राहुल गांधी की लगातार फोन देखने की 'बीमारी' लाइलाज नहीं है
संसद में राष्ट्रपति के भाषण के दौरान राहुल गांधी अपने मोबाइल में व्यस्त थे जिस कारण उनकी खूब आलोचना हो रही है. इस फजीहत से छुटकारा पाने के लिए दुनिया के कई बड़े नेताओं ने अपने तरीके से इलाज ढूंढ निकाला है.
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विवादों का राहुल गांधी से चोली दामन का साथ है. अब इसे किस्मत का दोष कहें या फिर राजनीतिक मजबूरी राहुल गांधी कुछ भी करने जाते हैं तो विवाद खुद-ब -खुद उनके पीछे चले आते हैं. ताजा मामला संसद का है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद संसद में थे और सांसदों के सामने मोदी सरकार के अगले पांच वर्षों का प्लान रख रहे थे. जब देश का राष्ट्रपति संसद में हो तो मौजूद सभी लोगों का उनकी बात सुनना बहुत जरूरी है.
मां सोनिया गांधी के साथ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी संसद में मौजूद थे. मगर उनका ध्यान राष्ट्रपति कोविंद की बातों पर नहीं बल्कि अपने मोबाइल की स्क्रीन पर था. अब क्योंकि राहुल, मीडिया के लिए हॉट टॉपिक हैं. इसे कैमरे ने पकड़ लिया और राहुल गांधी का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. वीडियो वायरल होने के बाद राहुल गांधी की आलोचनाओं का दौर शुरू हो गया है. एक बड़ा वर्ग है जो कह रहा है कि राहुल गांधी द्वारा संसद में ऐसा करना उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता दर्शाता है.
संसद में राष्ट्रपति के भाषण के वक़्त अपने मोबाइल में बिजी राहुल गांधी
ध्यान रहे कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के एक घंटे से थोड़ा लंबे चले अभिभाषण के दौरान पहले 24 मिनट राहुल गांधी अपने मोबाइल में बिजी रहे. राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान राहुल गांधी किस हद तक लापरवाह थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 24 मिनट मोबाइल में लगे रहने के बाद उनके 20 मिनट मां सोनिया गांधी से बातचीत में निकले. दिलचस्प बात ये है कि इस दौरान उन्होंने एक बार भी मेज नहीं थपथपाई और सिर्फ चंद सेकेंडों के लिए उन्होंने मेज को छुआ.
वहीं बात अगर मां सोनिया गांधी की हो तो भले ही वो राहुल से बात कर रही हों मगर राष्ट्रपति क्या कह रहे हैं इसपर वो एकाग्र थीं. उन्होंने कोई 6 बार मेज थपथपाई. आपको बताते चले कि जिस वक़्त राष्ट्रपति ने जैश प्रमुख मौलाना मोहम्मद अजहर के वैश्विक आतंकी घोषित हुए की बता कही उस वक़्त भी राहुल का ध्यान अपने मोबाइल पर था और उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि राष्ट्रपति कोविंद क्या कह रहे हैं क्यों कह रहे हैं.
Congress President @RahulGandhi caught engrossed on his mobile while President Kovind’s speech is underway. Does he have any respect for anyone at all? pic.twitter.com/FsvmqgDnpD
— Know The Nation (@knowthenation) June 20, 2019
संसद में मोबाइल इस्तेमाल करने के कारण राहुल गांधी की आलोचना हो रही है. सामाजिक दृष्टि से भी इसे लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या द्वारा नापसंद किया जाता है. राहुल गांधी ही क्यों? यदि उनकी जगह हम और आप हों और कहीं अहम बातचीत चल रही हो या फिर मीटिंग हो रही हो, और हम मोबाइल निकल दें तो लोग हमें घूरेंगे भी और हमारी तीखी आलोचना भी होगी. आज लोगों का मीटिंग या किसी सभा में मोबाइल ले जाना एक बेहद साधारण दृश्य है. भले ही लोग इसे नापसंद करते हों मगर जो अपनी आदतों से मजबूर हैं उन्हें शायद ही कभी इस बात का फर्क पड़े.
मोबाइल का मनोविज्ञान
मोबाइल को लेकर मनोवैज्ञानिकों के भी अपने तर्क हैं. इनका मानना है कि यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे स्थान पर जहां कोई गंभीर चर्चा चल रही हो, वहां मोबाइल लेकर जाते हैं तो इससे पूरे ग्रुप का मनोबल टूटता है और इससे ग्रुप की काम को लेकर भागीदारी प्रभावित होती है. मीटिंग या किसी आयोजन में मोबाइल का इस्तेमाल कैसे पूरी प्रक्रिया को खराब कर सकता है इसे 2001 में आए एक शोध से समझा जा सकता है.
