नीतीश के लिए नयी चुनौती - राबड़ी देवी रिटर्न्स!
राबड़ी देवी नये अवतार में सामने आई हैं. पहली बार उन्होंने आरजेडी की अहम बैठक का नेतृत्व किया है और लालू और तेजस्वी की गैरमौजूदगी में कोई बड़ा फैसला भी लिया है.
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राष्ट्रीय जनता दल के सम्मेलन में एक बार राबड़ी देवी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर कटाक्ष किया था - ये बूढ़े बूढ़े लोग हाफ पैंट पहन कर घूमते हैं, इनको शर्म नहीं आती. बाद में जब संघ के गणवेश में हाफ की जगह फुल पैंट शामिल हो गया तो इसका क्रेडिट लालू प्रसाद ने राबड़ी को दे डाला.
जब सीबीआई का शिकंजा कसने के बाद तेजस्वी पर डिप्टी सीएम के पद से इस्तीफे का दबाव बनाया जा रहा था, तो राबड़ी देवी ने मीडिया के कैमरे पर आकर बड़े आत्मविश्वास के साथ बचाव किया और नीतीश कुमार के खिलाफ लगातार हमलावर नजर आयीं. बाद की तो बात ही और है.
माना जाता है कि तेजस्वी के इस्तीफा न देने में राबड़ी देवी का अड़ जाना ही आड़े आया और लालू प्रसाद चाह कर भी अपनी मनमर्जी नहीं कर सके. अब जबकि लालू और तेजस्वी बुरी तरह सीबीआई के शिकंजे में फंसे हुए हैं - राबड़ी देवी ने आगे बढ़ कर मोर्चा संभाला है. देखना ये है कि कितना कुछ बदला है - 'राबड़ी देवी रिटर्न्स' में?
नये अवतार में राबड़ी देवी
एक बात तो सभी को माननी पड़ेगी, जब भी लालू प्रसाद या उनकी कुर्सी या फिर उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल पर कोई संकट आया है, सबसे बड़ी संकटमोचक राबड़ी देवी ही बनी हैं. तमाम आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए, लालू के रिमोट कंट्रोल से ही सही, राबड़ी घर और सरकार दोनों पूरी तन्मयता से चला चुकी हैं. जब जब लालू प्रसाद को जेल जाना पड़ा है, राबड़ी देवी को पूरी मुस्तैदी से मोर्चे पर डटा हुआ देखा गया है.
मोर्चे पर मुस्तैद हैं राबड़ी देवी...
लेकिन आरजेडी के इतिहास में ये पहला मौका है जब लालू प्रसाद और तेजस्वी दोनों की गैरमौजूदगी में राबड़ी देवी ने आगे बढ़ कर पार्टी का नेतृत्व किया है. विधायकों और जिलाध्यक्षों की मीटिंग में राबड़ी देवी को बिलकुल नये अंदाज में देखा गया.
हर किसी का यही मानना रहा कि ये वो राबड़ी देवी तो कत्तई नहीं हैं जिनकी कभी मुख्यमंत्री बनने की योग्यता सिर्फ लालू प्रसाद की पत्नी होना रहा. राबड़ी देवी ने पहली बार अपने दम पर आरजेडी में संगठन चुनाव कराने का फैसला लिया है. निश्चित रूप से इस बारे में लालू प्रसाद की समझाईश रही होगी. ये भी सही है कि लालू के निष्ठावान नेताओं की बड़ी सी फौज उनकी मददगार है, फिर भी ये फैसला आसान तो नहीं हो सकता. संगठन में चुनाव के वक्त अगर किसी गुट ने बगावत कर दी तब क्या होगा? ठीक है कि नेता तो लालू परिवार से ही होगा, लेकिन अगर पार्टी थोड़ी सी भी टूट जाये तो मौजूदा माहौल में तो बड़ा नुकसान हो सकता है.
बहरहाल, बड़ा सवाल ये है कि आरजेडी में राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की जरूरत अभी क्यों आ पड़ी?
चुनाव अभी क्यों?
अब तय माना जाने लगा है कि देश में आम चुनाव 2019 से पहले भी हो सकते हैं. चुनाव आयुक्त के बयान के बाद कि सितंबर 2018 के बाद आयोग कभी भी एक साथ चुनाव कराने की स्थिति में हो जाएगा. बीजेपी तो चाहती ही है, कांग्रेस की ओर से भी कहा जाने लगा है कि वो भी चुनाव के लिए तैयार है. आरजेडी में होने वाले चुनाव को लेकर पार्टी की ओर से यही दलील दी जा रही है.
