राहुल-सोनिया को सच का सामना कांग्रेसी ही करा रहे, ओबामा तो बस रिमाइंडर हैं!
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) को कांग्रेस के ही सीनियर नेता पार्टी की हकीकत से रूबरू कराने की लगातार कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वे हैं कि मानते ही नहीं - बराक ओबामा (Barack Obama) की किताब तो सिर्फ रिमाइंडर है.
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बिहार की हार और बराक ओबामा की किताब, कांग्रेस नेतृत्व के लिए डबल बैरल मुसीबत बन कर आयी है. महागठबंधन साथी आरजेडी नेताओं के बाद मौका देख कर कुछ कांग्रेसियों ने सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को आईना दिखाने और नसीहत देने का प्रयास किया है - लेकिन वो पक्के घड़े पर पड़े पानी की तरह बह जा रहा है.
सीनियर कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने एक इंटरव्यू को राहुल गांधी और सोनिया गांधी को चेतावनी देने का हथियार बनाया - और फिर सारे दरबारी समझे जाने वाले नेता बारी बारी उन पर वैसे ही टूट पड़े जैसे 23 नेताओं वाली चिट्ठी को लेकर धावा बोल दिये थे.
सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा सभी ऐसे मामलों में मनमोहन सिंह की तरह खामोशी अख्तियार कर लेते हैं और फिर उनके करीबी नेताओं की चौकड़ी उनकी मन की बात का सीधा प्रसारण शुरू कर देते हैं. कपिल सिब्बल के खिलाफ अशोक गहलोत सहित तमाम कांग्रेस आक्रामक रुख अख्तियार कर चुके हैं.
कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि सोनिया-राहुल सच का सामना करने को तैयार नहीं हो रहे हैं - और सत्ता से दूर हो चुके नेताओं को भी सुर्खियों से दूर रहने का दर्द बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है, लिहाजा वे भी वही तरीका अपना रहे हैं जो राहुल गांधी आजमाते रहते हैं - भूकंप लाने वाली बयानबाजी और आंख मारने जैसी हरकतें करके. बदनामी ही सही नाम तो हो रहा है ना - है कि नहीं?
बिहार चुनाव में हार जहां कांग्रेस की हकीकत के एक और पन्ने जैसी है, वहीं बराक ओबामा (Barack Obama) की किताब से बन रहीं खबरें रिमाइंडर जैसी लगती हैं - असल बात तो ये है कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी को कांग्रेसी ही सच का सामना कराने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वे हैं कि मानते ही नहीं!
'मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त' जैसा हाल क्यों?
बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद आज तक पर बहस में कांग्रेस नेता तारिक अनवर, जेडीयू नेता केसी त्यागी और बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा शामिल थे. बहस के दौरान केसी त्यागी ने तारिक अनवर से पुरानी दोस्ती के हवाले के साथ ही उनको एक संजीदा नेता बताया और संबित पात्रा ने भी पूरी इज्जत बख्शी, लेकिन जैसे ही तारिक अनवर ने राहुल गांधी का बचाव करते हुए बेकसूर साबित करने की कोशिश की वो पूरी तरह घिर गये.
दरअसल, तारिक अनवर बिहार में कांग्रेस की हार का सारा दोष अपने साथ साथ बिहार कांग्रेस के नेताओं पर भी थोपने की कोशिश कर रहे थे. कह रहे थे - राहुल गांधी ने तो बोला ही था कि जब जरूरत हो, जहां कहीं भी जरूरत हो बुला लेना, लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सका. तारिक अनवर ने ये भी समझाने की कोशिश की कि कोई राष्ट्रीय नेता थोड़े ही राज्यों के चुनाव के लिए सब कुछ करेगा.
तारिक अनवर की दलील अपनी जगह है, लेकिन वो ये कैसे भूल जाते हैं कि राहुल गांधी का मुकाबला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह से है जो छोटे से छोटे चुनाव को भी देश के आम चुनाव जितना ही महत्व देते हैं और हर चुनाव जीतने के लिए जी जान लड़ा देते हैं.
राहुल गांधी और सोनिया गांधी की दुविधा ही कांग्रेस को चौतरफा घेर रही है!
लेकिन कांग्रेस के पूर्व सांसद फुरकान अंसारी, तारिक अनवर से इत्तेफाक नहीं रखते और कहते हैं कि राहुल गांधी के कार्यालय में नॉन-पॉलिटिकल लोगों का जमावड़ा लगा है... MBA पास लोग उनके सलाहकार हैं... वे हवाई यात्रा की व्यवस्था तो कर सकते हैं, पर राजनीतिक समझ उनमें नहीं है... अति आत्मविश्वास बिहार चुनाव में कांग्रेस को ले डूबा.'
