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Updated: 28 जनवरी, 2020 12:23 PM
देव अंकुर वधावन
देव अंकुर वधावन
  @dev.wadhawan
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जनवरी का महीना और जयपुर (Congress rally Jaipur) का शहर जनपथ पर बैठने वाली कांग्रेस (Congress) पार्टी के लिए कुछ अलग मायने रखता है. शायद यही वजह है कि 2013 की तरह 2020 में अपने युवराज राहुल गांधी (Rahul Gandhi Jaipur rally) को एक नए अवतार में लॉन्च करने की जुगत में जुटी कांग्रेस ने एक बार फिर जयपुर को ही चुना है. 28 जनवरी को जयपुर की इसी धरती के अल्बर्ट हॉल के सामने एक बार फिर कांग्रेस का यह नेता, जो कि 49 की उम्र में अब उतना युवा नहीं रहा, ललकार भरेगा.

कांग्रेस ने अपनी इस रैली को युवा आक्रोश रैली (Yuva Aakrosh Rally) का नाम दिया है. यह रैली केंद्रित है बेरोजगारी, महंगाई और अर्थव्यवस्था में छाई मंदी पर, ताकि जो युवा वर्ग कांग्रेस से 2014 में रूठकर बीजेपी की तरफ जा चुका था, उसे किसी तरह पार्टी की तरफ वापस खींचा जा सके. इनके अलावा देश में जगह-जगह चल रहे नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी और एनपीआर को लेकर विरोध में कांग्रेस को अपने लिए संजीवनी बूटी नजर आ रही है. यही वजह है कि राहुल गांधी की रैली से पहले नागरिकता संशोधन कानून को राजस्थान में लागू न करने के प्रस्ताव को पारित कर दिया गया. इस कानून के विरोध, बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई से उत्पन्न स्थिति में कांग्रेस को अपनी कायापलट का आगाज नजर आ रहा है.

Rahul Gandhi Jaipur Rally Yuva Aakroshप्रोजेक्ट राहुल गांधी लॉन्चिंग 2.0 के आगाज का साक्षी जयपुर को ही कहा जाएगा.

पर क्या ऐसा हो पाएगा? यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका कोई आसान जवाब नहीं है.

याद करिए 2013 का जनवरी का वह महीना जब पार्टी के आला नेताओं ने जयपुर के बिरला ऑडिटोरियम में अपने युवराज के सिर कांग्रेस के उपाध्यक्ष का ताज रख दिया था. उम्मीद थी कि 2014 के लोकसभा चुनाव में वह नरेंद्र मोदी को कड़ा मुकाबला देंगे. पर समय ने कांग्रेस को ऐसी धूल चटाई कि दोबारा खड़ा हो पाना पार्टी के लिए बेहद मुश्किल साबित हो रहा है. और एक बार फिर से जब कांग्रेस अपने सुनहरे दिनों की वापसी के सपने देखने में लगी है तो इसकी शुरुआत के लिए राजस्थान से अच्छा कोई राज्य इसे लग नहीं रहा.

प्रदेश में कांग्रेस के गांधी परिवार के सबसे मजबूत सिपहसालारों में शुमार अशोक गहलोत सूबे के मुखिया के तौर पर काबिज हैं. इनका राजनीतिक अनुभव राहुल गांधी के समय-समय पर काम आता रहा है. राजनीति के जादूगर माने जाने वाले यह चाणक्य सोनिया और प्रियंका के पहले से ही विश्वास का पात्र हैं तथा इनके राजनीतिक चातुर्य का कांग्रेस कई बार इस्तेमाल भी करती आई है, जो कि गुजरात और कर्नाटक में सामने आ चुका है. यही वजह है कि जब गांधी परिवार और 10 जनपथ से जुड़े लोग युवराज का राजनीतिक करियर एक बार फिर खड़ा करने की जुगत में लगे हैं तो राजस्थान और गहलोत से अच्छा विकल्प उन्हें कुछ समझ नहीं आया.

प्रदेश में गहलोत राजनीतिक शतरंज के पहुंचे हुए खिलाड़ी माने जाते हैं जिन्हें अपने प्रतिद्वंद्वियों को अच्छे से किनारे लगाना आता है. गहलोत मानते हैं कि राजस्थान के राजनीतिक गलियारों में तो उन्हीं का परचम है और यह कह भी चुके हैं कि राज्य में हुए विधानसभा चुनाव से पहले लोगों ने आगे बढ़कर कहा था कि उन्हें ही प्रदेश का मुख्यमंत्री बनना चाहिए ना कि किसी और को.

