राष्ट्रपति बनने के बाद रामनाथ कोविंद के सामने हैं ये 5 चुनौतियां
राष्ट्रपति बनने के बाद कोविंद के सामने 5 चुनौतियां होंगी. जिसके लिए उन्हें पहले से ही तैयार रहना होगा.
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रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति बन चुके हैं. शपथ लेने के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने पहले संबोधन में सभी का आभार व्यक्त किया. उन्होंने कहा कि सेंट्रल हाल में पुरानी यादें ताजा हो गईं. कोविंद आसानी से राष्ट्रपति चुनाव जीतकर भारत के फर्स्ट पर्सन तो बन गए. लेकिन आगे का रास्ता चुनौतियों से भरा हो सकता है. क्योंकि कई मामलों में कोविंद के लिए दुविधा हो सकती है कि उन्हें फैसला कैसे लेना है.
चुनौतियां भी एक या दो नहीं पूरी पांच हैं, जिसके लिए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पहले ही तैयार रहना होगा. क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बेबाकी से अपनी राय रखते थे. अब कोविंद को प्रणब मुखर्जी की विरासत को आगे ले जाना है तो वैसे ही खुद को साबित करना होगा.
दलितों को दिला पाएंगे इंसाफ?
पिछले तीन सालों में कई ऐसे मामले आए, जहां दलितों के साथ कई अत्याचार हुए. रोहित वेमुला को ही ले लीजिए. हैदराबाद यूनिवर्सिटी में दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या पर राजनीति खूब हुई. ऊना का कांड भी कैसे भुलाया जा सकता है जहां गौरक्षकों ने दलितों की बुरी तरह पिटाई की थी. आय दिन दलितों के साथ अत्याचार हो रहा है. अगर आगे भी होता है तो राष्ट्रपति होने के नाते कोविंद के लिए ये सबसे बड़ी चुनौती होगी. कि वो इस पर क्या फैसला लेते हैं. क्या वे मोदी सरकार के आचरण के विरुद्ध टिप्पणी कर पाएंगे ?
युद्ध हुआ तो क्या भूमिका होगी?
भारत की तीनों सेनाओं के राष्ट्रपति सुप्रीम कमांडर हैं. उन्हें तीनों सेनाओं का कमांडर इन चीफ भी कहा जा सकता है. पाकिस्तान और चीन को लेकर जैसे तनावपूर्ण हालात हैं, ऐसे में उन्हें सुप्रीम कमांडर के नाते कुछ जिम्मेदारियां निभानी पड़ सकती हैं. राष्ट्रपति के कहने पर ही युद्ध होगा या शांति का आदेश आएगा. 1999 में राष्ट्रपति के.आर नारायण के आदेश के बाद ही कारगिल युद्ध लड़ा गया था. ये उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी क्योंकि चीन और पाकिस्तान दोनों ही देश भारत के खिलाफ खूब जहर उगल रहे हैं.
अध्यादेश पर कैसे लेंगे फैसला?
किसी कानून को जब सरकार आपात स्थिति में पास कराना चाहती है तो वह संसद के बजाए अध्यादेश का रास्ता अपनाती है. मोदी सरकार को कई पेंचीदा मामलों में राज्यसभा में मुश्किल पेश आती है. प्रणब मुखर्जी जाते-जाते कह गए हैं कि लोकतंत्र में अध्यादेश का रास्ता ठीक नहीं है.
भूमि अधिग्रहण बिल को ही ले लीजिए. एक तरफ जहां पूरा विपक्ष इस बिल के विरोध में खड़ा है तो वहीं दूसरी तरह मोदी सरकार हर हाल में इस बिल को विकास के एजेंडे के तहत पास कराने पर तुली थी. विपक्षी दलों के विरोध के चलते केंद्र सरकार ने इस बिल को अध्यादेश के रास्ते पास कराया था. अगर कोविंद के पास कोई बिल आता है तो क्या वो प्रणब मुखर्जी जैसा कड़क फैसला ले पाएंगे. ये काफी चुनौतीपूर्ण रहेगा.
विदेश यात्रा में दिखा पाएंगे स्टेट्समैनशिप?
कोविंद एक बेहद साधारण परिवेश से आते हैं. राष्ट्रपति के पद पर आसीन होने के बाद उन्हें राष्ट्राध्यक्ष का कर्तव्य भी निभाना होगा. जिसमें विदेशों से हमारे रिश्तों को मजबूत करना शामिल है. प्रधानमंत्री मोदी इस काम में बखूबी लगे हैं. लेकिन, क्या कोविंद भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर कुछ उल्लेखनीय योगदान दे पाएंगे? देखना होगा. प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद पर आसीन होने से पहले विदेश मंत्री भी रह चुके थे. ऐसे में उनके पास विदेशियों से जुड़ने का काफी अनुभव रहा है.
विपक्ष के साथ कितने निष्पक्ष ?
सबसे आखिरी, लेकिन सबसे अहम. जिस राजनीतिक खींचतान के दौर से यह देश गुजर रहा है, उसमें राष्ट्रपति की भूमिका बहुत अहम हो जाती है. सत्तापक्ष और विपक्ष के रिश्तों में चारों तरफ कड़वाहट घुली हुई है. अब तक राष्ट्रपति भवन ही एकमात्र जगह थी, जहां से पक्ष और विपक्ष दोनों संतुष्ट होकर लौटते थे. प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों सरकारों के साथ काम किया. और दोनों के साथ उनका जबर्दस्त तालमेल रहा. पीएम मोदी भी प्रणब मुखर्जी की कई बार तारीफ कर चुके हैं. कई मामलों में उनसे सलाह ले चुके हैं. क्या इस मामले में कोविंद प्रणब मुखर्जी की बराबरी कर पाएंगे?
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