पहल आपकी, अंजाम तक ले जाए कोई और
चतुर और समझदार नेता जानते हैं कि उनका समय सीमित है और सत्ता क्षणभंगुर है. उनसे भी चतुर नेताओं में एक और गुण होता है. वे ऐसा कुछ शुरू नहीं करते जिसे अपने कार्यकाल में अंजाम तक पहुंचाना मुमकिन न हो.
-
Total Shares
चतुर और समझदार नेता जानते हैं कि उनका समय सीमित है और सत्ता क्षणभंगुर है. उनसे भी चतुर नेताओं में एक और गुण होता है. वे ऐसा कुछ शुरू करने से कतई नहीं घबराते, जिसे वे जानते हैं कि अपने कार्यकाल में अंजाम तक पहुंचाना मुमकिन नहीं होगा.
यह बेहद तेज रफ्तार से दौड़ते बेचैन दौर में बड़ी पेचीदा पैमाइश है. लेकिन सरकारी कामकाज ऐसे दौर में भी बड़े धीरज का काम है, जब बड़े लोकतंत्रों के नेता अपनी जनता और विरोधियों से सोशल मीडिया के जरिए संवाद कायम करते हैं, जब मलेशिया के प्रधानमंत्री दुनिया को यह आश्वस्त करने के लिए 400 शब्दों का नोट लिखते हैं कि फ्रांस के रीयूनियन आइलैंड में पाया गया मलबा यकीनन 515 दिन पहले लापता हुए एमएच 370 विमान का ही है; या जब ओबामा नासा के स्पेस स्टेशन के एस्ट्रोनॉट्स को ट्विटर पर संदेश देकर अमेरिका के लोगों में नई दीवानगी पैदा करने की कोशिश करते हैं, जब नरेंद्र मोदी पिछले सोमवार को शाम 6.30 बजे एक महत्वपूर्ण फैसले की जानकारी देने के लिए बमुश्किल 100 शब्दों का संवाद भेजकर देश के लोगों को इंतजार करने पर मजबूर करते हैं.
अगर आप चाहें या अधिक सटीक शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि यह बदलाव की रफ्तार है. आप गंभीर बीबीसी एंकर निक गोइंग के शब्दों को उधार लेकर उसे वास्तविक समय का अत्याचार कह सकते हैं. लेकिन इसमें असाधारण राजनैतिक परिपक्वता का प्रदर्शन करना पड़ता है और चतुर नेता संस्थागत निरंतरता को बरकरार रखते हैं. या आपमें इतना आत्मविश्वास हो कि ऐसी परियोजनाएं शुरू करें जिन्हें मुकाम तक पहुंचाना आपके दौर में संभव न हो या ऐसी परियोजना को मुकाम पर पहुंचाएं जिसे किसी और ने शुरू किया था और मुकाम तक पहुंचने के पहले विदा हो गया था, मगर अपने उत्तराधिकारी, चाहे वह विरोधी ही क्यों न हो, को जिम्मा थमा गया था. निरंतरता पर बहस का यह सही हफ्ता है क्योंकि मोदी की 'महत्वपूर्ण घोषणा' थुइगलांग मुइवा और इसाक चिसी स्वू के नेतृत्व वाली नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के साथ समझौते के बाकी मुद्दे को निबटाने से संबंधित थी. चीन में प्रशिक्षण पाए पूर्वोत्तर के सबसे महत्वपूर्ण आदिवासी बागी गुट के साथ शांति प्रक्रिया की शुरुआत 1995 में पी.वी. नरसिंह राव ने की थी, जो एक अल्पसंख्यक सरकार चला रहे थे. यह देवेगौड़ा-गुजराल की सरकारों के अल्प दौर में जारी रही, एनडीए के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसमें नई ऊर्जा भरी और करीब एक दशक तक यूपीए के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे करीने से आगे बढ़ाया. आज मोदी ने इस काम को उसके अंजाम तक पहुंचाया है. अब जरा इसे इस तरीके से देखिए. यह प्रक्रिया 20 साल तक जारी रही और इस बीच एनएससीएन ने सरकारों के बदलने के कारण छह प्रधानमंत्रियों से बातचीत की. लेकिन हम यह गर्व से कह सकते हैं कि वे भारतीय प्रतिष्ठान से ही लगातार बातचीत कर रहे थे. वजह यह है कि लोकतंत्र में सरकारें तो आती-जाती रहती हैं, लेकिन संवैधानिक राज्य की सत्ता बेरोकटोक जारी रहती है.