राहुल गांधी और सोनिया गांधी को सलाह देने के मामले में कपिल सिब्बल को बाकी साथी कांग्रेस नेताओं की तुलना में पहले परहेज करते हुए देखा जाता रहा. कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमले से बचने को लेकर जयराम रमेश, शशि थरूर और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे नेता तो अक्सर शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित कांग्रेस के लिए स्थायी नेतृत्व को लेकर सलाह देते देखे गये, लेकिन कपिल सिब्बल या तो चुप रह जाते या फिर नजरअंदाज कर देते रहे.
हाल फिलहाल देखें तो कपिल सिब्बल का कांग्रेस नेतृत्व पर ये तीसरा हमला है - ये बड़े ही रचनात्मक अंदाज में सचिन पायलट और अशोक गहलोत विवाद के बीत शुरू हुआ जब सिब्बल ने अस्तबल से सारे घोड़ों के भाग जाने की आशंका जतायी थी. फिर कांग्रेस में काम करते देखे जाने वाले अध्यक्ष की डिमांड वाली चिट्ठी आयी - और अब बिहार चुनाव में हार को लेकर उनका रिएक्शन आया है.
Worried for our party
Will we wake up only after the horses have bolted from our stables ?
— Kapil Sibal (@KapilSibal) July 12, 2020
कपिल सिब्बल का कहना रहा कि ऐसा लगता है कि पार्टी नेतृत्व ने शायद हर चुनाव में हारने को ही अपनी नियति मान लिया है. साथ ही ये भी कहा कि बिहार ही नहीं, उपचुनावों के नतीजों से भी ऐसा लग रहा है कि देश के लोग कांग्रेस पार्टी को प्रभावी विकल्प नहीं मान रहे हैं.
कपिल सिब्बल की तरह ही कार्ती चिदंबरम ने आत्ममंथन की जरूरत बतायी तो उनके पिता पी. चिदंबरम ने भी अपनी चिंता साझा की है. चिदंबरम ने भी अपनी बात एक इंटरव्यू में ही कही है.
दैनिक भास्कर के साथ इंटरव्यू में कांग्रेस के सीनियर नेता पी. चिदंबरम से सवाल था - 'कोरोना और आर्थिक मंदी के मुद्दों के बावजूद बिहार और उपचुनावों में अच्छा प्रदर्शन क्यों नहीं हुआ?'
पी. चिदंबर बोले, 'मैं गुजरात, मध्य प्रदेश, यूपी और कर्नाटक के उपचुनावों के नतीजों से ज्यादा चिंतित हूं... ये नतीजे बताते हैं जमीनी स्तर पर या तो पार्टी का संगठन कहीं नहीं है - या कमजोर पड़ चुका है... बिहार में राजद-कांग्रेस के लिए जमीन उपजाऊ थी... हम जीत के इतने करीब होकर क्यों हारे?'
लेकिन अशोक गहलोत, सलमान खुर्शीद और अधीर रंजन चौधरी जैसे नेताओं को कपिल सिब्बल या पी. चिदंबरम जैसे नेताओं को नहीं सुहा रहा है. राहुल गांधी और सोनिया गांधी तक विरोध की ये आवाज पहुंचे उससे पहले ही ऐसे नेता काउंटर अटैक में जुट जाते हैं.
अशोक गहलोत की मानें तो कपिल सिब्बल को ऐसी बातें पार्टी फोरम पर ही उठाना चाहिये, लेकिन जब कांग्रेस के ही नेता सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखते हैं तो अशोक गहलोत और साथी उनके खिलाफ एक्शन लेने की मांग करने लगते हैं. वैसे भी पार्टी फोरम का क्या मतलब है जहां 23 नेताओं की चिट्ठी की बातों की जगह सवाल उठाने वालों का मुंह बंद करने को लेकर शोर मचायी जाये.
कपिल सिब्बल को काउंटर करने के लिए सलमान खुर्शीद फेसबुक पोस्ट लिखते हैं - और उन्हें अंग्रेजी में 'डाउटिंग थॉमस' यानी 'आदतन संदेह करने वाला' करार देते हैं और एक शेर के जरिये कटाक्ष करते हैं.
बिहार के बाद कांग्रेस का अगला इम्तिहान जिन इलाकों में होने वाला है, पश्चिम बंगाल भी उनमें से ही एक है. दिल्ली बुलाये जाने के बाद फिर से सूबे की कमान संभाल रहे, अधीर रंजन चौधरी ताना मार रहे हैं कि कपिल सिब्बल ने जब कुछ किया ही नहीं तो उनके बोलने का मतलब कोई आत्मविश्लेषण नहीं है. सवाल ये है कि कपिल सिब्बल और चिदंबरम जैसे नेताओं का व्यवहार 'मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त' जैसा क्यों लग रहा है?
विपक्षी खेमे में भी हाशिये पर कांग्रेस
उस टीवी बहस में जब तारिक अनवर ने कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी और राहुल गांधी को राष्ट्रीय नेता की दुहाई देने की कोशिश की तो उनके राजनीतिक विरोधी याद दिलाने लगे कि AIADMK की सीटें कांग्रेस से थोड़ी ही कम हैं तो किस बात की बड़ी पार्टी. तारिक अनवर आखिर तथ्यों को कहां तक झुठलाते, चुप होकर सुनना पड़ा.
