प्रिया दत्त अगली पीढ़ी को लेकर क्यों हैं परेशान
पिछले कुछ हफ्तों से लगातार मैं चौंकाने वाली टिप्पणियों के साथ उठती हूं. कभी सरकार फरमान सुना देती है कि हमें क्या खाना है और क्या नहीं?
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पिछले कुछ हफ्तों से लगातार मैं चौंकाने वाली टिप्पणियों के साथ उठती हूं. कभी सरकार फरमान सुना देती है कि हमें क्या खाना है और क्या नहीं? कभी फिल्मों के बारे में सरकारी हुक्म आता है कि हम एक दर्शक के रूप में कौन सी फिल्म देख सकते हैं और कौन सी नहीं. और अब सबसे ज्यादा चौंकाने वाला बयान कि केवल मुसलमानों का मताधिकार रद्द कर दिया जाए क्योंकि कुछ नेता और राजनीतिक दल उनका इस्तेमाल एक वोट बैंक के रूप में कर रहे हैं.
सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि यह बयान संजय राउत ने दिया है. मुझे लगता है कि वह कभी इस तरह का बयान देने वाले व्यक्ति नहीं रहे हैं. इसलिए मुझे उम्मीद है कि शायद उन्हें इस बात का अहसास होगा कि उन्होंने कहा क्या है? सिर्फ इसलिए कि एक खास तबके को "वोट बैंक" के रूप में देखा जाता है उसे मतदान से रोका जा सकता है? ये तो वैसे ही हुआ जैसे कल हम महिलाओं को वोट देने से रोक देंगे, फिर किसी और अल्पसंख्यक समुदाय या समूह के साथ भी ऐसा कर देंगे. यह जिम्मेदारी भरा बयान नहीं है. और अगर बात सिर्फ वोट बैंक की राजनीति की है तो तो क्या शिवसेना गैर मराठी समुदाय को निशाना बना कर वोट बैंक की राजनीति नहीं करती? हर समुदाय या समूह को अपनी पसंद से मतदान का हक है लेकिन आप उसे एक "वोट बैंक" के रूप में नहीं देख सकते.
यह "वोट बैंक" शब्द ही सही नहीं है और ये लोकतंत्र की गरिमा को ही ठेस पहुंचाता है. लोकतंत्र में किसी को भी वोट बैंक के रूप में देखना गलत है.
सरकार आपके बात करने, आपके खाने पर भी पाबंदियां लगाती जा रही है और जल्द ही शायद ऐसा भी हो कि आपको बताया जाए कि आप क्या पहनें? वो हमे कमजोर कर देने पर आमादा है और चाहते हैं कि हम अपनी आजादी से समझौता कर लें जो हमारा मूल अधिकार है.
सबसे अधिक हैरान करने वाली बात है कि अभी तक किसी ने भी इस मामले में संज्ञान नहीं लिया. अगर शोभा डे के साथ हुए घटनाक्रम को देखें जब उन्होंने कहा था कि देश के नागरिकों पर कुछ भी थोपा नहीं जा सकता. यह सच है. कोई कैसे लोगों पर अपने विचार थोप सकता है कि उन्हें क्या करना चाहिए. या सिनेमा हॉल में किसे, किस समय और कौन सी फिल्म देखनी चाहिए.
यह स्थिति बहुत चिंताजनक है.
ठीक एक साल पहले जोर शोर से प्रचारित किया गया था कि कैसे देश की बेहतरी के लिए चीजें बदल जाएंगी और हम देखेंगे कि देश तरक्की कर रहा है. लेकिन बजाय तरक्की के हम अपनी सोच में पीछे हट रहे हैं, हम अपने ही लोगों से झूठ बोल रहे हैं. असल में, अपने फेसबुक स्टेटस में भी मैंने यही बात कही है.
बुनियादी ढांचे और विकास जैसे मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय छोटे मुद्दों पर फोकस किया जा रहा है और जरूरत से ज्यादा उन्हें हवा दी जा रही है.
एक नागरिक तौर पर हमारे लिए जो मुद्दे महत्व नहीं रखते, उन पर काम हो रहा है- स्कूल में हमें कौन सी किताबें पढ़नी हैं या कब और कौन सी छुट्टी होनी चाहिए. इसका कोई मतलब नहीं है. ऐसा लगता है कि हमारा दुर्भाग्य ही था कि साल भर पहले चुनाव में चमक और चिंगारी के आगे हम झुक गए. चुनाव में जब आप अपने प्रतिनिधि चुनते हैं तो आप अपना और देश का भविष्य भी चुनते हैं. चारों तरफ जो हो रहा है उसे देखकर मुझे लगता नहीं कि हमने सही फैसला लिया था. ऐसी कीमत पर देश को ऐसे ही किसी को वोट नहीं दे देना चाहिए. क्या यह तानाशाही नहीं है? आज जो भी दिखाई दे रहा है उसमें हर तरफ सरकारी दखल है और हर जगह सरकार का खासा नियंत्रण है. इस सरकार के लिए हमने वोट डाले हैं और हमें इसकी आलोचना करने का पूरा अधिकार है.
सरकार के काम काज में सुधार तभी हो सकता है जब वह सकारात्मक आलोचना को स्वीकार करे. वरना आप एक तानाशाह के सिवा कुछ भी नहीं हैं.
आज, मैं संसद सदस्य नहीं हूं. जब आराम से बैठती हूं और एक नागरिक की तरह सोचती हूं तो मुझे यह चिंता सताने लगती है कि हम किस दौर में जी रहे हैं. अगर हम इसी राह पर चलते रहे तो मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?
(अदिति पई से बातचीत पर आधारित)
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