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Updated: 30 जून, 2016 06:26 PM
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मुलायम सिंह यादव के दिल और दल में एक पतली सी दरार आई दिखती है. अमर सिंह अब मुलायम के दिल से निकल कर दल में भी चहलकदमी करने लगे हैं. मुलायम के चचेरे भाई राम गोपाल यादव के बर्थडे पर उनके सगे भाई शिवपाल यादव का रुठना और मनाकर लाने के बाद भी अनमने से रहना रिश्तों की स्टेटस रिपोर्ट देने के लिए अपनेआप में काफी है.

धुआं

चार साल पहले इस आग का धुआं तब दिखा जब मुलायम के भाइयों और साथियों को लगा कमान अखिलेश के हाथ जाने वाली है. सब के सब अपनी अपनी पैंतरेबाजी पर उतर आए. ये पहला मौका था जब उनमें असुरक्षा का भाव उपज आया था.

वैसे भी 2012 की जीत के असली नायक अखिलेश यादव ही रहे. ब्रांड मुलायम का जरूर रहा, लेकिन गली गली साइकिल पर सवार होकर लोगों तक अखिलेश ही पहुंचे थे. बेटे को गद्दी सौंपने के हिसाब से मुलायम को भी माहौल बेहद माकूल लगा. चुनाव में समाजवादी पार्टी की जीत तो महज वोटों की राजनीति रही, असली सियासत शुरू हुई जब सरकार बनाने की बारी आयी.

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बहरहाल, मुलायम ने अपनी दूरगामी सोच के साथ इरादा पक्का किया और अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने का एलान कर दिया. पहले तो वो बारी बारी सभी से बात कर ही चुके थे - मान मनौव्वल का दौरे थोड़ी देर और चला. बाद में सभी ने हंसते हंसते प्रेस कांफ्रेंस में हिस्सा लिया बात आई गई हो गई. अखिलेश ने भी अपनी ओर से कोई कसर बाकी न रखी. हालत ये हो चली कि विपक्ष यूपी में कभी साढ़े चार तो कभी साढ़े पांच सीएम होने की बात बोल मजाक उड़ाने लगा और आते आते ये संख्या साढ़े तीन तक पहुंच गयी - इस पूरे दौरान अखिलेश के हिस्से में आधा मुख्यमंत्री पद ही आ पाया.

आग

अखिलेश सरकार के साल भर पूरे होने से पहले तो मुलायम ने सरेआम झाड़ पिलाई, लेकिन सालगिरह पर फुल मार्क्स दिये. बाकी सब समाजवादी गति से चलता रहा.

हाल के एक साल में समाजवादी पार्टी में तनाव भरे कई दौर देखने को मिले. इसी पीरियड में अखिलेश की भी नाराजगी सामने आई. वो भी किसी और नहीं बल्कि अपने पिता मुलायम सिंह से.

फोन पर धमकाने को लेकर जब आईपीएस अफसर अमिताभ ठाकुर कोर्ट चले गये तब भी अखिलेश ने मीडिया के सामने इतना ही कहा 'नेताजी तो गार्जियन हैं' - उनकी बात के बुरा मानने का क्या मतलब. अखिलेश ने ये भी कहा कि वो तो उन्हें भी सबके सामने डांट देते हैं.

मगर, जब मुलायम ने कुछ ऐसे नेताओं को समाजवादी पार्टी से निकाल दिया जो अखिलेश के करीबी तो सारी फिलॉसफी पीछे छूट गयी. अखिलेश अपने पिता से इस कदर नाराज हुए कि सैफई महोत्सव में कई दिन तक नहीं पहुंचे. नौबत यहां तक पहुंच गयी कि पिता को पुत्र के आगे झुकना ही पड़ा.

ये दूसरा मौका था जब अखिलेश से नाराजगी के चलते आजम खां कैबनिट विस्तार और बदलाव के खास मौके से नदारद रहे. ऐड-ऑन फैक्टर ये रहा कि इस बार शिवपाल यादव ने भी लंबी दूरी बना ली.