देश में इस समय बेरोजगारी पिछले कई दशकों के मुकाबले अपने चरम पर है. महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ रखी है. सीएए, एनआरसी, एनपीआर के विरोध में देश के कई राज्यों में हजारों, लाखों की संख्या में लोग विरोध प्रदर्शन कर चुके हैं. ऐसे में क्या कांग्रेस जयपुर की इस रैली के जरिए अपनी इस मरणावस्था से बाहर निकल कर देश में फैले आक्रोश और रोष को इकट्ठा कर पाएगी? यह तो समय ही बताएगा, पर साफ है कि प्रोजेक्ट राहुल गांधी लॉन्चिंग 2.0 के आगाज का साक्षी जयपुर को ही कहा जाएगा.

बात 2013 की है. तब भी अभी की तरह जनवरी का ही महीना था.

कांग्रेस के जयपुर के बिरला ऑडिटोरियम में चल रहे चिंतन शिविर के दौरान तब के कांग्रेसी दिग्गज नेता जिनमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह, अहमद पटेल, सुशील कुमार शिंदे, शीला दीक्षित समेत कई नेता शामिल थे, और उनके बीच कांग्रेस के तब के महासचिव राहुल गांधी मौजूद थे.

एक के बाद एक नेता राहुल गांधी को कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट करने पर जोर दे रहे थे. 2014 का चुनाव करीब था और नरेंद्र मोदी से होने वाला मुकाबला और उससे उत्पन्न होने वाली चुनौतियां कांग्रेस के तब के दिग्गज नेताओं को परेशान कर रही थीं.

मानस इस तरफ बन रहा था कि बीजेपी के तुरुप के पत्ते से मिल रहे चैलेंज के मुकाबले के लिए कांग्रेस को राहुल गांधी जैसे युवा नेता को मैदान में उतारना चाहिए. ताकि लोगों को साफ तौर पर अपनी पसंद के नेता को चुनने का मौका मिले और जयपुर के बिरला ऑडिटोरियम में चल रहे महाधिवेशन के आखरी दिन वह हुआ जिसका पहले से अंदेशा हो चुका था.

चिंतन शिविर में कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने राहुल गांधी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के तौर पर ऐलान कर दिया गया. पार्टी में राहुल गांधी का दूसरे नंबर पर काबिज होने की औपचारिकता को भी इस मंच से पूरा कर दिया गया था. फिर तब के 42 साल के राहुल गांधी ने खड़े होकर भावुक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि मां सोनिया गांधी उनके कमरे में आईं और रोईं... क्योंकि वह जानती हैं कि सत्ता जहर है.

तब से लेकर अब तक काफी समय बीत चुका है. कई राजनीतिक भूचाल आ चुके हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी अपना परचम लहराने के बाद 2019 में फिर सत्ता में काबिज होने में सफल साबित हुए.

आज की भाजपा हर तरीके से 21वीं सदी में राजनीति करने के लिए कांग्रेस से ज्यादा तैयार और परिपक्व नजर आती है. यह वह पार्टी है जो समय के साथ आगे बढ़ चली है और मुरली मनोहर जोशी, लालकृष्ण आडवाणी समेत तमाम नेता, जिन्होंने पार्टी की नींव रखी और उसे खड़ा किया, पीछे कर दिए गए हैं. अब यह मोदी-शाह की पार्टी बन गई है.

कांग्रेस को यह समझने की जरूरत है कि उसका मुकाबला ऐसे नेताओं से है जो 24/7 राजनीति करते हैं. ये तीन महीने देश में रहने के बाद डेढ़ महीना विदेश में छुट्टियां नहीं मनाते. वे नेता, जो आज की तारीख में सोशल मीडिया और मेनस्ट्रीम मीडिया पर किस तरह से छाया जा सकता है और छाए रहा जा सकता है, भली-भांति जानते हैं. एक तरफ ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम से अनभिज्ञ नहीं है तो दूसरी तरफ यह भी जानते हैं कि नैरेटिव को किस तरह शिफ्ट किया जा सकता है.

2013 को बीते सात साल हो चुके हैं. समय बदला है. राहुल गांधी भी कुछ बदले हैं, पर क्या वह एक ऐसी पार्टी को नेतृत्व देने के सक्षम हो पाए हैं जो दो लोकसभा चुनावों को हारने के बावजूद पार्टी की दशा और दिशा सुधारने के लिए गांधी परिवार से आगे नहीं देख पा रहा है?

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