प्रणब दा, मोदी सरकार और कांग्रेस
राजनीतिक शख्स होने के बावजूद प्रणव मुखर्जी ने 5 साल के पूरे कार्यकाल में एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया जो 'राजनीतिक जुड़ाव' की ओर संकेत देता. प्रणब दा ने ऐसी हर बात को टाला जो सरकार के साथ टकराव की मंशा की ओर इशारा करती.
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24 जुलाई 2017 से प्रणब मुखर्जी के नाम का उद्बबोधन करते हुए राष्ट्रपति के साथ पूर्व जुड़ जाएगा. सवाल होंगे प्रणब दा का राष्ट्रपति के तौर पर कार्यकाल कैसा रहा? वो भी ऐसा कार्यकाल जिसमें 3 साल का वक्त उन्होंने नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली एनडीए सरकार के साथ गुजारा. जन्मजात कांग्रेसी रहे प्रणब दा का धुर विरोधी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी की सरकार के साथ तालमेल बिठाना आसान नहीं माना जा रहा था. मई 2014 में मोदी सरकार ने केंद्र में सत्ता संभाली तो ऐसे कयास लगाने वालों की कमी नहीं थी कि राष्ट्रपति की गद्दी पर प्रणब दा जैसे मंझे राजनेता के होते उनसे हर मुद्दे पर पार पाना आसान नहीं होगा.
पूरा होने जा रहा है राष्ट्रपति पद का कार्यकाल
अब जब प्रणब दा राष्ट्रपति के तौर पर कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं तो पीएम नरेंद्र मोदी समेत पूरी सरकार उनकी तारीफ करते नहीं थक रही है. मोदी तो प्रणब दा को पितातुल्य बता चुके हैं. मोदी का कहना है गुजरात से दिल्ली आकर जल्दी सैटल होना संभव नहीं होता, अगर प्रणब दा मदद नहीं करते. इतिहास और राजनीतिक शास्त्र में मास्टर्स के साथ लॉ की डिग्री रखने वाले प्रणब को धर्मनिरपेक्षता की घुट्टी उनके कांग्रेसी और स्वतंत्रता सेनानी पिता कामादा किंकर मुखर्जी और मां राजलक्ष्मी से मिली. पांच बार के राज्यसभा सदस्य और दो बार के लोकसभा सदस्य प्रणब के राजनीतिक करियर की मेंटर इंदिरा गांधी थीं. इंदिरा गांधी ने ही उन्हें पहली बार 1973 में केंद्र में राज्य मंत्री बनाया. इंदिरा की राष्ट्रपति रहते हुए ही प्रणब ने प्रशंसा भी की और उन्हें देश का सबसे अधिक स्वीकार्य प्रधानमंत्री भी बताया.
बता दें कि इंदिरा गांधी ने ही 1982 में प्रणब दा को वित्त मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण विभाग सौंपा. 1980 से 1985 तक प्रणब दा राज्यसभा में सदन के नेता रहे, इससे पता लगाया जा सकता है कि इंदिरा कैबिनेट में ही प्रणब का कद कितना बड़ा था. लेकिन 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद से ही कांग्रेस प्रणब मुखर्जी की असली प्रतिभा को पहचानने में चूक करती रही या यूं कहें जानबूझकर नज़रअंदाज़ करती रही.
कांग्रेस के सामने ऐसे कम से कम तीन मौके आए जब प्रणब मुखर्जी की वरिष्ठता, योग्यता को देखते हुए उन्हें आसानी से प्रधानमंत्री बनाया जा सकता था लेकिन नहीं बनाया गया. अगर ऐसा किया होता तो निश्चित रूप से कांग्रेस की ऐसी हालत नहीं होती जैसी कि आज है. कांग्रेस प्रणब को 33 साल पहले ही 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बना सकती थी. उस वक्त भी प्रणब दा इंदिरा गांधी के बाद सरकार में सबसे बड़ा कद रखते थे.
इंदिरा गांधी के साथ प्रणब मुखर्जी
राजीव गांधी उस वक्त राजनीति के लिए नौसिखिए ही थे. राजीव को 1984 में बिना कैबिनेट की बैठक के ही राष्ट्रपति जैल सिंह ने प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. इंदिरा की हत्या से उपजी सहानुभूति से कांग्रेस को तब लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत जरूर मिला लेकिन राजीव गांधी को 5 साल बाद ही चुनाव में शिकस्त के बाद सत्ता से हटना पड़ा. कांग्रेसी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ही बगावत कर बोफोर्स खरीद में कथित भ्रष्टाचार को लेकर ऐसे गोले दागे कि राजीव गांधी चुनाव में उनके सामने टिक नहीं सके. 1984 में कांग्रेस ने प्रणब दा जैसे सीज़न्ड व्यक्ति को प्रधानमंत्री बना दिया होता तो वो ना सिर्फ मजबूत सरकार देते बल्कि ऐसा पुख्ता आधार भी तैयार कर देते कि कुछ और राजनीतिक और संसदीय अनुभव हासिल करने के बाद राजीव गांधी देश का निपुणता के साथ नेतृत्व कर सकते.
