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Updated: 19 मार्च, 2017 01:53 PM
मौसमी सिंह
मौसमी सिंह
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जनवरी के सर्द महीने में सियासी तपिश ने दिल्ली से लखनऊ को अपनी चपेट में ले रखा था. शनिवार का दिन था और मैं 10 जनपथ के बाहर फेरी लगा रही थी. अंदर कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी. जी हां , कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ साथ कांग्रेस बीट के रिपोर्टरों को भी 10 जनपथ पर फेरी लगाने का सौभाग्य प्राप्त है.

पत्रकारिता जगत में खबरों की खबर किसी की नाराजगी की मानिये. कभी संघ सरकार से नाराज, पीएम सहयोगियों से नाराज, बड़े मंत्री छोटे से नाराज या फिर मंत्री बाबू से नाराज. सबसे ज़्यादा फिक्र मीडिया को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नाराज होने की होती है. टाइम टू टाइम सोनिया गांधी नाराज होती रहती हैं. सूत्रों के हवाले से वो कभी भी नाराज हो सकती हैं.

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यूपीए 2 में वो कई बार नाराज हुईं, घोटाले पर घोटाले होते रहे और वो नाराज फिर बहोत नाराज होती रहीं. बहरहाल उस दिन की बात करें तो वो फिर से नाराज थीं. शाम के 6 बज रहे थे, गेट पर मीडिया कयासबाजी में मशरूफ थी. क्या कांग्रेस सपा की साइकल पर नहीं चढ़ेगी? क्या नहीं होगा गठबंधन?

उसी समय टीवी चैनलों पर सोनिया के नाराज होने की खबर फ्लैश हुई. इस बार मामला अलग था. सीटों को लेकर सपा और कांग्रेस में तोल मोल चल रहा था. सोनिया की नाराजगी कांग्रेस के दायरे से बाहर अब एक दूसरी पार्टी के प्रमुख युवा चेहरे और राहुल के यूपी मे भावी पार्टनर अखिलेश यादव से थी! ऐसा भी संभव था...क्यों नहीं ? खबर सूत्रों के हवाले से चली.  

ये और बात है के दूसरे दिन सुबह अखबार प्रियंका के नाम से पटे थे, कांग्रेस के चाटूकार प्रियंकानामा लिख रहे थे. कांग्रेस ने साईकल का हैंडल पकड़ लिया था और अब प्रियंका की कसीदें पढ़ी जा रही थी.

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उस रोज़ सोनिया की नाराजगी ने ये तय कर दिया था की अगर ये गठबंधन हिट हुआ तो प्रियंका का जयकारा लगेगा और अगर ये औंधे मुंह गिरा तो प्रियंका पर आंच नहीं आनेवाली.

चाटूकारों के बाद यूपी की जनता की बारी आई. जनता ने जो दो तिहाई प्रियंकानामा लिखा वो भी तो पढ़ लीजिये...यूपी को ये 'साथ' पसंद है का नारा भरनेवाली कांग्रेस को सात सीटें मिली, मानो जनता ने कहा सिर्फ यही 'सात' बहुत हैं. भाजपा पर जनता ने जीत का रंग चढ़ाया है और कांग्रेस को रंग चढ़ाये बगैर आईना दिखा दिया. अब फागुन का महीना खत्म हो गया है, कांग्रेस को जनता का आईना को गौर से देखना चाहिए. पार्टी के चेहरे पर पढ़ती झुर्रियों को समझे, आंखों पर पड़ी गलतफहमी की चादर को पढ़ें. चुनाव से पहले प्रियंका को चाणक्य कहनेवाले को कम से कम अब अपने चापलूसी की चालीसा बंद कर देनी चाहिए.

लोकसभा की शर्मनाक हार के बाद राहुल गांधी के सामने खुद को प्रासंगिक रखने की चुनौती थी. यही वजह है कि उन्होंने अपने सबसे विश्वसनीय पात्र को उत्तर प्रदेश की बागडोर सौंपी. भले ही औपचारिक रूप से प्रियंका को पद नहीं मिला पर यह बात किसी से छिपी नहीं कि प्रियंका गांधी वाड्रा पिछले कई महीनों से उत्तर प्रदेश की बैकरूम रणनीति में हिस्सा ले रही थी. पिछले साल जाड़े में कांग्रेस वारूम में हुई एक विधायकों की बैठक में प्रियंका ने दो टूक कहा था की अब नेता उनसे सीधा संपर्क कर सकते हैं.

यूपी की टीम के चयन में प्रियंका की छाप और प्रशांत किशोर का दिमाग की झलक दिखी. फिर मीडिया में पीके और पीजी कॉम्बिनेशन के कई मास्टर गेम प्लान चले. जैसे जैसे समय बीता मीडिया के दिहाड़ी बनती रही और गेम प्लान बदलता रहा.

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अगर यूपी के नतीजों ने पीके के आडंबर भरे किले को ध्वस्त किया तो पीजी कहां और कैसे इससे अछूती हैं? जो क्षण चला गया वो दोबारा नहीं मिलता. इस बूढ़ी पार्टी के विद्वान नेताओं ने प्रियंका को एक ऐसे सुरक्षा कवच में रखा है जो भूसे का बना है. जब तक प्रियंका अपने सरनेम से ऊपर उठकर एक साधारण नेता की तरह अपनी चुनौतियां स्वीकार नहीं करेंगी तब तक चाटूकारों की चांदी है. तब तक प्रियंका नाम का ब्रम्हास्त्र 'बचा' हुआ है, भले ही उसमें धरे-धरे जंग लग जाए.

प्रियंका के इस हाल पर मुझे कबीर का एक दोहा याद आता है 'जिन खोजा तिन पाइयां..गहरे पानी पैठि..मै बपुरा बुडन डरा..रहा किनारे बैठि..!' तो जब तक खोजेंगे नहीं, डूबेंगे नहीं, लड़ेंगे नहीं, किनारे बैठे रहेंगे तब तक मोती नहीं मिलेगा...हां अपने 'मोती' गिनते मोदी जरूर मिल जाएंगे!

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लेखक

मौसमी सिंह मौसमी सिंह @mausami.singh.7

लेखिका आज तक में विशेष संवाददाता हैं.

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