नगा समझौते के साथ जो हुआ, कांग्रेस ने अपने आइडिया और पहल का श्रेय लेने के लिए मोदी सरकार का मखौल उड़ाया. इसमें नगा समझौते के अलावा बांग्लादेश से भूमि सीमा समझौता, परमाणु करार को आगे बढ़ाने के लिए परमाणु जवाबदेही कानून को ढीला करना, आधार पर शीर्षासन करना और इसे नकद हस्तांतरण योजना में लागू करना शामिल है. यही नहीं, पहले एलपीजी सब्सिडी में और फिर स्वाभाविक रूप से खुदरा बाजार में एफडीआइ आमंत्रित करने की अधिसूचना, बीमा क्षेत्र में 49 प्रतिशत एफडीआइ की मंजूरी के कानून वगैरह को आगे बढ़ाया. यह सही है कि ये सभी विचार यूपीए के दौर में ही सामने आए और उसी ने इसमें पहल की.
लेकिन कुछ शर्तों के साथ इसे देखिए. एक तो यूपीए सरकार ने पूरे 10 साल राज किया. उसके पास नए विचारों को आगे बढ़ाने के लिए जनादेश और वक्त, दोनों ही था. सच कहें तो उसके पास इन्हें अमल में लाने का पूरा वक्त था लेकिन वह सोनिया गांधी की अगुआई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के दबाव में भटक गई (एनएसी आधार, नकद हस्तांतरण, खुदरा बाजार में एफडीआइ वगैरह के प्रति सशंकित थी). फिर घोटालों के सत्र और 2011 में अण्णा हजारे के राष्ट्रीय मंच पर अवतरण के साथ ही यूपीए सरकार अपनी राजनैतिक पूंजी गंवा बैठी. अब उसे अपने विचारों को मोदी पर चुराने का आरोप लगाने के बदले खुश होना चाहिए कि वे उन्हें शिद्दत से आगे बढ़ा रहे हैं. कम परिपक्व लोकतंत्र में किसी उत्तराधिकारी को यह लालच हो सकता था कि वह अपने पूर्ववर्ती की शुरू की गई सभी योजनाओं को बट्टे खाते में डाल दे. लेकिन यहां तो उलटा हो रहा है. यह कोई नई या अनोखी बात नहीं है. हमारे ज्यादातर राष्ट्रीय नेताओं ने ऐसी ही व्यावहारिकता का परिचय दिया है. यह बात अलग है कि मौजूदा प्रधानमंत्री श्रेय लेने में कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखा रहे हैं.
मोदी ने यूपीए की बेहतर बौद्धिक ऊर्जा को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने की अच्छी समझदारी दिखाई है. यही नहीं, उन्होंने एक और काबिलियत दिखाई है जिसका यूपीए में नितांत अभाव था, यानी नए क्रांतिकारी विचारों के लिए जनमत जुटाने की क्षमता. उन्होंने एलपीजी नकद हस्तांतरण को गरीब समर्थक सुधार बताकर लोगों के सामने रखा और व्यक्तिगत रूप से 'गिव इट अप' (सब्सिडी लेना बंद करो) अभियान को इस कदर प्रोत्साहित किया कि लगे कि गरीब की सब्सिडी चुराना धनी लोगों के लिए बेहद गलत है. उन्होंने ओबामा के साथ साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में परमाणु करार को भारत-अमेरिका के नए रिश्ते का केंद्रबिंदु बताया (और इसे भारत के लोगों के लिए अच्छा बताया). फिर, बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा समझौते को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया और अब प्रधानमंत्री निवास, 7 आरसीआर में नगा समझौते जैसी बड़ी राष्ट्रीय घटना को अंजाम दिया. कांग्रेस की शिकायत है कि मोदी उसके विचारों की ही सवारी कर रहे हैं. लेकिन जरा सोचिए, कोई छोटा देश होता तो वे इन सबको किनारे कर चुके होते. और अगर यूपीए सरकार अधिक भरोसे वाली होती या उसके राजनैतिक मैनेजर बेहतर होते तो वह इस पूरे मामले को अधूरा छोड़कर नहीं जाती.