राजीव गांधी ने 1989 में सत्ता से हटने के बाद राजनीतिज्ञ के तौर पर बहुत कुछ सीखा. लेकिन 21 मई 1991 को हुए आतंकी हमले ने उन्हें हमेशा के लिए छीन लिया. राजीव गांधी की हत्या के बाद भी उपजी सहानुभूति का कांग्रेस को फायदा मिला और अल्पमत से ही सही वो केंद्र में सरकार बनाने की स्थिति में आ गई. उस वक्त भी प्रणब दा से सीनियर नेता और कोई कांग्रेस में नहीं था. लेकिन तब प्रधानमंत्री के नाम के लिए नरसिंह राव के नाम पर मुहर लगी. राजनीतिक जानकार यहां इस थ्योरी का तर्क देते हैं कि किसी ज्यादा प्रभावशाली नेता को प्रधानमंत्री बनाने से कहीं '10, जनपथ' की अहमियत ही ना घट जाए. दिलचस्प बात ये है कि प्रधानमंत्री बनने से पहले नरसिंह राव स्वास्थ्य कारणों से राजनीति को टाटा-बॉय बॉय का मन बना रहे थे. लेकिन प्रधानमंत्री की गद्दी मिलते ही उनका स्वास्थ्य भी चोखा हो गया और वो पूरी ठसक के साथ सरकार चलाने लगे. यहां तक कि '10, जनपथ' को भी कई मौकों पर उन्होंने नजरअंदाज करने से गुरेज नहीं किया.
प्रधानमंत्री पद के लिए कई बार प्रणब मुखर्जी की अइनदेखी की गई
प्रधानमंत्री पद के लिए प्रणब दा की तीसरी बार अनदेखी 2004 में हुई. सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने कथित शाइनिंग एनडीए को धूल चटा दी थी. कांग्रेस के एक सुर में आग्रह करने के बाद भी सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनने को तैयार नहीं हुईं. यूपीए का नेतृत्व करने के लिए कांग्रेस ने डॉ मनमोहन सिंह को चुना. जबकि प्रणब मुखर्जी कहीं ज्यादा राजनीतिक अनुभव और प्रशासनिक योग्यता रखते थे. यूपीए के 10 साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री बेशक डॉ सिंह थे लेकिन कांग्रेस के लिए हर मुश्किल मौके पर प्रणब मुखर्जी ने संकटमोचक की भूमिका निभाई. ऐसे शख्स जिन्होंने यूपीए सरकार के दौरान करीब 80 मंत्रिमंडलीय समूहों की अध्यक्षता की. ये प्रणब का ही कमाल था कि सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, सब उनकी बात को ध्यान से सुनते थे. ये उनके बारे में मशहूर रहा कि वो किसी को भी डपट सकते थे और सामने वाला बुरा भी नहीं मानता था.
2012 में कांग्रेस ने भावी राजनीतिक संभावनाओं के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाला एक और काम किया. वो काम था प्रणब दा को सक्रिय राजनीति के पथ से हटाकर राष्ट्रपति बनाकर रायसीना हिल का रास्ता दिखा देना. अनुशासित सिपाही की तरह प्रणब दा ने इसे भी चुनौती की तरह लिया. प्रणब दा राष्ट्रपति बन गए लेकिन पिछले 5 साल में कांग्रेस किस गर्त में पहुंच गई, ये किसी से छुपा नहीं है. निश्चित तौर पर प्रणब दा अगर राष्ट्रपति ना बनकर कांग्रेस में ही राजनीतिक जिम्मेदारियों को अंजाम दे रहे होते तो गैंड ओल्ड पार्टी आज इतनी दयनीय स्थिति में नज़र नहीं आती.
चलिए ये तो रही कांग्रेस की प्रणब दा को प्रधानमंत्री ना बनाने की ऐतिहासिक भूल की बात. अब आते हैं कि प्रणब दा ने राष्ट्रपति बनने के बाद कैसे इस सर्वोच्च पद की गरिमा को और ऊंचा किया. राजनीतिक शख्स होने के बावजूद उन्होंने अपने 5 साल के पूरे कार्यकाल में एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया जो 'राजनीतिक जुड़ाव' की ओर संकेत देता. कानून, सरकारी कामकाज की प्रक्रियाओं और संविधान की बारिकियों की बेहतरीन समझ रखने वाले प्रणब दा ने ऐसी हर बात को टाला जो सरकार के साथ टकराव की मंशा की ओर इशारा करती.