बात शायद इतनी ही होती तो मामला ज्यादा गंभीर न होता - मालूम हुआ कि शिवपाल यादव चचेरे भाई रामगोपाल यादव के बर्थडे इवेंट से भी दूर रहेंगे. खैर, तब तक अमर सिंह को भनक लग चुकी थी - और वो शिवपाल यादव को मनाने निकले और उन्हें साथ लेकर ही लौटे.

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रूठे रब को मनाना आसान है, रूठे...

शिवपाल यादव फंक्शन में पहुंच तो गये लेकिन अनमने से. बहुत कहने पर आगे वाली कतार में शामिल हुए.

यहां तक तो कोई बात नहीं, लेकिन उसके बाद शिवपाल ने जो कटाक्ष किया और उस पर अखिलेश ने जवाब दिया - वो गंभीर भी था और काफी तल्ख भी.

विचारधारा या वर्चस्व

राम गोपाल यादव की किताब का तो जैसे जिक्र तक न हुआ - हर किसी का ध्यान सिर्फ शिवपाल यादव के रूठने और मनाये जाने पर फोकस हो गया.

इवेंट के शो स्टॉपर बने अमर सिंह ने माहौल को हल्का करने की भी कोशिश की. जो कुछ हुआ उस पर पर्दा डालने के प्रयास में अमर सिंह ने उसे अभिव्यक्ति की आजादी जैसी खूबसूरत चीज समझाया. पर, शिवपाल को ये भी नागवार गुजरा.

शिवपाल ने उसी वक्त साफ कर दिया कि ये सब अभिव्यक्ति की आजादी नहीं, बल्कि नयी पीढ़ी को समाजवादी विचारधारा का पर्याप्त ज्ञान नहीं है, इसलिए हो रहा है. शिवपाल ने नयी पीढ़ी को राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं के सांप्रदायिक शक्तियों से मुकाबला करने के लिए उनके विचार पढ़ने की सलाह दी.

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अखिलेश ने भी आव न देखा ताव, साफ साफ शब्दों में कह दिया कि उन्होंने लोहिया को भी पढ़ा है और जयप्रकाश नारायण को भी. मैसेज साफ था, किसी को भी किसी तरह के मुगालते में रहने की जरूरत नहीं है.

साथ ही, जोड़ भी दिया, "नेताजी ने पार्टी को स्थापित किया और लोगों का जीवनस्तर उठाया और पार्टी सिर्फ मुलायम की विचारधारा के प्रति समर्पित है."

न तो चाचा ने भतीजे का नाम लिया और न ही भतीजे ने चाचा का. लेकिन अखिलेश ने बोल कर संकेत दे दिया कि वो हर इशारा समझते हैं - और नयी पीढ़ी के नाम पर कोई ये समझने या समझाने की कोशिश न करे कि उन्हें राजनीति नहीं आती.

ये तो साफ है कि शिवपाल की ताजातरीन नाराजगी की वजह मुख्तार अंसारी को समाजवादी पार्टी में लाये जाने की कोशिश ही है. बलराम यादव का मंत्रिमंडल से हटाया जाना और फिर वापस लाया जाना ये बताने के लिए काफी है. ऐसा वाकया पहले भी हो चुका है जब 2012 में अखिलेश ने बाहुबली नेता डीपी यादव के लिए नो एंट्री का बोर्ड लगा दिया था.

असल में, अखिलेश समाजवादी पार्टी की पुरानी 'हल्ला बोल' छवि से आगे ले जाना चाहते हैं. डीपी यादव की नो एंट्री हो या अतीक अहमद को मंच पर धक्का दिया जाना या फिर मुख्तार के साथ भी डीपी यादव सलूक - सब एक ही कहानी कह रहे हैं.

अखिलेश यादव को अगला चुनाव अपनी इमेज और विकास के मुद्दे पर लड़ना है. जाहिर है इस इमेज पर कोई भी दाग धब्बा लगे आखिर कैसे बर्दाश्त होगा.

लेकिन क्या ये लड़ाई सिर्फ वर्चस्व की है? या ये लड़ाई विचारधारा की है? या फिर वर्चस्व और विचारधारा से कहीं आगे विरासत पर दावेदारी की ओर बढ़ रही है?

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