एक आदत है लाशों पर सियासत लेकिन ये जरूरी भी है
राजनीति सभी पार्टियां करती हैं बस मतलब इससे है कि मौत का हिसाब किसके खिलाफ जाता है और मौत का फायदा किसे मिलता है...
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बीजेपी हो, कांग्रेस या फिर आम आदमी पार्टी. हर किसी ने समय-समय पर लाशों पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकी हैं. राजनीति ये सभी पार्टियां करती हैं बस मतलब इससे है कि मौत का हिसाब किसके खिलाफ जाता है. अगर किसी ने बीजेपी के शासन के दौरान आत्महत्या की है तो कांग्रेस और आप का इस पर राजनीति करना तो बनता ही है. ठीक इसी तरह अगर कांग्रेस या आम पार्टी के शासन में किसी ने आत्महत्या की है तो बीजेपी इसे अपना राजनीतिक अधिकार समझती है.
मगर सच यही है कि राजनीति करने वालों की मंशा सच्ची हो या झुठी, मौत जरूर असली होती है. मगर इसे कोई बंद नहीं कर सकता. राजनीति शुरू होती है एक टीवी इंटरव्यू से और खत्म होती है सोशल मीडिया पर ट्वीट से. राजनीति ऐसी होती है कि ये नेता किसी भी माध्यम को नहीं छोड़ना चाहते. अखबार,टीवी, या फिर सोशल मीडिया हर तरफ ये लोग राजनीति ही करते दिखाई पड़ते हैं.
2 नवंबर 2016 को हरियाणा के रहने वाले एक पूर्व सैनिक रामकिशन ग्रेवाल ने आत्महत्या कर ली. जिसके बाद सबसे पहले दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया उनके परिवार से मिलने पहुंचे, मगर उन्हें हिरासत में ले लिया गया और 8 घंटे बाद उन्हें छोड़ा गया. ऐसे ही राहुल गांधी भी पहुंचे मगर उन्हें भी हिरासत में लिया गया . इसके बाद इसी तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री को भी हिरासत में ले लिया गया. समझ में ये बात नही आई कि आखिर क्यों पुलिस ने इन नेताओं को सैनिक के परिवार से मिलने नहीं दिया गया.
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चलिये मान लिया कि भीड़ के कारण अस्पताल में नेताओं को जाने नहीं दिया गया. मगर जिन्होंने आत्महत्या की है उनके ही बाप और बेटे को पुलिस ने हिरासत में ले लिया. ये बात तो समझ में ही नहीं आई.
इसे केजरीवाल और राहुल गांधी की ओर से मत देखिये. बात दिल्ली के मुख्यमंत्री की है. अगर दिल्ली में कोई आत्महत्या करता है तो मुख्यमंत्री का फर्ज बनता है कि उनके परिवार से मिले. अगर पुलिस दिल्ली के मुख्यमंत्री के साथ ऐसा कर सकती है वो भी सारे देश के मीडिया के सामने तो सोचिये कि एक आम नागरिक के साथ दिल्ली पुलिस क्या करेगी? ना कोई मीडिया, ना कोई नेता देखने वाला है. इसलिये पुलिस के इस रवैये को आपने गंभीरता से लेना चाहीये.
किसी की मौत पर राजनीतिक लाभ का सब हुनर आता है |
बहरहाल, बात सियासत की हो रही है. तो सबसे पहले बात करते हैं शहीद हेमराज से. जब हेमराज की मौत हुई तो बीजेपी के कई नेता उनके घर पहुंचे. घर पहुंचे, उनके परिवार से मिले कोई समस्या नहीं थी. मगर वहां जाकर कहा कि सरकार कुछ नहीं कर रही है. हमारे जवान शहीद हो रहे हैं. हमारी सरकार अगर आयेगी तो हम एक सिर के बदले 10 सिर ले आएंगे. ये बोल थे आज कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के.
इसके बाद जब दादरी कांड हुआ . गाय का मांस खाने के कारण अखलाक कि हत्या हुई. इसके बाद तो जैसे राजनीति करने वालों की लाइन सी लग गई. एक प्रतिस्पर्धा शुरु हो गई , कि कौन कितनी राजनीति करता है. AIMIM के नेता असदुद्दीन ओवैसी, कांग्रेस के राहुल गांधी, बीजेपी से महेश शर्मा और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल. हर कोई दादरी गया और इसे शर्मनाक बताया. इसके बाद कईयों ने तो अपने अवॉर्ड लौटा दिए . अखिलेश सरकार ने लाखों रुपये का मुआवजा दिया गया.
एक समय जब भूमि अधिग्रहण बिल पर सियासत ज़ोरो पर थी. जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी ने एक रैली का आह्वान किया था . तब ही राजस्थान के रहने वाले एक किसान गजेंद्र सिंह ने सबके सामने पेड़ पर फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली . इसके बाद बीजेपी और कांग्रेस ने जो राजनीति की उसे तो सारे देश ने देखा. आज तक चैनल की एक बहस में तो आप नेता आशुतोष फूट-फूट कर रोए. प्रधानमंत्री ने भी ट्वीट कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की वो बात अलग है कि इस पूर्व सैनिक की आत्महत्या के बाद अभी तक प्रधानमंत्री का कोई ट्वीट नहीं आया है.
Gajendra’s death has saddened the Nation. We are all deeply shattered & disappointed. Condolences to his family.
— Narendra Modi (@narendramodi) April 22, 2015
जब उरी हमला हुआ हमारे 19 जवान शहीद हो गए. विपक्ष ने इस पर भी खूब राजनीति कि. कहा कि पहले इतना कहते थे कि एक सिर के बदले 10 सिर लाऐंगे, अब क्या हुआ? इसके बाद सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक किया . 40 आतंकियों को मार गिराया. इसके बाद बीजेपी ने यूपी में पोस्टर तक लगवा दिए कि प्रधानमंत्री ने लिया पाकिस्तान से बदला. फिर राहुल गांधी पिछड़े तो उन्होंने कहा कि मोदी सरकार खून कि दलाली कर रही है . उधर केजरीवाल ने सर्जीकल स्ट्राइक का सबुत तक मांग लिया.
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आज बीजेपी का पक्ष कमज़ोर पड़ रहा है. क्योंकि OROP से ना खुश होकर पूर्व सैनिक ने आत्महत्या कि है . जिस पर बीजेपी जवाब नहीं दे पा रही है और मौके की नज़ाकत को देखते हुए आम आदमी पार्टी और कांग्रेस आज सैनिकों के सबसे बड़े शुभचिंतक के रुप में उभर कर सामने आ रहे हैं . वो बात अलग है कि OROP का मामला 1973 से अटका हुआ था और कांग्रेस कुछ नहीं कर पाई थी.
खैर, लाशों की ये सियासत भले ही फूहड़ लगे, लेकिन इसी बहाने में नेताओं और पार्टियों की कलई खुलती रहती है. कुछ फैसलों हो सकें, यदि इसका दबाव इस सियासत से होता है. तो इसे बर्दाश्त कर लेना चाहिए.
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