असदउद्दीन ओवैसी के नाम खुला पत्र
"तुमको कोई अंदाजा है. तुम्हारी इस हरकत से मेरे देश के करोड़ों मुसलमान भाइयों-बहनों पर क्या गुजरेगी. उन्हें जबरन नए सिरे से देशभक्ति का लिट्मस टेस्ट देना होगा"
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आदरणीय ओवैसी जी,
भारत में आम लोगों से अगर संविधान एक ऐसे आर्टिकल के बारे में पूछा जाए जिससे वे इत्तेफाक रखना तो दूर तनिक जानते भर हों तो यकीन मानिए उसका जवाब आर्टिकल 19 ही होगा. कुछ थोड़ा एक्टिव हुए तो 19 के साथ (a) भी लगा सकते हैं. यानी आर्टिकल 19(a).
ऐसा नहीं कि ये जानकारी आम लोगों ने पिछले राजग(एनडीए) शासन के 2 सालों में हासिल की हो. इस आर्टिकल से तो वे पहले से वाकिफ थे लेकिन इन 2 सालों में हमारे बुद्धजीवियों ने इसे उनके स्मृति पटल पर 'शिलालेख' की भांति उकेर दिया है. जो मिटाए न मिटेगा. और मिटे भी क्यों! ये तो भला अच्छी बात ही है. सामान्य ज्ञान भी बढ़ रहा है और आपने अधिकारों को लेकर लोग जागरूक भी हुए जा रहे हैं.
फिर 25, 29 भी है. आर्टिकल 29 के साथ आपसे साथ एक प्लस पॉइंट और है. खास आपके लिए. बधाई हो.
खैर, अब मुद्दे पर आता हूँ. आपने कहा कि संघ (मोहन भागवत) आपकी गर्दन पर चाकू भी रख दें तब भी "भारत माता की जय" न बोलेंगे. इसी पर ट्विटर पर मेरे मार्गदर्शक, पत्रकार और मेरे वरिष्ठ 'गुरुभाई' यशवंत देशमुख साहब ने इस तथ्य पर गौर किया कि ऐसा कहते-कहते ही आप 3 बार "भारत माता की जय" बोल गए. मतलब जो काम संघ, मोहन भागवत और कोई चाकू न करवा सका उसे आपने खुद ब खुद कर दिया! वाह! आप कह सकते हैं लाहौल-बिला-कूबत... ख़ुदा माफ़ करे. ये तो बातों-बातों में अनजाने में ही हो गया.
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चलिए मान लिया. अब आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ. आप बात-बात में संविधान से आर्टिकल 19(a) और 25, 29 आदि की बात करते हैं. जिसके मूल में उसी संविधान की प्रस्तावना के वे शब्द है जो 'हम भारत के लोगों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता" सुनिश्चित करने की गारंटी देते हैं.
अब चूंकि धर्म की बात है तो इसी पर प्रश्न. आप कहते हैं कि इस्लाम (आपके मज़हब) में अल्लाह (ईश्वर) के अलावा किसी की पूजा-वंदना वर्जित है. और इसमें किसी की जय या जिंदाबाद करना भी पूजा या वंदना करना ही है. ठीक मान लिया. लफ्ज-दर-लफ्जअब इसी लफ्ज-दर-लफ्ज के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मैं पूछता हूँ फिर क्यों आप खुद अपने समर्थकों से खुद की, अपनी पार्टी की जिंदाबाद क्यों करवाते हैं? क्या? आप नहीं करवाते? समर्थक अपने आप करते हैं? ये कैसे समर्थक हैं जो आपके सामने मजहब के नियमों को भूल जाते हैं? ये कैसे अनुयायी हैं जो आपके सामने खुदा के आदेश को भूल जाते हैं? और फिर वो कौन से मजहब को मानने वाले हैं जो अफजल या याकूब की जिंदाबाद करते हैं? इशरत जिंदाबाद करने वाले क्या मुसलमान नहीं हैं? ओबामा या इस्लामिक स्टेट जिंदाबाद लिखने वाले सच्चे मुसलमान नहीं? अपनी बात को कहने के लिए कितने और उदाहरण दूँ महोदय? क्या वो असली मुसलमान नहीं या फिर 'जिंदाबाद' कई तरह के होते हैं? भारत माता के साथ लगा 'जिंदाबाद' अलग और आप वाला 'जिंदाबाद' अलग?
