्दू राजाओं का रंग था, जहां जनता लगभग रंक बन गई थी. मुगलिया सल्तनत के दौर में सनातन पर खतरा मंडराने लगा था. ब्रिटिश हुकूमत ने हमारी परम्पराओं को बर्बाद कर दिया था.

आज़िज़ आकर हमारे पुरखों ने बेहतर व्यवस्था के लिए लोकतंत्र लाया. सनद रहे हर व्यवस्था यह कह कर आती है या लाई जाती है कि हम पिछले से बेहतर हैं, पर नतीजा झंडू वाम निकलता है. जब जनता अच्छे-बुरे का हिसाब करती है तो अतीत को वर्तमान से बेहतर पाती है. ऐसा हर काल और परिस्थिति में होता रहता है.

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लोकतंत्र जब एक ही परिवार में स्थिर होने लगा, तो पुनः भारत व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर सत्ता पाने के लिए विद्रोही हो गया. उस विद्रोह के जितने साक्ष्य थे वो अपने जीते-जी अपने परिवार को सत्ता में नही आने दिया. याद रहे चौधरी चरण सिंह जी अपनी पार्टी लोकदल से स्व. रामेश्वर सिंह जी सांसद राज्यसभा को इसलिए निकाल दिया कि उन्होंने उनसे चौधरी अजित सिंह जी को पार्टी की कमान देने के लिए कह दिया था.

चौधरी चरण सिंह जी ने इस बात का उल्लेख एक जनसभा मे किया और कहा कि पूरा देश मेरे पुत्र समान है. बीजू पटनायक के जीते-जी नवीन पटनायक ओडिशा की धरती पर कदम नहीं रख पाए. राजनरायन जी ने भी अपने घर पर अपने परिवार को कभी नहीं आने दिया. समाजवादियों में इस परम्परा की लम्बी श्रृंखला है.

साम्यवादियों पर भी यह आरोप न लगा न लगेगा, क्योंकि उनके बाहर लोकतंत्र है कि नहीं, इस पर तो बहस हो सकती है, पर उनके दल के अन्दर जितना लोकतंत्र है, उतना भारत के किसी लोकतांत्रिक दल में नहीं है. लोग इस व्यवस्था से भी ऊबने लगे. इसके साक्षात गवाह श्री लालू यादव जी हैं. वो कहने लगे कि ये तो और बुरे लोग है.

इतना ही नहीं हाई कमान से मिलने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुना गया मुख्यमंत्री दिल्ली में हप्तों डेरा डाला रहता था. अफसोस कि अपने मुख्यमंत्री से मिलने के लिए समय नहीं होता था. आदमी से बात करना तो दूर, उसी के सामने कुत्ते को बिस्कुट खिलाना और बिना बात किए बैरंग भेजना, क्या यही हमारी सनातनी परम्परा है?

जिसकी वकालत गांधी जी अंतिम समय भी हे-राम कह कर करते हैं. उनकी उत्पत्ति ही अपने मुवक्किल को इजलास में अपराध बोध कराने से प्रारम्भ होती है. लोहिया जी भी रामायण पर संवाद करते हैं और राम-कृष्ण से इतर भारत को नहीं मानते. अब पुनः जनता अच्छे दिनों की तलाश में अच्छे लोगों को खोजने लगी, रथयात्रा के जनक कृष्ण में जो कमी निकाल दे, जो उन्हें मार दे, उससे अच्छा भला कौन हो सकता है?

अतः भाइयों-बहनों अच्छे और सच्चे दिन आ गए. अच्छे दिनों में क्या-क्या हो सकता है? समझदारों के पास सवाल से ज्यादा जवाब होंगे, और उसी जवाब में एक यह भी है कि जब कभी वर्तमान को खतरा महसूस हो तो गुरु व्यापम-व्यापम चिल्लाने लगें. ललित मोदी का लाटरी कांड जिन्दा हो जाए. जैसे जब-जब स्व. अर्जुन सिंह जी 7 लोकपथ पर चलना चाहे तब-तब अखबारों में चुरहट लाटरी कांड छपता था.

आखिर सवाल यह उठता है कि बुरे दिन की राह कौन धराया है? पक्ष और विपक्ष के इतर निष्पक्ष भारत को भय और भ्रष्टाचार से मुक्त भारत चाहिए. साथियों संभलों अन्यथा परम्पराओं के टूटने और परस्पर विरोध के चलते कहि लोग मोगैम्बो के पक्ष में मतदान न करने लगें. तब क्या होगा? जब न राम रहेंगे न रहीम.

समाजवादियों का संस्कार इस्तीफा देना रहा है. तेजस्वी यादव इस्तीफा दो, कल का भारत निश्चित रूप से तुम्हारे साथ होगा, यदि तुम्हारा संघर्ष जारी रहा तो. तेजस्वी जब तुम कह सकते हो कि जल्द देखना छोड़िए और किताब पढिए, तब बिना श्रम की इकठ्ठी पूंजी को जनता के हवाले कर सकते थे. यह आप ही के दीवार पर लिखा है, जिसे पढ़ने के लिए नीतीश जी के लोग आप के पापा से कह रहे हैं.

पढ़ा था कि इतिहास अपने आप को दुहराता है, कभी आप के पापाजी ने मुलायम जी को प्रधानमंत्री बनने से रोका था और देवेगौड़ा जी को बनवाया था, पुनः नीतीश को प्रधानमंत्री बनने से रोकेंगे. यही अच्छे और बुरे दिनों की पहचान है.

 

लेखक

कौशलेंद्र प्रताप सिंह कौशलेंद्र प्रताप सिंह @Edkpsingh

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इनको राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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