राहुल गांधी 'रुपैया बनाम राष्ट्रवाद' की लड़ाई में बीजेपी को उलझा कर फंस गये!
राहुल गांधी महसूस करने लगे थे कि बीजेपी के राष्ट्रवाद के एजेंडे में कांग्रेस बुरी तरह जकड़ती जा रही है. कांग्रेस घोषणा पत्र का इशारा भी यही है. चुनावी वादों के जरिये कांग्रेस ने बीजेपी की मुश्किलें तो बढ़ाई है, लेकिन मसाले भी दे डाला है.
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पुलवामा, बालाकोट एयर स्ट्राइक और भारत-पाक के बीच तनावपूर्ण माहौल में पूरे विपक्ष के साथ कांग्रेस खास तौर पर केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के निशाने पर रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह लगातार राहुल गांधी को सवालों के घेरे में खड़ा करते आ रहे हैं - और कांग्रेस सहित विपक्षी नेताओं पर पाकिस्तान की भाषा बोलने का सीधा इल्जाम लगाते रहे हैं.
बीजेपी के 'राष्ट्रवाद' के एजेंडे में बुरी तरह उलझ चुकी कांग्रेस ने अब 'रुपये' के जरिये काउंटर करने की कोशिश की है. वोट बटोरने में 'रुपये' का रोल हमेशा ही असरदार माना गया है, चाहे वो प्रत्यक्ष हो या फिर परोक्ष रूप से ही क्यों न हो. चुनावों के दौरान नेताओं के रुपये बांट कर वोट हासिल करने की कोशिश अक्सर सुर्खियों में रहा करती है - और कई बार तो चुनाव तक रद्द करने की नौबत आ जाती है.
काम के बदले भी पैसा लुभाता है और मुफ्त में मिलने की बात हो तो फिर क्या कहने. मनरेगा कांग्रेस का आजमाया हुआ नुस्खा है और माना जाता है कि 2009 में कांग्रेस की वापसी में योजना की अहम भूमिका थी. बीजेपी पहले मनरेगा की आलोचक रही, लेकिन सत्ता में आने के बाद उसके विचार बदल गये जिसकी वजह स्कीम में लोगों की दिलचस्पी ही रही. कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में मनरेगा के तहत रोजगार 100 दिन से बढ़ाकर 150 दिन करने का वादा किया है.
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद 'खून की दलाली' और बालाकोट एयर स्ट्राइक को लेकर कांग्रेस नेताओं का सबूत मांगने वाले बयान पार्टी के खिलाफ जा रहे थे. सिद्धू से लेकर सैम पित्रोदा तक अपने बयानों के चलते बीजेपी के हमलों से बचाव की मुद्रा में आ जाते रहे - और राहुल गांधी के लिए नई मुश्किलें खड़ी होती जा रही थीं.
राहुल गांधी के सामने बीजेपी के राष्ट्रवाद का एजेंडा भारी पड़ने लगा था, इसीलिए कांग्रेस में मैनिफेस्टों में बहस को 'राष्ट्रवाद बनाम रुपया' बनाने की कोशिश की गयी है - ऐसा लग रहा है कि अपने एजेंडे पर आगे बढ़ती कांग्रेस ने बीजेपी की मुश्किलें बढ़ाई तो है, लेकिन मसाला भी दे दिया है.
राष्ट्रवाद के मुकाबले 'रुपैया'
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ने के बाद विपक्षी खेमे में इस बात की बड़ी फिक्र रही है कि बीजेपी को इससे काफी फायदा हो रहा है. यहां तक कि खुफिया एजेंसी रॉ के प्रमुख रह चुके एएस दुल्लत ने तो किस्मत कनेक्शन ही जोड़ दिया. बीजेपी की इस बढ़त से उबरने के लिए पूरा विपक्ष अपनी अपनी तरकीबें निकाल रहा है. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का हवाला देकर सबूत भी मांगे जाने लगे थे, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी आसानी से सपूत ही सबूत है कह कर विपक्ष को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. सबसे ज्यादा मुश्किल में तो कांग्रेस ही फंसी हुई थी - मैनिफेस्टो के जरिये कांग्रेस ने बीजेपी को हर तरह से काउंटर करने की कोशिश की है.