अब हम इस नुक्ताचीनी को जरा परे रख दें, क्योंकि यह हफ्ता खबरों से भरापूरा रहा है और अच्छी दलीलें उभरकर सामने आई हैं. देशों की नियति को तय करने में संस्थागत निरंतरता बेहद जरूरी है. इस हफ्ते देखा गया कि जब हमारी राजनीति बेहद सख्त ध्रुवीकरण के दौर से गुजर रही है, संसद में कामकाज ठप है और राजनैतिक कटुता हवा में तैर रही है, ऐसे दौर में भी हमने अच्छे विचारों को इसलिए दफन नहीं किया क्योंकि वे किसी और के थे.
आप ऐसी कई किताबें लिख सकते हैं कि भारतीय नेताओं ने अपने देश को नीतिगत स्थायित्व प्रदान किया, कई बार तो इसके लिए अपने संकीर्ण मगर महत्वपूर्ण हितों का भी बलिदान किया और तात्कालिक तौर पर ही सही, अपने राजनैतिक स्वार्थ को छोड़कर यू-टर्न करने का आरोप झेला. मेरा पसंदीदा उदाहरण यह है कि कैसे पी.वी. नरसिंह राव ने परमाणु परीक्षण के लिए जरूरी सभी तैयारी पूरी कर ली थी मगर उन्हें एहसास हुआ कि उनके पास इसके लिए राजनैतिक पूंजी नहीं है और न ही भारत के पास उसके नतीजे झेलने के लिए आर्थिक तथा राजनैतिक ताकत है. हालांकि अगर वे इस समझदारी के बदले अपने राजनैतिक स्वार्थ के लालच में पड़ते तो शायद 1996 के चुनाव में उन्हें इसका भारी लाभ मिल जाता. इसका जिक्र बाद में कई संदर्भों में होता रहा है. खासकर प्रतिष्ठित परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदर के मेरे साथ एक साक्षात्कार में हाल ही में यह खुलासा हुआ.
यह पूरी तरह स्थापित तथ्य है कि राव ने वाजपेयी से बाद में कहा था कि वे सत्ता में आएंगे तो उनके लिए सारी ''सामग्री'' तैयार है. 1998 की गर्मियों में वाजपेयी इस नतीजे पर पहुंचे कि भारत के पास पर्याप्त आर्थिक और कूटनीतिक ताकत है और उन्होंने उस काम को अंजाम तक पहुंचा दिया. जैसा कि मोदी ने अब अपने पूर्ववर्तियों के कई विचारों को आगे बढ़ाया जिसका ताजा उदाहरण नगा समझौता है. इसी वजह से यह हफ्ता वाकई सराहने योग्य है.
पुनश्चः 1984 में पहले और अब तक के एकमात्र भारतीय अंतरिक्ष मिशन पर गए, भले ही सोवियत अंतरिक्ष मिशन के साथ. इंदिरा गांधी ने उस मौके को उनसे फोन पर बात करके अमर कर दिया, जिसका टीवी पर सीधा प्रसारण हुआ. उन्होंने पूछा कि स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा अंतरिक्ष यान से भारत कैसा दिखता है. शर्मा भी पूरी हाजिरजवाबी से बोले, सारे जहां से अच्छा. उन्होंने इकबाल की उस पंक्ति का सहारा लिया था जो हर भारतीय की जुबान पर रहती है.
वक्त बदल गया है और संवाद तथा संप्रेषण के साधन भी. इसलिए राष्ट्रपति ओबामा दो ट्विटर हैंडल रखते हैं और नासा के स्पेस स्टेशन से पिक्चर पोस्ट करते हैं और लिखते हैं, ''हे, स्टेशन सीडीआर केली, फोटो में दिख रहे हैं, आपने कभी खिड़की से झांककर देखा है?'' एस्ट्रोनॉट केली अपने जवाब में शर्मा से कुछ ज्यादा औपचारिक थे लेकिन उन्होंने लाखों लोगों का दिल जीत लिया, ''मैं और कुछ झांककर नहीं देखता राष्ट्रपति जी. आपके ट्विटर के सवाल के अलावा.''
इससे पता चलता है कि आधुनिक और चतुर नेताओं के हाथ में अपनी छवि बनाने और संवाद कायम करने का तकनीकी का कैसा औजार हाथ लग गया है. बेशक, ओबामा ने अपने ट्विटर हैंडल का इस्तेमाल ईरान के साथ समझौते को लोकप्रिय बनाने और अमेरिकी कांग्रेस पर उसे मंजूरी देने का दबाव बनाने के लिए किया.
आपकी राय