कहीं महंगी न पड़ जाए सेना और सैनिकों पर राजनीति
सर्जिकल स्ट्राइक पर की जा रही बहस तथ्यात्मक कम, राजनीतिक ज्यादा है, लिहाजा कुछ लंबा खिंचने की आशंका है, और ऐसे में भी जब उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव सामने दिख रहा हो
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सेना ने सीमा पार जाकर कार्रवाई क्या की, बवाल शुरु हो गया और वह अनवरत जारी है. विवाद की कोई वजह नहीं थी, सेना की तरफ से कोई ऐसी बात भी नहीं कही गई थी, जो उसके दायरे या क्षमता के बाहर हो. विवाद भी ऐसे मुद्दे पर शुरू किया गया, जो सीमा पार से कही या सुनाई जा रही थी. पर, बहस घूमती हुई उस मोड़ पर पहुंची है कि जहां तुलना इस बात की होने लगी है कि मेरी कार्रवाई तुमसे ज्यादा बेहतर है. चूंकि यह बहस तथ्यात्मक कम, राजनीतिक ज्यादा है, लिहाजा कुछ लंबा खिंचने की आशंका है, और ऐसे में भी जब उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव सामने दिख रहा हो.
सर्जिकल स्ट्राइक पर राजनीति |
पाकिस्तान यूं भी इस देश में राजनीतिक कम, भावनात्मक मुद्दा ज्यादा रहा है और ये भावनाएं सीमाओं पर होने वाली हलचल या घटनाओं तक सीमित नहीं रहती, खेल, कला-संस्कृति सभी क्षेत्रों से जुड़ी हुई हैं. हलचल एक जगह होती है और असर हर जगह दिखता है. पीओके में भारतीय सेना की कार्रवाई का सबूत मांगने वाले तो फिलहाल खामोश हो गए हैं, अब विवाद इस बात को लेकर ज्यादा है कि सेना ने जो कुछ भी किया, क्या वह पहली बार हुआ, पहले हुआ तो कब हुआ, जनता और सेना के अन्य अंगों से जानकारी कोई छिपाई गई, खामोश रहने के पीछे सोच क्या थी वगैरह-वगैरह. विवाद कांग्रेस और बीजेपी के बीच है और मामला राजनीतिक ज्यादा है और वजह भी साफ है. कांग्रेस को कहीं न कहीं भय सता रहा है कि बीजेपी को इस कार्रवाई का लाभ मिल सकता है. प्रधानमंत्री मोदी फिलहाल भले ही खामोश हैं, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव आएंगे, माहौल बनेगा, मुद्दा उठेगा, तो प्रधानमंत्री खामोश नहीं रहने वाले.
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कांग्रेस का दावा है, जो कुछ मायनों में उसका दर्द भी है, कि सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए बीजेपी और सरकार सेना का इस्तेमाल कर रही है. अव्वल तो यह कि जिस माहौल में इस कार्रवाई को अंजाम दिया गया, ऐसे में बीजेपी की जगह अगर कोई भी पार्टी सत्ता में रहती तो हक से इस घटना का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करती. यह वही विपक्ष और कांग्रेस थी, जो ऊरी की घटना के बाद सरकार और उसके मुखिया मोदी से सवाल पूछ रही थी. मोदी के 56 इंच के सीने की दुहाई देकर कार्रवाई की मांग की जा रही थी. ऐसे राजनीतिक माहौल में रक्षा मंत्री परिकर की चिंता स्वाभाविक थी, जब उन्होंने कहा कि अगर सेना की कार्रवाई में कुछ भी ऊपर-नीचे हो जाता, तो छीछालेदर भी सरकार की होती, सेना की नहीं. सवाल सरकार के फैसले को लेकर दागे जाते. राजनीति में ऐसा संभव नहीं हो सकता कि अपयश तो सरकार झेले और यश की स्थिती में वह खामोश रहे. आखिर कांग्रेस आज तक 1962, 1971 को याद करती है, जिसमें कोई बुराई भी नहीं है.
कांग्रेस को बताना चाहिए कि जिस "आपरेशन जिंजर" या "ऑपरेशन बदला" की याद अब आ रही है, उसका अहसास देश को उस वक्त कराने के किसने रोका था. उस चुप्पी के पीछे रणनीति क्या थी और अगर सोच यह थी कि घटना सार्वजनिक होने से दोनों देशों में और खासकर सीमा पर तनाव बढ़ेगा, माहौल खराब होगा, तो चुप रहने से स्थिति में कौन सा सुधार आ गया. सिर्फ 2013 में सीमा पर घुसपैठ की 194 घटनाएं दर्ज की गईं थी. ऊरी की घटना के बाद देश का जो माहौल था, कमोवेश वैसा ही माहौल, उस वक्त भी था, जब देश को सैनिक हेमराज की बर्बरतापूर्ण हत्या की सूचना मिली थी. जो आक्रोश और सड़कों पर गुस्सा अब दिखा, कमोवेश वैसा ही आक्रोश और गुस्सा तब भी दिखा था, तब अगर सेना ने बदले की कोई कार्रवाई की थी, तो इसकी सूचना देने में क्या नुकसान था, यह समझ से परे है.
