राहुल के ब्रेकफास्ट और सिब्बल के डिनर में बहुत बड़ा सियासी फासला है!
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को G-23 की तरफ से फिर से चुनौती मिली है - विपक्षी नेताओं (Opposition Unity) की मीटिंग जब राहुल गांधी बुलाते हैं तो छोटे नेता पहुंचते हैं, लेकिन कपिल सिब्बल (Kapil Sibal) ने तो दिग्गजों को ही जुटा दिया.
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) जिस दिन जम्मू-कश्मीर के दो दिन के दौरे पर निकले, दिल्ली में G 23 के नेता और विपक्षी दिग्गज डिनर पर मिले - और कांग्रेस के अंदरूनी कलह से लेकर विपक्षी एकजुटता पर भी काफी चर्चा हुई. मौका था कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल (Kapil Sibal) की बर्थडे पार्टी का. कपिल सिब्बल का 73वां जन्म दिन 8 जुलाई को रहा, लेकिन पार्टी एक दिन बाद रखी गयी थी.
विपक्षी दलों (Opposition Unity) के साथ राहुल गांधी के ब्रेकफास्ट से तुलना करें तो कपिल सिब्बल का डिनर काफी भारी भरकम लगता है - क्योंकि डिनर में विपक्षी खेमे के वे दिग्गज भी शामिल थे जो राहुल गांधी की दोनों में से किसी मीटिंग में झांकने तक नहीं गये.
कपिल सिब्बल के डिनर में, सूत्रों के हवाले से आई खबर के मुताबिक, 17 विपक्षी दलों के 45 नेता शामिल हुए - राहुल गांधी ने भी ब्रेकफास्ट के लिए न्योता तो 17 दलों को ही भेजा था, लेकिन 15 ने ही मौजूदगी दर्ज करायी. ब्रेकफास्ट से पहले वाली राहुल गांधी की मीटिंग में 14 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे.
डिनर की अहमियत इसलिए भी ज्यादा लगती है क्योंकि शरद पवार, लालू प्रसाद यादव और अखिलेश यादव जैसे नेता शामिल हुए, जो अपने अपने दलों के प्रमुख हैं - हां, कॉमन बात ये जरूर रही कि अब तक ऐसी बैठकों से दूरी बनाये रखने वाली मायावती या बहुजन समाज पार्टी का कोई भी नुमाइंदा नहीं पहुंचा था.
एक और खास बात जिसकी तरफ सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने ध्यान दिलाया और लालू यादव ने शिद्दत से याद किया - ये डिनर पार्टी उसी जगह हो रही थी जहां 20 साल पहले बीजेपी के खिलाफ मोर्चेबंदी हुई थी - और 2004 में केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी थी. दरअसल, कपिल सिब्बल को मिला 8, तीन मूर्ति लेन कभी सीपीएम नेता हरकिशन सिंह सुरजीत का आवास हुआ करता था - और वो जगह विपक्षी खेले के लिए सबसे बड़ा पॉवर सेंटर हुआ करती थी.
ब्रेकफास्ट बनाम डिनर डिप्लोमेसी!
बेशक दिल्ली में बर्थडे पार्टी हो रही थी, लेकिन ऐसे में जब राहुल गांधी आगे बढ़ कर ममता बनर्जी को विपक्ष का नेता बनने से रोकने की कोशिश कर रहे हों, कांग्रेस के ही बागी माने जाने वाले एक नेता के बुलावे पर विपक्षी दिग्गजों का दौड़ पड़ना और 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उससे पहले राज्यों से बीजेपी के सफाये पर मंथन करना - कांग्रेस नेतृत्व के लिए फिक्र वाली बात तो होनी ही चाहिये.
राहुल गांधी मानें या न मानें, कपिल सिब्बल की डिनर पार्टी भी G-23 की सोनिया गांधाी को लिखी चिट्ठी जैसी ही लगती है.
कपिल सिब्बल के यहां डिनर पर G-23 नेता तो पहुंचे ही थे, पी. चिदंबरम भी बेटे कार्ती चिदंबरम के साथ शामिल हुए जिनको कांग्रेस नेतृत्व हमेशा ही साथ रखते देखा जाता है. सीबीआई के गिरफ्तार कर जेल भेजने वाले पीरियड को छोड़ दें तो अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर कांग्रेस के मोर्चे पर पी. चिदंबरम को भी तैनात रखा जाता है. बड़े मुद्दों के लिए पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह होते हैं, जो चिदंबरम की गैरमौजूदगी में एडिशनल चार्ज ले लेते हैं.
