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Updated: 01 जनवरी, 2023 03:32 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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2022 ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के लिए काफी मुश्किलों भरा रहा. मुश्किलों भरा तो 2021 भी था, लेकिन पश्चिम बंगाल (West Bengal Politics) की चुनावी जीत के आगे नंदीग्राम की हार और तृणमूल कांग्रेस नेताओं के साथ छोड़ने का दर्द काफी कम लगा होगा.

बीजेपी (BJP) नेतृत्व, खास कर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ तो ममता बनर्जी की लड़ाई कोविड काल में ही तेज हो चली थी. बंगाल विधानसभा चुनावों की तारीख आते आते वो और भी तीखी और तेज हो गयी थी - लेकिन बात वही है, अंत भला तो सब भला. लेकिन ये बात 2021 के लिए ही ठीक लगती है - 2022 में तो ममता बनर्जी के साथ रहे लोगों ने ही फजीहत करायी है.

जुलाई, 2022 में बंगाल सरकार के मंत्री पार्थ चटर्जी की गिरफ्तारी तृणमूल कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा झटका था. जिस तरीके से उनकी दोस्त के घर से नोटों की ढेर बरामद हुई, लगातार कई दिनों तक टीवी पर बंगाल ही कौन कहे, पूरा देश देखता रहा. जाहिर है ममता बनर्जी को मन मसोस कर ही देखना पड़ा होगा.

ममता बनर्जी ने पार्थ चटर्जी को फटाफट बर्खास्त कर उन पर लगे मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों से पल्ला झाड़ने की कोशिश की, लेकिन प्रवर्तन निदेशालय के गिरफ्त में होते हुए भी उनके बयान टीएमसी नेतृत्व के लिए परेशान करने वाले ही रहे. और तभी एक और टीएमसी नेता माणिक भट्टाचार्य को भी गिरफ्तार कर लिया गया, वो एसएससी के अध्यक्ष रह चुके थे.

तृणमूल कांग्रेस को एक और जोर का झटका तब लगा जब पशु तस्करी के मामले में बीरभूम के जिलाध्यक्ष अनुब्रत मंडल को सीबीआई पकड़ कर लेती गयी. हालांकि, ममता बनर्जी ने अनुब्रत मंडल के मामले में पार्थ चटर्जी से अलग लाइन ली - तृणमूल कांग्रेस की तरफ से उनके खिलाफ कोई एक्शन लिया जाना तो दूर सीबीआई की कार्रवाई को साजिश बताने की कोशिश हुई.

बाद में ममता बनर्जी ने मंत्रिमंडल में फेरबदल कर पूरे घर को दुरूस्त दिखाने की भी कोशिश की. बीजेपी को मैसेज देने के लिए बाबुल सुप्रियो को ममता बनर्जी ने कैबिनेट साथी भी बना लिया. बाबुल सुप्रियो के साथ साथ शत्रुघ्न सिन्हा की आसनसोल लोक सभा सीट पर जीत भी ममता बनर्जी के हिस्से की उपलब्धि ही रही.

अब असली चैलेंज तो ममता बनर्जी के लिए 2024 का आम चुनाव होगा, लेकिन 2023 भी कम चुनौतियों भरा नहीं रहने वाला है - और पहली परीक्षा तो पंचायत चुनावों में ही होने वाली है. पश्चिम बंगाल मे पंचायत चुनाव अप्रैल, 2023 में होने की संभावना है.

क्या ममता पर निजी हमलों से परहेज किया जा रहा है?

चुनावों के दौरान निजी हमले हमेशा ही सियासी हमलावरों के खिलाफ नतीजे देते रहे हैं. गुजरात चुनाव में कांग्रेस की बुरी हार के पीछे अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सक्रियता के अलावा एक बड़ा कारण मल्लिकार्जुन खड़गे का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर बयान भी रहा. चुनावों के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री मोदी की रावण से तुलना कर दी थी - ये हाल दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के गोत्र को निशाना बनाने से लेकर नीतीश कुमार के डीएनए तक को मुद्दा बनने के मामले में देखा जा चुका है.

narendra modi, mamata banerjeeममता बनर्जी के मुकाबले बीजेपी ज्यादा प्यार बरसा रही है - और ये चुनावी का हार का ही सबक लगता है.

पश्चिम बंगाल चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के अपनी रैलियों में बार बार 'दीदी... ओ दीदी' दोहराये जाने को भी तृणमूल कांग्रेस चुनावी मुद्दा बनाने में कामयाब रही थी. ममता बनर्जी के समर्थक बंगाल के लोगों को ये समझाने में सफल रहे कि बीजेपी नेतृत्व राज्य की महिलाओं का अपमान कर रहा है. ममता बनर्जी का मोदी-शाह को बाहरी बताना भी उसी लहर में असरदार साबित हो गया - और बीजेपी खुद को प्रशांत किशोर की भविष्यवाणी सही साबित करने से भी नहीं बचा सकी. प्रशांत किशोर का ये दावा सही साबित हुआ था कि बीजेपी किसी भी सूरत में 100 सीटें नहीं जीत पाएगी.