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कांग्रेस ने सबसे पहले यह मुद्दा तब उठाया, जब पूर्व सेना प्रमुख जनरल विक्रम सिंह कुछ चैनलों को दिए अपने इंटरव्यू में बताया कि पहले भी सेना इस तरीके की कार्रवाई करती आई है, लेकिन पहली बार एक बड़े ऑपरेशन का फैसला राजनीतिक सहमति और सरकार के तय रणनीति के तहत किया गया. एक बड़े सैन्य कार्रवाई को शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व की सहमति से अंजाम दिया गया, जो सेना के मनोबल के लिहाज से अच्छा फैसला था. विक्रम सिंह राजनीतिक इच्छाशक्ति की चर्चा के दौरान ये बातें कहीं थी और कांग्रेस के नेताओं ने विक्रम सिंह के उस बयान को सोशल मीडिया पर डालकर यह प्रमाणित करने की कोशिश की कि ऐसी घटनाएं पहले हो चुकी है. सवाल यह है कि क्या वाकई कांग्रेस को इस बात की जानकारी पहली बार विक्रम सिंह के रहस्योद्घाटन के बाद मिली थी. अगर तत्कालीन डीजीएमओ विक्रम भाटिया की मानें तो 2013 या 2014 का कार्रवाई किसी सर्जिकल स्ट्राइक का हिस्सा नहीं था, बल्कि वो सीमा पर लोकल यूनिट द्वारा की गई बदले की कार्रवाई थी, जिसके लिए अमूमन केंद्र से किसी इजाजत या प्लानिंग की जरूरत नहीं पड़ती या ली भी नहीं जाती. बुधवार को मुंबई में रक्षा मंत्री पर्रिकर ने मुंबई में भी यही कहा कि उनके ध्यान में पहले कोई सर्जिकल स्ट्राइक जैसी घटना नहीं हुई, तो कांग्रेस का तिलमिलाना स्वाभाविक था.
आज सेना और देश के जनमानस के दिल को इस बात का सुकून है कि आखिर किसी ने तो कुछ दृढ़ता दिखाई. मजे की बात यह है कि जिस तर्क के आधार पर कांग्रेस पहले खामोश रहने की दुहाई दे रही है, उसी तर्क की उपेक्षा कर कुछ कांग्रेसी नेता सरकार से घटना का सबूत मांग रहे थे. सच यह भी है कि इस पूरे मसले पर पार्टी दो भाग में बंटी दिख रही है. खून की दलाली जैसे बयान और रक्षा मंत्री को चुल्लू भर पानी में डूब मरने की सलाह देने वाले गुट को इस तरह की सलाह जो भी दे रहा है कम से कम वह जनमानस की सोच से कोसों दूर है. जबकि एक तबका स्पष्ट मानता है कि इस मसले पर राजनीति नहीं होनी चाहिए और इस तरह की कोई भी कोशिश नुकसानदेह साबित हो सकती है.
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जनवरी 2013 की घटना हो या 14 जनवरी, 2014 की कार्रवाई, घटनाओं के विवरण पर नजर डालें तो तस्वीर काफी हद तक स्पष्ट हो जाएगी कि फैसले स्थानीय तौर पर सेना ने लिए. सेना सूत्रों के मुताबिक, जनवरी 2013 में पाक की बार्डर एक्शन टीम के सैनिक भारतीय सीमा में घुसे और भारतीय कैंप पर हमला किया. 13 राजपूताना राइफल्स के कुछ जवान शहीद हुए, इसमें आगरा के हेमराज भी थे. साल भर बाद सेना ने एक जवाबी कार्रवाई में पाक सीमा में घुसकर 10 पाक सैनिकों को मार गिराया. सेना ने एक कार्रवाई की, अब सेना उसे सर्जिकल हमला भले न माने, पर कांग्रेस अब ऐसा मानने लगी है. यह बौद्धिक दृष्टिकोण तब पैदा नहीं हुआ, अब हुआ है, क्योंकि शायद डर इस बात का भी सता रहा है कि बीजेपी का इवेंट मैनजमेंट ठीक रहा तो यूपी में राहुल की यात्रा पर लगी मेहनत पर कहीं पूरा पोछा न लग जाए. कांग्रेस ने कुछ ऐसी ही गलती 1999 के करगिल युद्ध के दौरान की थी और बाद में नतीजा यह निकला कि वाजपेयी सरकार एक बड़े जनादेश से सत्ता में लौटी थी.
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