मान लेते हैं कि राहुल गांधी का कार्यक्रम तय था और उनको जम्मू-कश्मीर रवाना होना पड़ा. राहुल गांधी के कार्यक्रम वैसे भी जल्दी रद्द नहीं होते क्योंकि उनको चुनाव प्रचार हो या कांग्रेस के बड़े आयोजन ही क्यों न हों, वो छुट्टी पर तो चले ही जाते हैं - लेकिन सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा भी तो पार्टी अटेंड कर ही सकती थीं. ये भी मान लेते हैं कि सोनिया गांधी सेहत ठी न रहने के चलते ऐसे इवेंट से दूरी बना कर रहती हैं, लेकिन विपक्ष के इतने बड़े जमावड़े में वर्चुअल तरीके से तो शामिल हो ही सकती थीं - ये बात अलग है कि ऐसा कोई इंतजाम रहा हो या नहीं. मतलब, बुलाने पर भी मना कर दिया हो या बुलाया भी न गया हो.
लेकिन ये मीटिंग गांधी परिवार के लिए वैसे ही महत्वपूर्ण रही जैसे शरद पवार के घर विपक्षी नेताओं की जमघट. जिसके बाद कमलनाथ विशेष प्रतिनिधि के तौर पर शरद पवार के घर जाकर मुलाकात करते हैं - और फिर राजनीतिक लाइन बतायी जाती है कि कांग्रेस के बगैर तो बीजेपी और मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष का कोई मोर्चा खड़ा ही नहीं हो सकता है.
राहुल गांधी और सोनिया गांधी को भी ये तो मालूम हो ही चुका होगा कि कपिल सिब्बल के यहां चिट्ठी लिखने वाले लगभग सारे नेता जुटे थे - गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, भूपिंदर सिंह हुड्डा, शशि थरूर, मनीष तिवारी, पृथ्वीराज चव्हाण और विवेक तन्खा.
विपक्ष के बड़े नेताओं में मायावती को छोड़ दें तो लालू प्रसाद यादव, शरद पवार और अखिलेश यादव ही नहीं, बल्कि बीजेपी की तरफ से पिनाकी मिस्रा, अकाली दल की तरफ से नरेश गुजराल के अलावा चंद्र बाबू नायडू की टीडीपी और जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआरसीपी के प्रतिनिधि भी मौजूद रहे - अब तक टीडीपी और अकाली दल राहुल गांधी की पहुंच से बाहर देखे गये हैं जबकि YSRCP को एनडीए से बाहर होते हुए भी करीब ही देखा जा सकता है, लेकिन नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी तो किसी भी तरह के विपक्षी आयोजनों से दूर रहती है. नवीन पटनायक को कई मौकों पर मोदी सरकार के साथ देखने को मिला है, लेकिन एक स्पष्ट दूरी के साथ ही.
एनडीए छोड़ने से लेकर अब तक अकाली दल को कांग्रेस और गांधी परिवार के प्रति आक्रामक ही देखने को मिला है. कुछ दिन पहले ही तो जब मोदी सरकार से किसानों के नाम पर इस्तीफा देने वाली हरसिमरत कौर बाद संसद जा रहे नेताओं को गेहूं की बालियां गांधीगिरी में गुलाब दिये जाने की तर्ज पर भेंट कर रही थीं तो कांग्रेस नेता रवनीत सिंह बिट्टू अकाली नेता से भिड़ गये थे. बिट्टू, पंजाब कांग्रेस में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के विरोधी माने जाने हैं, स्वाभाविक है राहुल गांधी के करीबी तो होंगे ही.
कपिल सिब्बल की मीटिंग में अकाली दल की तरफ से नरेश गुजराल शामिल हुए थे. जैसे अकाली दल की पंजाब में कांग्रेस राजनीतिक लड़ाई है, ठीक वैसे ही समाजवादी पार्टी भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीतिक विरोधी है - लेकिन कपिल सिब्बल के डिनर पर खुद अखिलेश यादव पहुंचे हुए थे.
मोदी से पहले राज्यों से बीजेपी हटाओ!
डिनर पार्टी को लेकर आयी खबरों से एक बात तो साफ है, G-23 नेताओं की भी पॉलिटिकल लाइन वही है जो राहुल गांधी की है. बिलकुल वही जो ममता बनर्जी की भी है - 2024 में बीजेपी को केंद्र की सत्ता से बेदखल करो.
ममता बनर्जी के दिल्ली दौरे के वक्त भी कुछ मीडिया रिपोर्ट में इस बात की चर्चा रही कि आगे उनका रुख उत्तर प्रदेश और 2022 में विधानसभा चुनाव हो रहे राज्यों की तरफ होगा. राहुल गांधी की तरफ से तो नहीं, लेकिन प्रियंका गांधी वाड्रा ने यूपी को लेकर गठबंधन की पहल कर विपक्षी एकजुटता का संकेत जरूर दिया है.
