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Updated: 10 मई, 2018 12:04 PM
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8 मई को बैंगलोर में एक कार्यक्रम में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि अगर कांग्रेस 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती है, तो वो प्रधान मंत्री बनने के लिए तैयार हैं. कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में राहुल गांधी ने बात कही. इससे पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल को बढ़ावा जरुर मिलेगा.

पिछले साल सितंबर में यूसी बर्कले में राहुल गांधी ने घोषणा की थी कि वो 2019 के आम चुनावों में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार बनने के लिए "बिल्कुल तैयार" हैं. इसे गुजरात चुनावों और अपनी मां सोनिया गांधी से पार्टी के पदों को हाथ में लेने की तैयारी माना गया था.

हालांकि कांग्रेस पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होना एक बात है. लेकिन पूरे विपक्ष का नेता होना दूसरी बात है. वो भी तब जब कई क्षेत्रीय पार्टियां और उनके नेता पीएम पद पर अपनी निगाह टिकाए हुए हैं. ये कहने की जरूरत नहीं कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा, जो सिर्फ चार दिन दूर है. हालांकि अगर सिद्धारमैया के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव जीत जाती है तो भी पंजाब की तरह यहां भी इसका श्रेय राहुल गांधी को ज्यादा नहीं मिलने वाला. वहीं अगर बीजेपी सरकार बनाती है मोदी को चुनौती देने वाले नेता के रूप में उनकी उभरने की संभावना और कम हो जाएगी.

rahul gandhi, PM, 2019 electionराहुल के पीएम बनने की राह मुश्किल है

देश भर में कांग्रेस की लगातार हार और खास्ता हालत ने ही तमाम क्षेत्रीय नेताओं को 2019 में प्रधानमंत्री पद पर अपनी उम्मीदवारी पेश करने का आत्मविश्वास दिया है. 2014 के नतीजों के पहले बीजेपी के प्रवक्ता कांग्रेस का मजाक उड़ाते हुए कहते थे कि वो तीन अंकों का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाएगी. लेकिन ये खुद बीजेपी ने भी उम्मीद नहीं की थी कि कांग्रेस 44 पर गिर जाएगी. और लोकसभा में विपक्ष का नेता भी नहीं होगा. इस बुरी हार के बाद कई लोगों ने पार्टी को आगे और हार का सामना करने से रोकने के लिए सुधार करने की उम्मीद की. लेकिन राहुल गांधी इस सब से बेखबर रहे और सक्रिय होने के साथ साथ पार्टी अध्यक्ष पद संभालने तक में आराम से अपना समय लिया.

इस बीच कांग्रेस पंजाब को छोड़कर एक के बाद एक सारे राज्यों में भी सत्ता खोती चली गई. पिछले कुछ महीनों से अगले चुनावों के बाद "तीसरे मोर्चे" की संभावना या फिर क्षेत्रीय दलों के एकजुट होने के संकेत मिल रहे हैं. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसी साल मार्च में अन्य विपक्षी नेताओं से बात करने के लिए चार दिनों तक नई दिल्ली में डेरा डाला था. उनके अलावा तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव भी क्षेत्रीय गैर-कांग्रेस / गैर-बीजेपी मोर्चे के विचार को बढ़ावा दे रहे हैं. ये सभी क्षेत्रीय संगठन 1996 की स्थिति को दोहराने की उम्मीद कर रहे हैं, जब कोई भी पार्टी या फ्रंट जीत का दावा नहीं कर पाई थी और अंत में एचडी देवेगौड़ा को पीएम पद सौंपा गया था.

दरअसल 1996 का आम चुनाव कई मायनों में अलग था. आरएसएस के प्रमुख संगठन बीजेपी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार अपनी सरकार बनाई जो 13 दिन चली. अल्पमत के कारण वाजपेयी को इस्तीफा देना पड़ा था. सीपीआई (एम) ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया और जनता दल के वीपी सिंह के नाम पर कांग्रेस ने वीटो लगा दिया. अंततः सभी को आश्चर्यचकित करते हुए कर्नाटक के तात्कालीन मुख्यमंत्री देवेगौड़ा का नाम पीएम पद के लिए सबसे ऊपर उभरा.

प्रधान मंत्री के तौर पर देवेगौड़ा की सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी कि क्षेत्रीय पार्टियों को उन्होंने ये भरोसा जरुर दिला दिया कि पीएम की कुर्सी उन्हें भी मिल सकती है. उनके रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव, तत्कालीन जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और कई अन्य लोगों ने गौड़ा के बाद प्रधान मंत्री बनने की अपनी इच्छा व्यक्त की. 1996 तक चरन सिंह और चंद्रशेखर के अधीन अल्पकालिक सरकारों के बावजूद, क्षेत्रीय नेताओं में से कोई भी इस पद के लिए अपनी इच्छा रखने की हिम्मत नहीं रखता था.

rahul gandhi, PM, 2019 electionमोदी को टक्कर देने के लिए जीत जरुरी

राहुल गांधी पर वापस आते हैं. कर्नाटक में जीत बावजूद भी उन्हें आम सहमति से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार करना मुश्किल है. सच्चाई ये है कि अभी तक उन्होंने अपनी पार्टी के लिए किसी भी चुनाव में जीत हासिल नहीं की है. हालांकि कांग्रेस नेता हमेशा कि तरह आम चुनावों में जीत के लिए उनके सिर पर सेहरा बांधने के लिए तैयार रहेंगे लेकिन गुजरात में हार ने राहुल गांधी की उम्मीदवारी को सहयोगियों द्वारा स्वीकृति मिलने में भारी झटका लगाया है. बिना किसी स्थानीय चेहरे के गुजरात में जीत उन्हें प्रधान मंत्री मोदी के स्वाभाविक प्रतिद्वंदी के रूप में उभार देता. लेकिन ये होना नहीं था. अब आसार यही है कि यह "मोदी बनाम बाकी" चुनाव ही होगा.

क्षेत्रीय नेताओं का प्रधानमंत्री बनने के सपनों के बावजूद 1996 में और 2019 के हालात के बीच बहुत बड़ा अंतर है. तब कांग्रेस ने पांच साल की सरकार अपनी पूरी करने के बाद सत्ता खोई थी और सरकार के नेतृत्व करने का उनके पास दूसरा कोई तरीका नहीं था. इसलिए, उन्होंने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए जनता दल के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय संगठनों के बाहर से समर्थन किया. इसलिए, ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर राव को कोई और ही रास्ता देखना पड़ेगा और अगर कांग्रेस ने चुनावों में कम से कम 100 से ज्यादा सीटें हासिल कर ली तब तो फिर बात ही कुछ और है. यहां तक कि कमजोर मानी जाने वाली कांग्रेस राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और अन्य राज्यों में वापसी करने के लिए तैयार है. खासकर अगर हालिया उप-चुनाव को संकेत के रुप में देखें तो ये साफ जाहिर भी हो जाता है.

लेकिन मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए विपक्ष को एकजुटता दिखानी होगी ताकि वोटों का बंटवारा न हो जाए. कांग्रेस और अन्य पार्टियों को थोड़ा थोड़ा त्याग करना होगा ताकि दूसरी पार्टियां भी समाहित हो सकें और साथ आ सकें. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच का निर्णायक गठबंधन, जिसने अजीत सिंह के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोक दल को कैराना उपचुनाव में अपना समर्थन देकर एक अच्छी शुरुआत की है.

लेकिन क्या इसे राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ाया जा सकता है. और कांग्रेस के साथ सभी एकजुट रह पाते हैं इसके लिए समय का इंतजार करना होगा.

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