मतलब, ये कि विपक्षी खेमा भी कांग्रेस को अब ज्यादा दिन तक नेतृत्व की भूमिका में छोड़ने वाला नहीं है. कांग्रेस के लिए सबसे मुश्किल वाली बात यही है. ऐसा न हो कांग्रेस कहीं विपक्ष की राजनीति से भी बाहर हो न हो जाये, सत्ता के तो लाले पड़े ही हैं.
कांग्रेस की सत्ता से दूरी राहुल गांधी और सोनिया गांधी को बहुत बेचैन कर रही है. शायद इसलिए भी क्योंकि विपक्ष की राजनीति का कांग्रेस को काफी कम अनुभव है - और उसके मौजूदा नेतृत्व को तो न के बराबर है, लेकिन जो हाल है , अगर विपक्ष की राजनीति पर भी कांग्रेस ने ध्यान नहीं दिया तो विपक्षी खेमे से ही कोई आगे बढ़ कर कब पछाड़ देगा कहना मुश्किल है?
अगर ऐसा हो गया तो सत्ता की बात तो बहुत दूर, कांग्रेस को विपक्षी जमावड़े में भी अपनी जगह बनाने के लिए नये सिरे से संघर्ष करना होगा. जब कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी होने पर भी राहुल गांधी को कोई तवज्जो नहीं दे रहा है, तो वैसी स्थिति में क्या होगा जब वो सबसे बड़ी पार्टी भी नहीं रह जाएगी. अभी तो थोड़ा बहुत लाज लिहाज बचा भी है - आगे क्या होगा?
बेहतर तो यही होता कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी हकीकत को समझने की कोशिश करते. चापलूसों की फौज हमेशा ही गुमराह करती है और उनको सिर्फ अपने हित साधने से मतलब रहता है. मानने की बात कौन कहे, राहुल गांधी तो कांग्रेस कार्यकारिणी में खुलेआम बोल भी चुके हैं कि अशोक गहलोत और कमलनाथ जैसे नेताओं को पार्टी हितों से ज्यादा निजी हितों की परवाह रहती है और प्रियंका गांधी वाड्रा तो ऐसे नेताओं के लिए हत्यारे जैसे शब्दों का भी प्रयोग कर चुकी हैं.
हो सकता है कांग्रेस नेतृत्व को लगता हो कि कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम जैसे नेता जो कुछ बोल रहे हैं वो उनके भी सत्ता से दूर रहने से पैदा हुई बेचैनी का नतीजा है और ये काफी हद तक सही भी लगता है. मगर, नेतृत्व का काम तो ये भी होता है कि साथियों को इस बात का कदम कदम पर अहसास कराये कि सभी मिलजुल कर संघर्ष कर रहे हैं, ऐसा नहीं लगने देना चाहिये कि नेतृत्व को अपने से तो किसी बात की परवाह नहीं है, ध्यान दिलाने पर भी उनको कोई मतलब नहीं है.
राहुल गांधी और सोनिया गांधी के सामने इससे बड़ी जलालत भरी डिमांड क्या होगी कि पार्टी नेता ऐसा अध्यक्ष चाहते हैं जो फील्ड में काम करता हुआ नजर आये. 23 नेताओं वाली चिट्ठी में यही तो बताया गया था. मतलब साफ था कि राहुल गांधी को लेकर उनको कभी नहीं लगा कि कि वो फील्ड में भी एक्टिव हैं.
बिहार चुनाव में महागठबंधन की हार के बाद तो आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी ने इल्जाम लगाया था कि चुनावों के दौरान राहुल गांधी पिकनिक मना रहे थे - कपिल सिब्बल भी तो उसी तरफ इशारा कर रहे हैं.
कपिल सिब्बल यही तो समझा रहे हैं कि राहुल गांधी को कांग्रेस के हारते रहने की आदत पड़ चुकी है, तभी तो वो चुनाव प्रचार की जगह पिकनिक मना रहे हैं. चूंकि ये बातें राहुल गांधी और सोनिया गांधी को अच्छी नहीं लगतीं इसलिए अशोक गहलोत जैसे नेता आगे बढ़ कर साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि वो विरोधियों के हमले सीने पर झेलने के लिए तैयार हैं.
कपिल सिब्बल जैसे नेता इसलिए भी इतनी हिम्मत जुटा पाते हैं क्योंकि राहुल गांधी और सोनिया गांधी पर चल रहे अदालती मामलों में वो पैरवी करते हैं. कांग्रेस नेतृत्व कपिल सिब्बल जैसे नेताओं की परवाह करता भले न दिखाये, लेकिन वो उनके साथ अशोक गहलोत के लाख शोर मचाने के बावजूद सचिन पायलट जैसा व्यवहार करने की तो सोच भी नहीं सकता.
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