इसी लफ्ज-दर-लफ्ज को और आगे बढ़ाते हुए इराक के राष्ट्रगान (पुराना हो या नया) में जो 'पितृभूमि' 'मातृभूमि' या 'होम लैंड' के प्रति जो सम्मान है, जो वंदना है, उसे क्या कहेंगे? क्या इराक में रहने वाले सच्चे मुसलमान नहीं हैं? क्या इराक के इन्ही शब्दों को गाने-गुनगुनाने वाले फलस्तीन के लोग, जो आपनी भूमि के लिए लड़ रहे हैं, वे सच्चे मुसलमान नहीं?कोई जवाब है आपके पास? ज्यादा इतिहास में न जाकर इस समय बस उस एक व्यक्ति को याद करना चाहूंगा जिसने कुछ महीने पहले ही दुनिया को अलविदा कह दिया है. जन्म से तो वो आपके मजहब के थे लेकिन कर्म से... कर्म से वो 'भारतीय' थे. अगर व्यक्ति को सिर्फ और सिर्फ मजहब के ऐनक से ही देखा जाए तो मेरे लिए वे सच्चे मुसलमान थे. हालांकि ऐसा मेरे लिए मानना सिर्फ आपकी जिद के कारण है, वरना मैं न मानू. भारत माता के उस सपूत का नाम लिखने की जरूरत नहीं है. समझ गए होंगे आप.
मुझे पता है अगर आप हिंदी पढ़ सकते हैं और इसे पढ़ रहे होंगे तो पक्का मुझे नादान करार देंगे. कोई बात नहीं. आपका (नादानी वाला) तोहफा हमें मंज़ूर है!
असद साहब, ('असद' आपके प्रति प्यार के लिए और 'साहब' सम्मान की खातिर) विश्वास मानिए... आपके ऐसे बयान, भारत में रहने वाले करोड़ों मुसलमान भाइयों-बहनों को परेशानी में डाल देते हैं. आप भले ही उनके नेता न हों लेकिन उन्हें इस प्रकार के बयानों से झुंझलाहट ही होती है. अपने एक और सीनियर 'गुरुभाई' सौरभ द्विवेदी जी के शब्द उधार लेकर कहूँ तो..."तुमको कोई अंदाजा है. तुम्हारी इस हरकत से मेरे देश के करोड़ों मुसलमान भाइयों-बहनों पर क्या गुजरेगी. उन्हें जबरन नए सिरे से देशभक्ति का लिट्मस टेस्ट देना होगा"
आप जितनी बार ऐसा कहेंगे, उतनी बार उन्हें शक की निगाह से देखा जाएगा. फिर कभी कोई महानुभाव आरएसएस को IS बता दें तो फिर तो कहना ही क्या. सोने पे सुहाग... उसके पीछे सोशल मीडिया भागा!
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खैर, सुना है आप संविधान में बड़े विश्वास करने वाले हैं. अच्छा है. बहुत अच्छा है. अधिकार, अधिकार और अधिकार....!!! क्या बस यही है संविधान में? संविधान में तो आर्टिकल 51(a) भी है. आर्टिकल 40 भी है. कहते हैं इसकी मूल भावना (सत्ता का विकेंद्रीकरण) भी मजहबी नियमों के खिलाफ है. फिर... फिर आर्टिकल 44 भी है. अब, अब क्या? खामोशी है. खासकर आखिरी वाले पर!
खैर, फिर पूछ रहा हूँ. मेरे प्रश्नों का आपके पास कोई जवाब है? नहीं होगा. पता है क्यों? पता लगाने की कोशिश कीजिए.
अंत में... आप कुछ भी कहिए, भारत माता को मानिए या न मानिए... ऐसा कहना यहां ईशनिंदा न मानी जाएगी. ईशनिंदा पर आपको कोड़े नहीं मारे जाएंगे... न पत्थर मारने की सजा मिलेगी. शुक्र मनाइए आप भारत में हैं. पांच हजार पुरानी की तो सिर्फ 'ज्ञात' सभ्यता है. उससे पीछे जाएंगे तो समय की शब्दावली देखनी पड़ेगी. मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम से लेकर अशोक और अकबर ने, बुद्ध से लेकर विवेकानंद और गांधी ने... हमें बहुत सहनशीलता-सहिष्णुता सिखाई है. अगर आप इसकी परीक्षा लेने की कोशिश करेंगे तो कम से कम ऊपर बताई गई लिटमस टेस्ट वाली बात को याद कर लीजिए.
और अंत में एक बात और... हो सके तो 21वीं सदी (और भविष्य को भी) को 7-8वीं सदी के नियमों से हांकने की कोशिश मत कीजिए. थोड़ा नम्र बनिए. उदार बनिए. कुछ लचक दिखाइए. वो कुछ लाइनें हैं न "झुकते वही हैं, जिनमें जान होती है, अकड़ तो मुर्दों की पहचान होती है..."
शब्द विराम.
'भारत माता की जय' बोलने वाला एक आम भारतीय
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