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Updated: 02 अगस्त, 2017 06:33 PM
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कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने राहुल गांधी को फोन किया. करीब दस मिनट तक बातचीत हुई. सिद्धारमैया ने राहुल गांधी को अपने मंत्री के 39 ठिकानों पर आयकर विभाग की छापेमारी के बारे में जानकारी दी. राहुल गांधी ने उन्हें डट कर मुकाबला करने की सलाह दी. उधर, संसद में कांग्रेस के नेताओं ने खूब हंगामा किया. उनका आरोप है कि मोदी सरकार कांग्रेस नेताओं को टारगेट कर रही है. इस पर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकार का बचाव किया और साफ करने की कोशिश की कि राज्य सभा चुनाव से छापों का कोई मतलब नहीं है. फिर बीजेपी नेताओं ने कांग्रेस को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की ये कह कर कि सोनिया और राहुल की कार्यशैली से उनके नेता तंग आ चुके हैं और पार्टी में मची भगदड़ की यही वजह है.

बीजेपी नेता इतना जोर देकर ये सब इसलिए कहने लगे हैं क्योंकि कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं का राहुल गांधी पर आरोप रहा है कि वो किसी की नहीं सुनते. कभी उनकी समस्याओं पर ध्यान भी नहीं देते. आजिज आकर उन्हें इधर उधर देखना पड़ता है. पहले उत्‍तराखंड के विजय बहुगुणा, असम के हिमंत बिस्वा सरमा और ताजा ताजा गुजरात के शंकरसिंह वाघेला के बयान इसकी पुष्टि भी करते हैं.

अब सवाल ये उठता है कि राहुल गांधी क्या वाकई नेताओं की बातों पर ध्यान नहीं देते या कुछ और वजह है? यूपी और पंजाब चुनाव में कांग्रेस के चुनाव प्रचार की कमान संभाल चुके प्रशांत किशोर के करीबी तो कुछ और ही इशारा करते हैं. उनकी मानें तो कांग्रेस में राहुल गांधी की कोई सुनता ही नहीं. सुनने में ये बहुत अजीब लगता है, लेकिन कुछ घटनाएं उनकी दलील से मेल भी खाती हैं. फिर क्या समझा जाये?

ऐसा कैसे हो सकता है?

प्रशांत किशोर, जिन्हें पीके के नाम से भी जाना जाता है, उनके करीबियों के हवाले से दो बातें खबरों में आई हैं. एक तो ये कि महागठबंधन या बिहार में जो कुछ हुआ है उससे पीके का कोई नाता नहीं है. दूसरा, राहुल गांधी चाहकर भी कांग्रेस में काम नहीं कर पाते. पीके के करीबियों ने इसमें यूपी चुनावों से जुड़े कुछ उदाहरण पेश किये हैं.

rahul gandhi, sonia gandhiआखिर किसने वीटो हासिल कर रखा है...

बड़ा ही अजीब लगता है ये जानकर कि कांग्रेस के लोग ही राहुल गांधी को काम नहीं करने देते. जिस पार्टी के बारे में समझा जाता हो कि गांधी परिवार के अलावा वहां कोई प्रभावी नहीं हो सकता. पीवी नरसिम्हाराव का कार्यकाल इसका अपवाद जरूर है, लेकिन उसके आगे पीछे का हाल तो एक ही जैसा रहा है. यूपी के दस साल के कार्यकाल में तो सोनिया ने कई मामलों में इंदिरा गांधी से भी बढ़ कर सख्त रवैया दिखाया और नेताओं ने उन्हें सिर माथे पर लिया.

आज तक की रिपोर्ट के मुताबिक पीके के करीबियों ने ऐसे कई उदाहरण दिये हैं जिनसे उनकी बात में दम नजर आता है. उनका दावा है कि यूपी चुनाव के दौरान कई मुद्दों पर राहुल और पीके सहमत थे, लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने उन पर अमल नहीं होने दिया. इन करीबियों के अनुसार यूपी में प्रियंका गांधी को उम्मीदवार बनाने पर सहमति बन चुकी थी लेकिन पार्टी इसके लिए तैयार नहीं हुई. प्रियंका नहीं तो राहुल गांधी सीएम उम्मीदवार बनते, इस पर भी पीके और राहुल में सहमति थी, लेकिन कांग्रेस पार्टी को ये भी मंजूर नहीं था. पीके के करीबी इन्हीं बातों के आधार पर दावा कर रहे हैं कि राहुल की कांग्रेस में कम चलती है.