ऐसा भी नहीं कि प्रणब के पास मोदी सरकार ने जो भी सिफारिश भेजी उन्होंने आंख मूंद कर उस पर मंजूरी की मुहर लगा दी. जब भी प्रणब दा ने ज़रूरत समझी, मज़बूती के साथ मोदी सरकार से स्पष्टीकरण मांगे. कई मौके ऐसे आए जब प्रणब दा ने सवाल उठाए और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उन्हें संतुष्ट करने के लिए राष्ट्रपति भवन तक की दौड़ लगाई.
एक वक्त ऐसा भी आया जब एनडीए सरकार ने अध्यादेशों की झड़ी लगा दी थी. अपने एजेंडे को बढ़ाने के लिए ऐसा करना एनडीए सरकार की मजबूरी था क्योंकि उस वक्त राज्यसभा में विपक्ष का बहुमत होने की वजह से विधेयकों के नियमित रूट से आगे बढ़ना संभव नहीं था. अध्यादेशों को लेकर प्रणब दा ने कभी कोई टंगड़ी नहीं लगाई लेकिन मोदी सरकार को साथ ही नसीहत देना भी नहीं भूले. प्रणब ने इस तथ्य से अवगत कराया कि अध्यादेश लास्ट रिसॉर्ट (सबसे आखिरी विकल्प) होना चाहिए. साथ ही ये संदेश भी दिया कि अध्यादेश जारी करने के लिए सरकार की शक्तियां हद से बंधी हैं.
प्रणब के कार्यकाल में एक भी ऐसा मौका नहीं आया जब उन्होंने सांविधानिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए कैबिनेट से पास किसी अध्यादेश को लौटाया हो. हां, उन्होंने जब जरूरी समझा अपनी कानूनी टीम और विशेषज्ञों से सलाह ली, सरकार से स्पष्टीकरण भी खूब मांगे. 2016 में मोदी सरकार ने अरुणाचल प्रदेश में अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल कर राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला किया. राष्ट्रपति प्रणब आश्वस्त नहीं थे कि अरुणाचल में स्थिति इतनी विकट है कि राष्ट्रपति शासन लगाना जरूरी है. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह को तब प्रणब दा को आश्वस्त करने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा.
प्रणब दा ने अपने कार्यकाल में राजनीतिक मुद्दों पर टिप्पणी से हमेशा परहेज किया. लेकिन जब किसी मुद्दे ने जनमानस को आंदोलित किया तो वो चुप भी नहीं बैठे. जैसे जब शैक्षणिक संस्थानों में छात्र आंदोलित हुए तो उन्होंने 'बोलने की आजादी' का समर्थन किया. बीते दो वर्षों में लोगों को पीट-पीट कर मार डालने की घटनाओं को लेकर प्रणब दा ने हाल में संयत लेकिन सख्त प्रतिक्रिया दी. प्रणब दा ने कहा कि आने वाली पीढी हमसे जवाब मांगेगी, ये सवाल अपने आप से ही पूछता हूं. राष्ट्रपति मुखर्जी ने सवाल के लहजे में ही कहा कि क्या हम इतने सजग हैं कि अपने बुनियादी मूल्यों की रक्षा कर सकें. मुखर्जी ये जताना नहीं भूले कि अंधकार और पिछड़ेपन की जो ताकते हैं उनके खिलाफ लोगों और मीडिया की सतर्कता ही सबसे बड़े प्रतिरोधक की भूमिका निभा सकती है.
मुखर्जी का कार्यकाल एक और बात के लिए भी याद किया जाएगा. वो है अपने कार्यकाल में दया याचिकाओं को खारिज करना. प्रणब से ज्यादा दया याचिकाएं सिर्फ आर वेंकटरमण ने ही खारिज की थीं. वेंकटरमण 1987 से 1992 तक राष्ट्रपति रहे. इस दौरान उन्होंने 44 दया याचिकाएं खारिज की थीं. जबकि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 37 प्राथियों से जुड़ी 28 दया याचिकाओं को खारिज किया. बता दें कि प्रणब से पहले राष्ट्रपति रहीं प्रतिभा पाटिल ने सबसे ज्यादा 30 लोगों को फांसी के फंदे से बचाया था. वहीं प्रणब ने सिर्फ 7 फांसी की सजा ही माफ की. जाहिर है कि राजनीति की असाधारण समझ रखने वाले प्रणब ने प्रशासनिक सख्ती की जब जरूरत समझी तो पीछे नहीं हटे.
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