17 जनवरी 2016 को आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव हुआ था. अध्यक्ष का कार्यकाल तीन साल का होता है जो 2019 में पूरा हो रहा है. वक्त से पहले चुनाव कराने को लेकर आरजेडी का यही तर्क है कि पार्टी आम चुनाव की तैयारी करेगी या संगठन चुनाव में ही लगी रहेगी. क्या हकीकत भी यही है?
संकटकाल की तारणहार...
हकीकत में तो संगठन चुनाव आरजेडी के एहतियाती उपाय ही ज्यादा लगते हैं. जिस तरह से सीबीआई ने लालू परिवार पर शिकंजा कसा है उन पर जेल जाने का भी खतरा मंडराने लगा है. आपात स्थिति में कुछ भी करना मुश्किल होगा, जिसे संभालना तो और भी मुश्किल होगा. इसीलिए पार्टी पहले से ही इंतजाम में जुट गयी है.
दरअसल, लालू प्रसाद आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ साथ पार्टी के संसदीय बोर्ड के भी अध्यक्ष हैं. पार्टी संविधान के अनुसार अभी सिर्फ लालू प्रसाद ही चुनाव में उम्मीदवारों को चुनाव चिह्न देने के अधिकारी हैं. अब पार्टी इस इंतजाम में जुट गयी है कि लालू के मौजूद न रहने की स्थिति में किसी और को इस बात के लिए अधिकृत किया जाये.
इस तरह ये तो तय लग रहा है कि लालू की जगह किसी और को आरजेडी की कमान सौंपने की तैयारी है.
लालू की जगह कौन?
तो क्या अब लालू की जगह आरजेडी का नया अध्यक्ष चुना जाना तय है? ऐसा तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इतना तो तय है कि जो पहले से तय है उसका होना भी तय है. रघुवंश प्रसाद सिंह के बयान में भी इसी बात की झलक मिलती है. वैसे तो लालू प्रसाद के कुछ लोगों ने रघुवंश प्रसाद सिंह के बयान में बगावत के स्वर सुनने की कोशिश की है, लेकिन वो बेदम साबित हो सकता है.
रघुवंश प्रसाद की बातों के चाहे जितने भी मायने गढ़े जाएं, ये तो सब मानते हैं कि रघुवंश प्रसाद पक्के समाजवादी हैं. उनकी लाइन हमेशा साफ रही है. ज्यादातर मामलों में यही समझा जाता है कि रघुवंश प्रसाद, लालू की जबान बोलते हैं, लेकिन ये लालू भी जानते हैं कि जो भी उनके मन में आएगा वो बोलेंगे ही. साथ ही, ये बात भी ध्रुव सत्य है कि नेतृत्व जो भी कहेगा उन्हें मंजूर भी होगा ही. ऐसे में रघुवंश प्रसाद की बातें नेतृत्व पर नहीं बल्कि चुनाव अधिकारी बने जगदानंद सिंह को लेकर ज्यादा लगती हैं. रघुवंश प्रसाद के समर्थकों का मानना है कि खुद को महत्वपूर्ण साबित करने के लिए जगदानंद सिंह चुनाव अधिकारी बने हैं. रघुवंश प्रसाद बयान देकर भड़ास निकाली है और ये भी जताने की कोशिश की है कि जगदानंद सिंह कोई बड़ा काम नहीं कर रहे हैं. ये भी जगजाहिर है कि दोनों में कभी पटरी बैठती नहीं जिसकी वजह दोनों का ठाकुर होना भी है. रघुवंश प्रसाद के कहने का मतलब यही है कि जब तय है कि किसे अध्यक्ष बनना है फिर चुनाव अधिकारी का क्या मतलब रह जाता है.
अब जो आरजेडी की भविष्य की योजनाओं को लेकर जो सवाल बचते हैं उनके जवाब संभावनाओं में तलाशे जा सकते हैं. क्या लालू प्रसाद की जगह कोई नया अध्यक्ष चुना जाएगा? पटना में सत्ता के गलियारों पर नजर रखनेवालों की मानें तो इसकी काफी संभावना है. तो क्या तेजस्वी यादव को कमान सौंपी जा सकती है? इस बात की संभावना काफी कम है. क्या तेजस्वी यादव को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जा सकता है? संभावना कम है, लेकिन उन्हें संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाया जा सकता है. क्या तेज प्रताप भी इस रेस में शामिल हैं? इसकी जरा भी संभावना नहीं है. फिर तो राबड़ी देवी ही बचती हैं? जवाब है - पूरी संभावना है.
हाल फिलहाल की ही बात है सीबीआई को लेकर पूछे गये एक सवाल पर राबड़ी देवी का जवाब था - सीबीआई से हम नहीं, हमसे सीबीआई परेशान है. वैसे भी पूछताछ में जिस तरह से लालू प्रसाद अफसरों को गोल गोल घुमा रहे हैं, लगता तो वैसा ही है.
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