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Updated: 07 अप्रिल, 2019 11:45 AM
माजिद हैदरी
माजिद हैदरी
  @majid.hyderi
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लोकसभा चुनाव 2019 का चुनावी बुखार भारत में सिर चढ़कर बोल रहा है. चुनावों के सीजन में कुछ खास ताने हैं जो हर पार्टी के लिए तय हैं. इनमें से एक है कांग्रेस और वंशवाद का ताना. भारत की सबसे पुरानी पार्टी के नेहरू-गांधी परिवार को हमेशा ही वंशवाद के लिए गुनहगार माना जाता है. पर क्या वाकई ये परिवार सत्ता की चाहत में लिप्त है?

एक सच्चाई जान लीजिए, अगर सोनिया गांधी चाहतीं तो वो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बाद वो देश की प्रधानमंत्री बन सकती थीं और उन्हें कोई रोक भी नहीं पाता. न सिर्फ सोनिया गांधी ने राजीव गंधी की कुर्सी पा ली होती बल्कि देश की तीसरी सबसे लंबे समय तक कुर्सी पर बनी रहने वाली प्रधानमंत्री बन जातीं. इसके पहले जवाहरलाल नेहरू (17 साल) और इंदिरा गांधी (14 साल) के लिए प्रधानमंत्री रह चुकी हैं. उसके बाद सोनिया गांधी 10 साल के लिए प्रधानमंत्री बन सकती थीं.

बहुत आसानी से 10 साल के लिए सत्ता का मज़ा ले सकती थीं. नेहरू-गांधी परिवार के ही तीन पीएम सबसे लंबे समय के लिए भारत की भलाई के लिए काम कर सकते थे. जो लोग नेहरू-गांधी परिवार पर इल्जाम लगाते हैं क्या उन्हें नहीं पता कि जो तीन पीएम उस परिवार से आए थे उनमें से दो की हत्या कर दी गई थी और उन्होंने अपनी जान देश के लिए दी थी.

सोनिया गांधी के पास तीन मौके थे पीएम बनने के और चाहें जितना भी विरोध हुआ हो वो आसानी से पीएम बन सकती थीं.सोनिया गांधी के पास तीन मौके थे पीएम बनने के और चाहें जितना भी विरोध हुआ हो वो आसानी से पीएम बन सकती थीं.

इंदिरा गांधी की हत्या 1984 में हुई थी जब उन्हें अपने ही घर में मार डाला गया था. उन्हें मारने वाले भी उनके ही अपने गार्ड्स थे जिन्होंने 31 गोलियां इंदिरा गांधी पर चलाई थीं. फिर राजीव गांधी को भी 1991 में सुसाइड बॉम्बिंग के जरिए मार डाला गया था. दोनों ही नेता भारत के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे.

उसके बाद से लेकर अभी तक सोनिया गांधी के पास तीन मौके आए हैं ऐसे जिनमें वो प्रधानमंत्री बन सकती थीं. सोनिया गांधी और उनके बच्चे राहुल और प्रियंका गांधी तीनों ने ही इन मौकों को नहीं अपनाया.

1991 में जब तमिलनाडु में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी को मारा गया था तब दूसरे राउंड की पोलिंग चल रही थी. तब भले ही बहुमत से नहीं, लेकिन कांग्रेस पार्टी सत्ता में आ गई थी. उस समय सोनिया गांधी ने राजनीति में आने से मना कर दिया और उस वक्त स्वर्गीय पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने थे.

इसके पांच साल बाद राव सरकार 1996 में सत्ता से बाहर हो गई. उस वक्त कांग्रेस पार्टी को इसी परिवार की जरूरत थी. तब सोनिया गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के कहने पर राजनीति में कदम रखा. 1997 में सोनिया गांधी ने कांग्रेस से जुड़ने का फैसला लिया था और उनकी मौजूदगी ने ही पार्टी को नई दिशा दी थी. एक साल के अंदर ही उन्हें पार्टी की चीफ बना दिया गया था. और यही समय था जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी को जीवनदान दिया था.

2004 में वो सोनिया गांधी ही थीं जिनकी अगुवाई में कांग्रेस पार्टी ने सरकार बनाई थी और सोनिया गांधी ही थीं जिनकी वजह से केंद्र और लेफ्ट पार्टियों का गठबंधन हो सका था.

सोनिया गांधी को ही UPA (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव आलियांस) बनाने का श्रेय दिया जा सकता है. उन्होंने इसके लिए काफी मेहनत की थी. 2009 में एक बार फिर सोनिया गांधी के पास पीएम बनने का मौका था और यूपीए की सरकार ही आई थी.

पर कांग्रेस चीफ और यूपीए अध्यक्ष होने के बाद भी सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को चुना जो न तो नेहरू-गांधी परिवार से थे और न ही वो उनके धर्म के थे. सोनिया गांधी 1991, 2004, 2009 तीनों बार प्रधानमंत्री बन सकती थीं, लेकिन बनी नहीं.