2022 के विधानसभा चुनावों में विपक्षी दलों को लेकर राहुल गांधी और सोनिया गांधी के मन में जो भी चल रहा हो, लेकिन G-23 कांग्रेस नेताओं के दिमाग में तस्वीर बिलकुल साफ है - केंद्र से पहले बीजेपी को राज्यों से भगाने के लिए सबसे पहले यूपी चलो.
इंडियन एक्सप्रेस से नाम न छापने की शर्त पर G-23 के एक नेता का कहते हैं, 'सभी विपक्षी दलों को उत्तर प्रदेश पर धावा बोल देना चाहिये और अखिलेश यादव को सपोर्ट करना चाहिये. अखिलेश यादव ही बीजेपी को चैलेंज कर रहे हैं क्योंकि कांग्रेस चुनाव जीतने की स्थिति में तो है नहीं.'
कांग्रेस नेता का कहना है, 'हम सबको समाजवादी पार्टी का सहयोग करना चाहिये - और चुनाव जीतने का यही एक तरीका है.'
निश्चित तौर पर ये सलाहियत खास तौर पर कांग्रेस नेतृत्व के लिए ही है, 'लक्ष्य बीजेपी को हराने का होना चाहिये. हमें वोटों को बंटने नहीं देना चाहिये,' - और ये सिर्फ उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव तक ही सीमित नहीं है, 'सभी राजनीतिक दलों को एक दूसरे का सपोर्ट करना चाहिये और जिस पार्टी का भी उम्मीदवार चुनाव जीतने की स्थिति में हो सबको मिल कर समर्थन करना चाहिये.'
लगता है नेताओं का ये स्टैंड समाजवादी पार्टी और बीएसपी प्रमुखों ने पहले ही गेस कर लिया होगा - और अखिलेश यादव की मौजूदगी या मायावती की गैरमौजूदगी की एकमात्र वजह भी यही लगती है.
जिस पार्टी का भी उम्मीदवार जहां मजबूत है, पूरा विपक्ष सपोर्ट करे तो बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है - 2019 में भी ज्यादातर विपक्षी नेताओं की यही राय बनी थी, लेकिन राहुल गांधी ने प्रदेश कांग्रेस नेताओं के नाम पर कन्नी काट ली थी और कांग्रेस का न तो दिल्ली में न पश्चिम बंगाल में और न ही आंध्र प्रदेश में चुनावी समझौता हो पाया. अब भी नहीं लगता कि कांग्रेस नेतृत्व इस राय से कभी इत्तेफाक रखने वाला है.
कांग्रेस लगता है समस्याओं का संस्थान बन कर रह गयी है. अंदर भी दिक्कत है और बाहर से भी. तभी तो अकाली नेता नरेश गुजराल का कहना रहा, कांग्रेस को सबसे पहले तो गांधी परिवार के चंगुल से मुक्त होना होगा. नेशनल कांफ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला की भी तकरीबन यही राय रही. G-23 नेताओं को लेकर बोले भी - ये लोग एक बड़ी पहल किये हैं और इसीलिए मैं भी और बाकी नेता भी सपोर्ट कर रहे हैं.
कांग्रेस नेतृत्व को लेकर तो सबकी एक ही राय रही, लेकिन तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी की बातों से लगता है जैसे कुछ मतभेद पनप रहे हों. बीजेपी को चैलेंज करने के मामले में जब डेरेक ओ ब्रायन ने ममता बनर्जी को क्रेडिट देने की कोशिश की, तो शरद पवार से बर्दाश्त नहीं हुआ और तपाक से महाराष्ट्र मॉडल की मिसाल दे बैठे.
डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि पश्चिम बंगाल में जिस तरीके से ममता बनर्जी ने जीत हासिल की है, ऐसा नहीं है कि बीजेपी को शिकस्त नहीं दी जा सकती. शरद पवार ने कहा कि महाराष्ट्र मॉडल उदाहरण है और बाकी राजनीतिक दल भी बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने के लिए ऐसे गठबंधन कर सकते हैं. शिवसेना नेता संजय राउत ने भी शरद पवार की बातों को एनडोर्स करते हुए समझाया, महाराष्ट्र मॉडल मिसाल है - अगर राजनीतिक दल अपने मतभेदों को किनारे रख बड़े लक्ष्य के लिए मिल कर काम करें.
विपक्ष की बैठकों में ऐसी बातें खूब होती हैं, लेकिन उन पर अमल करने की बारी आती है तो आम राय नहीं बन पाती - सबसे बड़ा सवाल यही रह जाता है कि क्या कांग्रेस एक बार फिर अखिलेश यादव के नेतृत्व को मानेगी और क्या पंजाब में अकाली दल को कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार होगा?
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