अखिलेश का तो नहीं पता, पर लगता नहीं कांग्रेस-पीके एक दूसरे को छोड़ने वाले
कांग्रेस और अखिलेश के साथ की अहम कड़ी रहे - पीके यानी प्रशांत किशोर. पीके का 'काम बोलता है' और 'यूपी के लड़के' कैंपेन तो नहीं चला, लेकिन उसी दौर में 'कॉफी विद कैप्टन' दमदार रहा.
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कांग्रेस से गठबंधन के बारे में अखिलेश यादव ने संकेत दिया है - 'साथ अब भी पसंद है'. आगे क्या होगा? उसी में ये भी मैसेज है - आगे देखी जाएगी. हालांकि, समाजवादी गलियारों में हर कोई गठबंधन को ही कोस रहा है.
वैसे आदित्यनाथ योगी के शपथ ग्रहण के वक्त अखिलेश और मुलायम सिंह की साथ साथ मौजूदगी में कोर्ई संकेत छिपा हो तो बात और है. ध्यान रहे, कांग्रेस और बीएसपी ने तो पहले से ही बायकाट का फैसला कर रखा था.
कांग्रेस और अखिलेश के साथ की अहम कड़ी रहे - पीके यानी प्रशांत किशोर. पीके का 'काम बोलता है' और 'यूपी के लड़के' कैंपेन तो नहीं चला, लेकिन उसी दौर में 'कॉफी विद कैप्टन' दमदार रहा. पंजाब की कामयाबी यूपी के घाव भर पाएगी, ऐसी पीके को जरूर उम्मीद होगी.
कैप्टन की राह पर वाघेला
एक साथ चुनाव होने के बावजूद पंजाब और यूपी के मामले पूरी तरह अलग रहे और कांग्रेस को कामयाबी मिलने में कैप्टन अमरिंदर सिंह के कद के साथ साथ पीके की मदद भी अहम रही, खुद कैप्टन और रणदीप सूरजेवाला तो यही मानते हैं - कुछ केंद्रीय और यूपी के नेताओं की बात और है.
क्या गुजरात कांग्रेस भी पंजाब के रास्ते चलने को तैयार है? गुजरात कांग्रेस के सीनियर नेता शंकर सिंह वाघेला ये संकेत पहले ही दे चुके हैं. वाघेला चाहते हैं कि गुजरात में भी पीके कांग्रेस के लिए प्रचार की कमान थामें. वाघेला की पहल भी ठीक वैसे ही जैसे यूपी से भी पहले कैप्टन ने आगे बढ़कर पीके को हायर किया था. खास बात ये भी रही कि कैप्टन भी पीके के मानदंड़ों पर खरे उतर रहे थे. 2015 में हुए पांच विधानसभा चुनावों में भी पीके से कई नेताओं ने संपर्क किया था लेकिन किसी के साथ सहमति नहीं बन पायी थी.
यू कैन विन...
वाघेला ने अपने फेसबुक पेज के कवर पर लिख रखा है - गुजरात में बीजेपी को हराना मुश्किल नहीं है. वाघेला ये सब पीके के बूते ही कह पा रहे हैं. वाघेला फेसबुक पोस्ट में लिखते हैं, 'मेरी सूचना के मुताबिक 2012 और 2014 के चुनावों में प्रशांत किशोर ने बीजेपी की जीत सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.'
यही वजह है कि वाघेला को पीके पर पक्का यकीन हो गया है, 'उनकी उपयुक्त रणनीति और प्रभावी प्रचार रणनीति से बिहार और पंजाब में जीत मिली थी और वो गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस को जीत दिलाएंगे.'
वाघेला को अपनी राय जाहिर करने पर विरोध भी झेलना पड़ा है और अंतिम बात यही है कि इस बारे में भी आखिरी फैसला आलाकमान ही करेगा.
पीके का प्लस प्वाइंट
वैसे पीके को भी ऐसे एक असाइनमेंट की सख्त जरूरत है. लाज बचाने के लिए पंजाब मिसाल जरूर है, लेकिन इस सच्चाई से कोई कैसे मुकर सकता है कि यूपी में भी उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी थी. वैसे उनके पास फ्रीहैंड न होने और सीनियर कांग्रेस नेताओं की ओर से सहयोग न मिलने जैसी दलीलें भी हो सकती हैं. जहां तक पंजाब की बात है तो वहां भी प्रभारी आशा कुमारी और कैप्टन ने पीके को एक तरीके से मीडिया और सोशल मीडिया का बेस्ट इस्तेमाल करने में लगा रखा था - उम्मीदवारों के चयन में उन्हें मोदी और नीतीश की तरह छूट नहीं मिली थी.
यूपी में हार के बाद कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ताओं से लेकर प्रियंका वाड्रा और राहुल गांधी तक के बारे में नाराज और निराश होने जैसी बातें सुनी जा रही हैं. एक कार्यकर्ता तो इतना गुस्से में था कि उसने पीके के लापता होने के पोस्टर लगा डाले और बताने वाले के लिए पांच लाख के इनाम का भी एलान कर दिया. कांग्रेस की नाराजगी के वाजिब कारण भी हैं - बस यात्रा में शीला दीक्षित का बीमार होना तो बनारस रोड शो में सोनिया गांधी की तबीयत खराब हो जाना - और राहुल गांधी का घूम घूम कर खाट सभा करना, नतीजे में मिली महज सात सीटें.
पीके के साथ ये प्लस प्वाइंट जरूर है कि वो गुजरात में पहले भी काम कर चुके हैं. जाहिर है उनके पास सारे आंकड़े होंगे - और वे भी उनसे जुड़े आंकड़े जिनके खिलाफ उनका संभावित नया कॉन्ट्रैक्ट होगा. बस उन्हें एक बार नये सिरे से अपडेट करना होगा. प्रोफेशनल एथिक्स तो ये कहता है कि किसी क्लाइंट से जुड़ी चीजों का उसी के खिलाफ इस्तेमाल न किया जाय. पीके ने जब मोदी के लिए काम किया होगा तो उन्हें आंकड़े वैसे ही उपलब्ध कराये गये होंगे जैसे कोई क्लाइंट अपने वकील या डॉक्टर से डील करता है. तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि ऐसे एथिक्स सियासत में कितना मायने रखते हैं. ये आखिरी चुनाव तो होगा नहीं, क्या पता 2019 के लिए पुराने क्लाइंट के साथ ही डील हो जाय.
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