पीकू वाले मोशन और इमोशन का मिक्श्चर है लालू की सियासत
25 साल में शायद कुछ भी नहीं बदला. लालू की राजनीति अब भी उसी मोड़ पर नजर आती है जहां वो सत्ता की पहली सीढ़ी चढ़े - और फिर चीफ मिनिस्टर की कुर्सी पर.
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25 साल में शायद कुछ भी नहीं बदला. लालू की राजनीति अब भी उसी मोड़ पर नजर आती है जहां वो सत्ता की पहली सीढ़ी चढ़े - और फिर चीफ मिनिस्टर की कुर्सी पर.
लालू के पुराने साथी और अब बीजेपी की ओर से बिहार के मोर्चे पर डटे राम कृपाल यादव कहते हैं, "वो अब भी अपनी बिरादरी के नौजवानों को गाय-भैंस चराने और लाठी रखने की सलाह दे रहे हैं, जबकि वो खुद भैंस से प्लेन पर पहुंच चुके हैं."
और राघोपुर की सभा में लालू ने राम कृपाल की बात पर मुहर भी लगा दी, "यदुवंशियों सावधान, बीजेपी वाला आपको बेवकूफ समझता है, उनको लगता है आपका वोट बंट जाएगा. लालू को जब भैंस कमजोर नहीं कर सका तो और कौन कर लेगा."
कुछ भी तो नहीं बदला
पटना की स्वाभिमान रैली से बहुत पहले की बात है. तब जब, सोनिया गांधी ने लालू के साथ मंच नहीं शेयर किया था. जब, मुलायम ने भी इतनी दूरी नहीं बनाई थी.
तब तक जनता परिवार की भी सांसें चल रही थीं. तब तक महागठबंधन खड़े होकर चलने की राह देख रहा था.
तभी एक दिन. लालू प्रसाद ने मंडल और कमंडल की लड़ाई छेड़ने का एलान किया. लालू ने बिहार बंद की कॉल दी. गांधी प्रतिमा के पास धरना दिया. दिन भर का उपवास रखा. ताकि जातीय जनगणना के आंकड़ें जारी किए जाएं. लालू ने एक बार फिर मंडल और कमंडल की लड़ाई छेड़ रखी है. और जब बेटे के लिए वोट मांगने राघोपुर पहुंचे तो चुनाव को बैकवर्ड और फॉरवर्ड के बीच की जंग करार दिया. वही राघोपुर जहां से लालू और राबड़ी देवी चुनाव जीत चुके हैं - और पिछली बार राबड़ी को हार का मुंह देखना पड़ा था. लालू बोलते रहे और लोग तालियां बजाते रहे. तालियों का वोटों में तब्दील होना अभी बाकी है.
ओह, ये पीकू पॉलिटिक्स!
मंडल और कमंडल की चाल में धुआं तो उठ रहा था, फिर भी आग सुलग नहीं पा रही थी. फिर एक दिन आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के मन में न जाने क्या आइडिया आया और उसमें उन्होंने घी की आहुति दे दी. जैसे ही भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात चलाई लालू आपे से बाहर हो गए. चाहे फांसी पर चढ़ा दो, चाहे गोली मार दो!
बीजेपी को भी लगा रॉन्ग नंबर डायल हो गया - आनन फानन में भागवत के बयान से पल्ला झाड़ लिया. सफाई पर सफाई आने लगी. एकबारगी तो स्वच्छता अभियान से भी ज्यादा सक्रियता दिखी.
क्या मौजूदा राजनीतिक का एक हिस्सा शूजीत सरकार की फिल्म पीकू के किरदारों जैसी हो गई है?
भाष्कोर बनर्जी के किरदार में अमिताभ बच्चन कहते हैं, "इंसान का इमोशन उसका मोशन के साथ जुड़ा है."
क्या रिजर्वेशन और कॉन्स्टिपेशन में भी कोई संबंध हो सकता है?
क्या रिजर्वेशन भारतीय राजनीति में कॉन्स्टिपेशन की तरह जगह बना चुका है?
शायद लालू और भागवत दोनों रिजर्वेशन को कॉन्स्टिपेशन की तरह देखते हैं. बीजेपी और आरएसएस दोनों ने तो इससे किनारा कर लिया है, लेकिन लालू डटे हुए हैं. और इसको लेकर हाजीपुर में दर्ज एफआईआर का भी सामना कर रहे हैं.
लोक सभा चुनाव में चुनाव आयोग ने जातीय सम्मेलनों पर पूरी तरह रोक लगा दी थी. इस बार भी आयोग ने जातीय राजनीति को लेकर सख्त हिदायत दे रखी है. हालांकि, तमाम जातीय सम्मेलन चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही निपटा लिए गए हैं.
जाति का मामला पूरी तरह इमोशन से जुड़ा है, ये बात हर राजनीतिक दल जानता है और उसी आधार पर उम्मीदवार भी मैदान में उतारे जाते हैं. वैसे लालू ही क्या हर नेता जानता है कि जातीय आधार पर नेता और वोटर के बीच जो बॉन्ड बनता है उसका किसी और फैक्टर से मुकाबला नहीं है. लालू मान कर चल रहे हैं कि रिजर्वेशन भी उनके मतदाताओं के इमोशन से जुड़ा है. शायद इसीलिए लालू को न तो एफआईआर की परवाह है न किसी और हिदायत की.
रिश्तेदारी और राजनीति
लालू और मुलायम सिंह यादव में भी एक इमोशनल रिश्ता बन चुका है - रिश्तेदारी का. लेकिन दोनों की राजनीति में इमोशन कोई फैक्टर नहीं बनता. यही वजह है कि मुलायम के पौत्र और लालू के दामाद तेज प्रताप ससुर के खिलाफ हल्ला बोलने के लिए उतावले हैं.
यानी किसी रैली में तेज प्रताप ससुर लालू प्रसाद के खिलाफ सियासी जहर उगलते देखे जा सकते हैं तो कहीं लालू के दोनों बेटे जीजा के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए देखे जा सकते हैं. सियासत की जंग में जीजा-साले और दामाद-ससुर के बीच इमोशन आड़े नहीं आता.
आखिर क्या वजह है कि वोट देने वालों से इमोशन के जरिए खुद को जोड़ लेने वाले नेता आपस में नहीं जुड़ पाते?
तो क्या रिजर्वेशन राजनीति का वो मोशन बन चुका है जो इमोशन से जुड़ा है? सियासत और सत्ता के खेल में यही तो एक प्रोफेशनल पक्ष है - जो हर दौर में देखा जा सकता है. बात अभी की हो, या 25 साल पहले की - शायद उससे कई सौ साल पहले की भी.
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