मध्य प्रदेश राहुल गांधी के लिए बढ़िया चुनावी प्रयोगशाला बनता जा रहा है. 2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने जब किसानों की कर्जमाफी की घोषणा की तो मालूम हुआ कई किसानों ने लोन की रकम लौटानी ही बंद कर दी थी - बाद में वोट तो दिया ही. अब राहुल गांधी की न्याय स्कीम को लेकर भी एक वाकया सामने आया है.
इंदौर के एक शख्स ने तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देने पर तब तक स्टे लगाने की अपील की है जब तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार नहीं बन जाती. उस व्यक्ति का कहना है कि जब उसे राहुल गांधी की न्याय योजना से पैसा मिलने लगेगा तभी वो गुजारा भत्ता दे पाएगा. पत्नी ने बच्चे के पालन-पोषण हेतु गुजारा भत्ता के लिए याचिका दी थी जिस पर कोर्ट ने ₹4500 देने का आदेश दिया था. पति का कहना है कि वो बेरोजगार है इसलिए कांग्रेस सरकार बनने के बाद जब उसे ₹6000 मिलने लगे तो उसमें से ₹4500 पत्नी के खाते में ट्रांसफर कर दिये जायें.
बीजेपी को घेरने के चक्कर में कांग्रेस ने अपनी भी मुसीबतें बढ़ा ली है
किसानों का लोन वापस न करना और इस शख्स का गुजारा भत्ते के लिए कांग्रेस सरकार का इंतजार करना भले अजीबोगरीब लगें, लेकिन ये पैसे के प्रभाव को समझा तो रहे ही हैं. मनरेगा के तहत 100 दिन के रोजगार की गारंटी जिनके लिए कुछ भी नहीं उनके लिए बहुत मायने रखती है.
कांग्रेस ने रुपये को अहमियत देते हुए चुन चुन कर लोगों को जोड़ने की कोशिश की है. 22 लाख युवाओं को रोजगार देने का वादा, पंचायतों में 10 लाख रोजगार देने की बात और 2020 तक सभी सरकारी नौकरियों के खाली पद भरे जाने जैसी बातें ऐसी मुद्दे हैं जो एक बड़ी आबादी को आकर्षित करते हैं.
कांग्रेस ने बड़ी बुद्धिमानी से जगह जगह लोगों को रुपये के फायदे से जोड़ने की कोशिश की है. किसानों की कर्जमाफी, न्याय योजना और सरकारी नौकरियां - ये सब ऐसी बातें हैं जो लोगों को अपनी ओर खींचती हैं.
कांग्रेस ने लोगों के सामने सवाल खड़ा कर दिया है कि उन्हें कर्जमाफी चाहिये, खाते में ₹72000 हर साल चाहिये, सरकारी नौकरी चाहिये - या पाकिस्तान का नेस्तनाबूद होना जरूरी है.
किसानों को कर्जमाफी के साथ लोन न चुकाने की स्थिति में उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमें न दायर होने देने का वादा भी पार्टी को कनेक्ट करने में महत्वपूर्ण हो सकता है. हालांकि, मोदी सरकार ने किसान सम्मान निधि लाकर किसानों की नाराजगी दूर करने की अपनी ओर से पूरी कोशिश की है. कांग्रेस के मैनिफेस्टो में AFSPA और देशद्रोह कानून को हटाने की बात पार्टी के नजरिये में बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा सकता है.
सेक्युलरिज्म और सॉफ्ट हिंदुत्व से आगे बढ़ती कांग्रेस
देश की राजनीति में सेक्युलरिज्म की पैरोकार कांग्रेस लीक से हटकर नयी लाइन लेने की कोशिश करती लग रही है. ऐसे में जबकि लोग देशभक्ति और देशद्रोह के मुद्दे पर दो तरफ खड़े नजर आ रहे हों, गोरक्षा और गोकशी को लेकर मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हों, कांग्रेस ने देशद्रोह की धारा 124A को खत्म करने का वादा किया है.