ये दावे वैसे तो काफी अजीब से हैं लेकिन उस दौरान मीडिया में आई खबरें कुछ हद तक मेल भी खाती हैं. तब खबर थी कि कांग्रेस नेताओं को ये बात नागवार गुजर रही थी कि कोई बाहरी शख्स उन्हें बताये कि क्या करना है और क्या नहीं. उसी दौरान प्रशांत किशोर ने पूरे यूपी से जिला स्तर के नेताओं की एक मीटिंग बुलाई थी जिसमें बाकी सब तो आये लेकिन अमेठी और राजबरेली के कांग्रेस नेता पहुंचे ही नहीं. बताया गया कि वो इलाका खुद प्रियंका गांधी देखती हैं और वहां किसी को सलाह देने की जरूरत नहीं है. पीके को काम करने के लिए वो जगह भी नहीं दी गयी जहां वो चाहते थे. बाद में पीके को सिर्फ सलाह देने तक सीमित रहने की सलाह दी गयी थी.

ये कौन लोग हैं?

आखिर कांग्रेस में ये कौन लोग हैं जो राहुल गांधी के फैसलों में भी वीटो का अधिकार हासिल कर चुके हैं? क्या ये वही लोग हैं जिनके चलते राहुल गांधी की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी रुकी हुई है और उसके लिए खुद उन्हीं को जिम्मेदार बता दिया जाता है? कई बार तो ऐसे नेता खुल कर भी सामने आ चुके हैं. शीला दीक्षित और कैप्टन अमरिंदर सिंह इनमें प्रमुख स्वर रहे हैं. हालांकि, बाद में कैप्टन अमरिंदर बदले हुए नजर आये हैं.

क्या ये वही लोग हैं जिन्होंने दिग्विजय सिंह को हाशिये पर ला दिया है. गोवा और मणिपुर में बीजेपी के सरकार बना लेने के बाद दिग्विजय सिंह हर किसी के निशाने पर रहे. धीरे धीरे करके दिग्विजय से सारे राज्यों के प्रभार वापस लिये जाने लगे हैं. तेलंगाना उनमें लेटेस्ट है. अब दिग्विजय सिंह के पास सिर्फ आंध्र प्रदेश का प्रभार बचा है. ये दिग्विजय सिंह ही हैं जो कभी राहुल गांधी के सबसे करीबी सलाहकार हुआ करते थे. 2009 में यूपी में कांग्रेस को मिली 22 सीटों के लिए राहुल गांधी जो तारीफ बटोर रहे थे उसके पीछे दिग्विजय का ही दिमाग माना गया था. बाद के दिनों में बटला हाउस जैसे मामलों में दिग्विजय के बयान और 2012 में यूपी में कांग्रेस की हार के बाद दिग्विजय किनारे किये जाने लगे.

जब राहुल गांधी दावा कर रहे थे कि उनके बयान से भूकंप आ जाएगा तभी एक घटना हुई. राहुल गांधी अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से किसानों के मुद्दे पर मिलने चले गये. मोदी और उनकी टीम को तो जैसे इंतजार ही था. फौरन बाद ही मुलाकात की तस्वीर ट्विटर पर शेयर हुई और राहुल गांधी निशाने पर आ गये. सोशल मीडिया पर तो लोगों ने मन की बात कही ही, कांग्रेस के अंदर भी कई वरिष्ठ नेताओं ने राहुल और इसे प्लान करने वाली उनकी टीम पर उंगली उठायी.

तब इसे राहुल की युवा टीम और सोनिया की सीनियर टीम के बीच वर्चस्व के संघर्ष के तौर पर देखा गया. इस पर राहुल की टीम को रक्षात्मक रुख अपनाना पड़ा जबकि सीनियर नेताओं की टीम लगातार हमलावर बनी रही.

तो क्या बिहार के मामले में भी राहुल गांधी इसीलिए कुछ नहीं कर पाये क्योंकि कांग्रेस में ऐसे तत्व रोड़ा बने रहे. राहुल गांधी का बयान था कि उन्हें तीन-चार महीने से साजिश के बारे में मालूम था. राहुल गांधी ने नीतीश के बीजेपी से हाथ मिला लेने पर तो धोखेबाजी का आरोप लगाया लेकिन वो जानबूझ कर खामोश क्यों रहे रहस्य बना हुआ है. क्या साजिश का पता लगने के बावजूद राहुल गांधी कोई कदम इसलिए नहीं उठा पाये कि कांग्रेस भीतर सक्रिय ऐसी कोई लॉबी हावी रही?

यूपी चुनाव से पहले सोनिया गांधी के बीमार हो जाने के कारण उनकी सक्रियता कम हो गयी थी. लेकिन बीमार होने के बावजूद राष्ट्रपति चुनाव में अस्पताल में रहते हुए भी वो काफी एक्टिव देखी गयीं. बावजूद इसके राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार घोषित करने में देर हो गयी जिसे सभी ने बड़ी चूक माना. क्या कांग्रेस में फैसले लेने में होने वाली देर की वजह कोई अंदरूनी लॉबी इतनी सक्रिय हो सकती है? लगता तो नहीं लेकिन इस बात से इंकार करना भी मुश्किल हो रहा है कि कांग्रेस मुक्त भारत के बीजेपी के अभियान में इनका भी कम योगदान नहीं है.

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