रिसर्च कर रहे मनोविज्ञानियों ने पाया कि यदि किसी टास्क के दौरान बार बार मोबाइल का रुख किया जाए तो इससे काम की 50% दक्षता और सटीकता प्रभावित होती है. कहा ये भी गया कि जितना जटिल टास्क होगा मोबाइल के इस्तेमाल से दक्षता उतनी ही ज्यादा प्रभावित होगी. ऐसा नहीं है कि सेलफोन का इस्तेमाल केवल काम को प्रभावित करता है. माना जाता है कि इससे व्यक्तिगत रिश्ते भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं. VitalSmarts नाम की एक कम्पनी ने इस समस्या पर एक सर्वे किया था. सर्वे के अनुसार 89% लोगों ने कहा कि प्रौद्योगिकी के असंवेदनशील उपयोग ने उनके व्यक्तिगत संबंधों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है.
इसके अलावा,10 में से 9 उत्तर देने वालों ने कहा है सप्ताह में कम से कम एक बार ऐसा हुआ है जब उनकी इस आदत के चलते उनके दोस्तों या फिर रिश्तेदारों ने उनकी बातों पर ध्यान देना बंद कर दिया था. सर्वे के अनुसार 3 में से 2 लोगों के पास इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि वास्तव में दूसरों के असंवेदनशील तकनीकी उपयोग के प्रभाव को कैसे कम किया जाए.
मोबाइल के अत्यधिक इस्तेमाल को लेकर हुआ एक सर्वे दिलचस्प नतीजे पेश करता है. वर्कप्लेस में 55% डिस्ट्रैक्शन का कारण मोबाइल है. सर्वे में तकरीबन 75% कर्मचारियों ने माना है कि दफ्तर में मोबाइल के इस्तेमाल से रोजाना उनके 2 से अधिक घंटे बर्बाद होते हैं. वहीं 28% लोग ऐसे भी थे जिनका कहना था कि यदि उनके साथ वाले के पास फोन आ जाता है तो वो डिस्टर्ब हो जाते हैं और गलतियां करते हैं.
दुनिया के बड़े नेताओं ने ढूंढा इलाज
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि किसी महत्वपूर्ण जगह मोबाइल ले जाने की बीमारी का कोई इलाज नहीं है. इसका भी समाधान है. जैसे भी कहीं कोई जरूरी मीटिंग शुरू हो वहां कुछ नियम बना दिए जाएं जैसे उपस्थित लोग अपना मोबाइल बंद कर ले और उसे तभी खोलें जब सभा समाप्त हो जाए.
इसके अलावा वो तरीका भी इस्तेमाल किया जा सकता है जो अमेरिका के वाइट हाउस में किया जाता है. जिस समय ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति थे, उन्होंने एक नियम बनाया था कि जो भी मीटिंग में मोबाइल लाता है उसे मीटिंग शुरू होने से पहले मोबाइल पर एक पीला स्टिकी नोट लगाना होगा और उसपर अपना नाम लिखना होगा. नाम लिखने के बाद लोग अपना मोबाइल एक बास्केट में डाल देते थे. इस तरह मीटिंग में मोबाइल की समस्या पर ओबामा ने काफी हद तक लगाम कसी थी.
वहीं फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने एक नियम बनाया था कि उनकी कबिनेट मीटिंग में मोबाइल पूरी तरह बैन रहेगा. बात राजनेताओं की चल रही है तो हमारे लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून का जिक्र करना भी लाजमी है जिन्होंने अपनी मीटिंग के लिए नो फोन पालिसी बनाई थी.
खैर इन तमाम बातों के बावजूद राहुल गांधी क्या किसी को भी मीटिंग के दौरान मोबाइल का इस्तेमाल करना है तो कुछ अहम बदलाव किये जा सकते हैं. कुछ ऐसा भी प्रावधान किया जा सकता है जिसमें लोगों को ये निर्देश दिए जाएं कि मीटिंग में उन्हें फोन देखने के लिए अतिरिक्त ब्रेक मिलेगा मगर उस समय तक उन्हें फोन छूना नहीं है.
हम बात राहुल गांधी की कर रहे थे और अब चूंकि राहुल मोबाइल में झांकते पाए गए हैं तो उन्हें हम यही कहकर अपनी बात खत्म करेंगे कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि उनकी बीमारी का उपचार नहीं है. इलाज है बात बस ये है कि उन इलाजों को व्यक्ति कितनी तत्परता से अपनाता है और यदि कोई नियम बन रहा है तो उसे कितनी ईमानदारी से निभाता है.
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