चुनावी जीत के बाद तृणमूल कांग्रेस नेता डेरेक ओ'ब्रायन पहले तो बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और अमित शाह पर भी हमला बोलते रहे, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के वीडियो के साथ ट्विटर पर लिखा, बंगाल के नतीजों ने बता दिया है महिलाओं का कहीं भी अपमान नहीं करना चाहिए. बाकी टीएमसी नेता भी डेरेक ओ'ब्रायन की ही तरह बीजेपी नेतृत्व पर धावा बोल दिये थे.

क्या बीजेपी अब ममता बनर्जी के खिलाफ निजी हमलों से बचने की कोशिश करने लगी है? हाल फिलहाल जो कुछ देखने को मिला है, उससे तो यही लगता है - खासकर, हावड़ा स्टेशन पर जिस तरह ममता बनर्जी को मनाने की कोशिशे हुई, वैसा तो पहले कभी नहीं देखा गया था. बल्कि, सार्वजनिक तौर पर किसी भी नेता के साथ वैसा सद्भावपूर्ण व्यवहार बीजेपी की तरफ से नहीं देखा गया है.

किसी मुद्दे पर चुप रह जाना या फिर रिएक्ट न करना और बात होती है, लेकिन ऐसे कितने मौके देखने में आये हैं जब किसी नेता के रूठ जाने पर गुस्सा शांत करने और मनाने की कोशिश हुई हो.

वंदे भारत एक्सप्रेस के उद्घाटन के मौके पर जिस तरह से बीजेपी पेश आयी क्या वो ममता बनर्जी के समर्थकों को कोई मैसेज देने की कोशिश रही? क्या ये सब आने वाले पंचायत चुनाव और अगले लोक सभा चुनाव की तैयारियों का हिस्सा है?

ममता का मान-मनौव्वल क्यों?

बंगाल की राजनीति में बड़ा बदलाव महसूस किया जा रहा है नये राज्यपाल सीवी आनंद बोस के कोलकाता के राजभवन में पहुंचने के बाद से. उनके पहले राज्यपाल रहे (अब उपराष्ट्रपति) जगदीप धनखड़ हमेशा ही आक्रामक रुख अपनाये रहते थे.

एक वो भी दौर था जब राजभवन की तरफ से सरकार को कठघरे में खड़ा करने का मौका न मिलने पर बहाने खोज लिये जाते रहे. और ममता बनर्जी को टारगेट करना तो मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने जैसा ही होता है - पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजे आने के बाद भी वो सिलसिला जारी रहा.

लेकिन उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बन जाने के बाद जगदीप धनखड़ के व्यवहार में भी कमी देखी जाने लगी. बदलाव की सबसे खुशहाल तस्वीर दार्जीलिंग से आयी, ममता बनर्जी को जगदीप धनखड़ और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के साथ हंसते मुस्कुराते चाय पीते देखा गया.

बाद में तो वैसी ही तस्वीर अमित शाह के साथ भी सामने आयी. ये सब एकतरफा तो नहीं, लेकिन ममता बनर्जी से ज्यादा बीजेपी की तरफ से नजर आने लगा था. हो सकता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बाद ममता बनर्जी के मुंह से प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ सुनने के बाद नया 'पोरिबोर्तन' हो रहा हो.

सीवी आनंद बोस ने तो राज्यपाल बन कर कोलकाता पहुंचते ही पहली ही बार में ऐसे इशारे कर दिये थे कि बंगाल की सियासत में एक छोटा सा परिवर्तन तो आ ही चुका है. फिर करीब महीने भर बाद ममता बनर्जी राज्यपाल से मिलने गयीं और वैसे ही तारीफों की ढेर लगा दीं तो बहुत कुछ कयास कंफर्म नजर आने लगे.

एक दौर वो भी रहा जब अमित शाह और जेपी नड्डा भी चुनावों में ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी को कठघरे में खड़ा करते हुए तृणमूल कांग्रेस सरकार भ्रष्टाचार में डूबी हुई बताया करते थे. प्रधानमंत्री मोदी तो दीदी ओ दीदी कह कर मजाक ही उड़ाते ही थे, लेकिन अब सब बदला बदला सा लग रहा है.

ये एक्सचेंज ऑफर ही तो है, जब गवर्नर अपने व्यवहार से ममता बनर्जी की सरेआम तारीफ बटोर रहे हैं. सबसे ज्यादा हैरानी तो तब होती है जब जय श्रीराम के नारे से नाराज होने पर वही गवर्नर सीवी आनंद बोस ममता बनर्जी को मनाने की भी कोशिश करते हैं.

और ताज्जुब तो तब होता है, जब सिर्फ वही नहीं, बल्कि रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव भी बिलकुल वैसा ही व्यवहार करते हैं. जब पीयूष गोयल रेल मंत्री थे कोविड काल में तो हमेशा ही ममता को घेरने की कोशिश रहती थी.

ये ठीक है कि जय श्रीराम की नारेबाजी पर पर ममता बनर्जी अब भी आग बबूला हो जाती हैं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की मां को अपनी मां जैसा भी बताती हैं - ऐसा पहले कभी देखने को मिला है क्या?

ये ठीक है कि ताली दोनों हाथों से ही बजती है, लेकिन एक तरफ से भी ज्यादा जोर लगाया जाये तो और भी जोर जोर से बजने लगती है - ममता बनर्जी और बीजेपी दोनों मिल कर फिलहाल तो ऐसा ही कर रहे हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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