बीजेपी को अब एक ही सूरत में दी जा सकती है चुनौती
जो भी पार्टी खुद को धर्मनिरपेक्षता का अलमबरदार मानती है उन सभी का अब एक घाट पर आए बिना गुजारा नहीं है.
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अब कोई माने या ना माने ये हकीकत है कि बीजेपी वैसी ही पैन इंडिया वाली स्थिति में आ चुकी है जैसे कि कभी कांग्रेस हुआ करती थी. कांग्रेस का कभी सत्ता हासिल करने का मंत्र होता था कि विरोधी दलों को कभी एक ना होने दो. ऐसे में 50 फीसदी से कहीं कम वोट मिलने पर भी कांग्रेस को सत्ता मिलती रहती थी. कांग्रेस के विरोध में जितने भी वोट होते थे वो बंट जाते थे. कांग्रेस को मिलने वाले वोटों का प्रतिशत सबसे अधिक रहता था इसलिए वो चुनाव दर चुनाव जीत हासिल करती रही.
कांग्रेस का ये भ्रम इमरजेंसी के बाद टूटा. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रांति के आह्नवान ने सभी विरोधी दलों को एक मंच पर ला दिया और जनता पार्टी बनी. इसी जनता पार्टी ने कांग्रेस को 1977 लोकसभा चुनाव में ऐसी धूल चटाई कि इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी भी चारों खाने चित हो गए. अब ये बात है जनता पार्टी सरकार खुद ही अपने विरोधाभासों के कारण जल्दी ही दम तोड़ गई. तीन साल बाद ही भारी बहुमत के साथ इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई.
इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर सकता कि ब्रैंड मोदी की ताकत और अमित शाह की मास्टर रणनीति के कॉकटेल ने बीजेपी को पैन इंडिया असर रखने वाली सबसे मजबूत पार्टी बना दिया है. केंद्र स्तर पर तो अब किसी पार्टी में इतनी कुव्वत नहीं दिखती कि वो अपने बूते पर बीजेपी को चुनौती दे सके. हां, कुछ राज्यों में जरूर ऐसे क्षत्रप या कद्दावर नेता हैं जो सिर्फ राज्य स्तर पर ही बीजेपी को पटखनी देने का माद्दा रखते हैं. यहां पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की जीत का हवाला भी दिया जा सकता है. कैप्टन की जीत कांग्रेस से ज्यादा खुद उनकी मजबूत शख्सीयत की जीत है. कैप्टन ने ना सिर्फ पंजाब में बीजेपी और उसके सीनियर पार्टनर अकाली दल को सत्ता से बेदखल किया बल्कि अरविंद केजरीवाल के दिल्ली से बाहर सपनों की उड़ान को भी अंगूठा दिखा दिया.
बीजेपी की चुनौती का सामना करने के लिए 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के नाम पर जो प्रयोग हुआ था उसका नतीजा सभी ने देखा. नीतीश कुमार को लगा कि वो अपनी पार्टी जेडीयू के अकेले दम से बीजेपी को नहीं हरा सकेंगे तो उन्होंने धुर विरोधी लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल से हाथ मिलाने में देर नहीं लगाई. धर्मनिरपेक्ष मोर्चे की मजबूती के नाम पर कांग्रेस ने भी इनका पिछलग्गु बनने में देर नहीं लगाई. नतीजा ये रहा कि इस धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के सामने बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी. बिहार में ना ब्रैंड मोदी का जादू चला और ना ही अमित शाह की मास्टर रणनीति.
अब बात उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजों पर की जाए. यहां बीजेपी ने विरोधियों की चुनौती को तिनके की तरह उड़ा दिया. अब यहां एक स्थिति पर सोचिए, अगर समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने मिलकर चुनाव लड़ा होता तो क्या होता? 'धर्मनिरपेक्षता' के नाम पर कांग्रेस ने भी इनका साथ दिया होता. यूपी में बीजेपी को 39.7% फीसदी वोट मिले. वहीं समाजवादी पार्टी को 21.8% और कांग्रेस को 6.2% वोट मिले. गठबंधन के तौर पर एसपी-कांग्रेस ने 28% वोट हासिल किए. सीटों के लिहाज से बीएसपी को बेशक करारी हार मिली है लेकिन वोट प्रतिशत के हिसाब से ये प्रदेश में दूसरे नंबर की पार्टी रही है. बीएसपी को 22.2% वोट मिले हैं. यानि मायावती को समाजवादी पार्टी से 0.4% ज्यादा वोट मिले हैं. समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस, तीनों के वोट प्रतिशत को मिलाया जाए तो ये 50.2% बैठता. यानि तीनों ने मिलकर चुनाव लड़ा होता तो बीजेपी की यूपी में भी बिहार वाली ही स्थिति होती.
सातों चरणों का चुनाव खत्म हो जाने के बाद अखिलेश यादव ने जरूर मायावती से हाथ मिलाने की बात कही. लेकिन तब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत. इन नतीजों से कांग्रेस के लिए भी ये संदेश है कि वो अब खुद को पैन इंडिया पार्टी मानने के दंभ से बाहर निकले और हकीकत को स्वीकार करे. कांग्रेस समेत जो भी पार्टी खुद को धर्मनिरपेक्षता का अलमबरदार मानती है उन सभी का अब एक घाट पर आए बिना गुजारा नहीं है. 2019 लोकसभा चुनाव में वो उसी स्थिति में बीजेपी को चुनौती देने की सोच सकती हैं. ग्रैंड ओल्ड पार्टी यानि कांग्रेस को अब समझ लेना चाहिए कि धर्मनिरपेक्ष दलों की एकता के लिए उसे खुद को सबसे बड़ा मानने वाला रवैया छोड़ना होगा. बड़ा धर्मनिरपेक्ष गठबंधन बनाने के लिए हर पार्टी से बराबरी वाला व्यवहार करना होगा. कांग्रेस को पार्टी स्तर पर भी सब कुछ आलाकमान से थोपने की जगह कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे कद्दावर नेताओं की सुननी होगी. इन बातों पर कांग्रेस ने गौर नहीं किया तो वाकई में बीजेपी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' के नारे को पूरा होने में देर नहीं लगेगी.
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