अब लोग कहेंगे कि उनके रास्ते में कई सारी रुकावटें थीं और इसलिए वो पीएम नहीं बन पाईं तो एक बार इसके बारे में भी बात कर लेनी चाहिए.

राइट विंग पार्टियों ने सोनिया गांधी के पीएम बनने पर विरोध जताया था. भाजपा और उसकी सहियोगी पार्टियों ने इसे ही एक मुद्दा बना लिया था. भाजपा के अनुसार उनकी कोशिशों के कारण ही एक विदेशी मूल की महिला भारत की पीएम नहीं बन पाईं.

ये वो समय था जब सुषमा स्वराज ने कहा था कि अगर सोनिया गांधी पीएम बन गईं तो वो अपना सिर मुंडवा कर विरोध दर्ज करवाएंगी. यहां तक कि सुब्रमण्यम स्वामी ने तो राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर ये भी कहा था कि सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाना असंवैधानिक होगा क्योंकि वो विदेशी मूल की हैं.

कलाम की कलम से सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री की कुर्सी-

ये सारे दावे अपनी जगह हैं, लेकिन उस समय राष्ट्रपति रहे स्वर्गीय एपीजे अब्दुल कलाम के अनुसार इस तरह की धमकियां जहां उस समय आम थीं वहीं ये तथ्य भी सामने था कि अगर सोनिया गांधी चाहतीं तो वो प्रधानमंत्री बन सकती थीं. कलाम ने अपनी किताब Turning Points: A Journey Through Challenges में इस बारे में लिखा था.

कलाम के अनुसार राष्ट्रपति भवन ने एक लेटर भी तैयार कर लिया था जिसमें सोनिया गांधी को पीएम बनाए जाए की बात थी, लेकिन सोनिया गांधी के मना करने पर ये लेटर दोबारा मनमोहन सिंह के नाम पर लिखा गया. कलाम साहब ने ये साफ कर दिया था कि अगर उस समय सोनिया गांधी अपनी दावेदारी पेश करतीं तो उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता और सोनिया गांधी को पीएम बनाया जाता.

उस समय कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ मीटिंग के समय सोनिया गांधी ने कहा था कि उन्होंने अपने दिल की आवाज़ सुनी और पीएम न बनने की ठानी.

जहां सोनिया गांधी के पीएम न बनने की कहानी पूरी दुनिया जानती है वहीं जिसे पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है वो हैं राहुल गांधी. राहुल गांधी दोनों बार यूपीए सरकार की सत्ता के समय सांसद रहे थे और उनके लिए आराम से पीएम बनने का मौका था. कम से कम 2009 में तो था ही. उस समय राजीव गांधी के पीएम बनने के समय की तरह राहुल गांधी भी पार्टी के जनरल सेक्रेटरी थे.

पर नेहरू-गांधी परिवार ने एक बार फिर अल्पसंख्यक समुदाय के एक व्यक्ति को पीएम बनाया. दोबारा 2009 में भी मनमोहन सिंह पीएम बने. मेरे हिसाब से ये पार्टी और देश दोनों के भविष्य के लिए किया गया था.

जहां सोनिया गांधी के नेतृत्व ने कांग्रेस को दो बार सत्ता में आने का मौका दिया वहीं उनके बेटे ने कांग्रेस का पीएम बनने के बाद अपनी जीत का परचम फैराना शुरू कर दिया है. मोदी लहर को मात देते हुए कांग्रेस ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव जीत लिए जो हिंदी भाषी प्रदेश थे और यहां भाजपा की ही सरकारें थीं.

भले ही राहुल गांधी के विरोधियों के लिए वो अभी भी पप्पू हों, लेकिन मेरे हिसाब से 'पप्पू पास हो गया.' आखिरकार राहुल गांधी के चौकीदार वाले मज़ाक ने भाजपा के दिमाग में इतना असर डाला कि कई भाजपाइयों ने अपने नाम के आगे चौकीदार जोड़ लिया.

इतना ही नहीं हमारे पास प्रियंका गांधी भी हैं जो लगातार अपनी मां सोनिया और अपने भाई राहुल गांधी के संसद क्षेत्रों अमेठी और राय बरेली में रैलियां करती हैं. वो पहले से ही एक लोकप्रिय चेहरा हैं और अब आधिकारिक रूप से राजनीति में आ चुकी हैं. उनके आने से पार्टी को बल ही मिलेगा.

ये तो साफ है कि नेहरू-गांधी परिवार की बहू सोनिया गांधी और उनके दोनों बच्चे जिनके सिर पर से बहुत जल्दी ही पिता का साया हट गया था वो अब परिपक्व हो चुके हैं. जिस परिवार की तीन पीढ़ियां आतंकवाद का शिकार हुई हैं उस परिवार को वंशवाद का ताना देना न सिर्फ उन्हें बेइज्जत करना है बल्कि उनके बलिदानों को नजरअंदाज करना भी है.

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लेखक

माजिद हैदरी माजिद हैदरी @majid.hyderi

लेखक कश्‍मीर में पत्रकार हैं.

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