अब तक कांग्रेस, बीजेपी पर सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने और बीजेपी कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण के इल्जाम लगाते रहे हैं. कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल ये रही कि बीजेपी ने उसे मुस्लिम पार्टी के रूप में स्थापित कर दिया था - इसी बात से उबरने के लिए राहुल गांधी मंदिर और मठों का दौरा करते रहे तो कभी कांग्रेस उन्हें जनेऊधारी हिंदू तो कभी शिव भक्त के रूप में प्रोजेक्ट करती रही. यूपी का प्रभार मिलने के बाद प्रियंकागांधी वाड्रा का गंगावतरण और देवी दर्शन कार्यक्रम भी उसी के चलते बनाया जाता रहा है. कांग्रेस के इस कदम को सॉफ्ट हिंदुत्व माना गया है. हो सकता है कांग्रेस को लग रहा हो कि अब उसे ऐसी चीजों की जरूरत नहीं रही. वो धीरे धीरे अपनी छवि सुधारने में कामयाब हो चुकी है.
मैनिफेस्टो से कांग्रेस जो मैसेज देने की कोशिश कर रही है वो यही है कि अब उसे बचाव की मुद्रा में रहने की जरूरत नहीं है - कांग्रेस अब फ्रंटफुट पर खेलने के लिए उतर रही है. देशद्रोह कानून और AFSPA (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट) में बदलाव का फैसला कांग्रेस ने क्या सोच कर किया है फिलहाल समझना मुश्किल हो रहा है.
AFSPA और देशद्रोह के लिए बने कानून पर कांग्रेस के ताजा विचार को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ा जाने लगा है. कांग्रेस की दलील है कि AFSPA में बदलाव कर सुरक्षा बलों की ताकत और आम लोगों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करना चाहती है.
ये ऐसे मसले रहे हैं जिनके जरिये बीजेपी कांग्रेस को घेरते हुए राष्ट्रवाद का अपना एजेंडा बढ़ाती रही है. काफी पहले एक रिपोर्ट से मालूम हुआ था कि देशद्रोह के सबसे ज्यादा मामले बिहार में दर्ज हुए थे और सबसे कम कश्मीर में. रिपोर्ट में इसकी वजह विरोधियों को निशाना बनाने के इरादे से जोड़ कर देखा गया था. ये रिपोर्ट नेशनल क्राइम ब्यूरो के 2017 के रिपोर्ट पर आधारित थी.
ऐसा लगता है कांग्रेस की नजर उस वोट बैंक पर है जिसके लिए सिर्फ भावनाएं नहीं, भूख बड़ा संघर्ष है. बीजेपी ने राम मंदिर को होल्ड कर 'राष्ट्रवाद' से काम चलाने का फैसला किया, लेकिन कांग्रेस ने उसकी काट में 'रुपैया' का पेंच फंसाने की कोशिश की है.
देखा जाये तो प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ राहुल गांधी ने 'रुपैया बनाम राष्ट्रवाद' की बहस छेड़ने की कोशिश की है, मगर, इसके नतीजे क्या होंगे? फैसला लोगों के मूड और विवेक पर निर्भर करता है. सवाल है कि अगर ये सब राजनीतिक रूप से किसी पार्टी के लिए फायदेमंद भले हो लेकिन क्या देश के लिए खतरनाक नहीं है? खातों में पैसे देने की बात और है, लेकिन देशद्रोह कानून को लेकर कांग्रेस का वादा आसानी से पूरा हो पाएगा ऐसा नहीं लगता.
संविधान की मूल भावना के खिलाफ अगर कुछ जाता है तो सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है - और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए संसद में बहुमत का साथ जरूरी होता है. ध्यान रहे देशद्रोह का मामला न तो शाहबानो केस जैसा है और न ही एससी-एससी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश जैसा.
बीजेपी के 'मोदी है तो मुमकिन है' के मुकाबले कांग्रेस के 'हम निभाएंगे' कोई अनलिमिटेड ऑफर नहीं है - हर चीज के लिए एक सीमा रेखा बनी हुई है.
ये सही है कि कांग्रेस ने मैनिफेस्टो में किये गये वादों के जरिये बीजेपी को उलझाने की कोशिश में कोई कसर बाकी नहीं रखी है - लेकिन सच ये भी है कि बीजेपी की मुश्किल बढ़ाने के चक्कर में कांग्रेस ने मसाले भी खूब मुहैया करा दिये हैं.
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