राहुल गांधी और कांग्रेस का राष्ट्रवादी एजेंडे के साथ रीलांच !
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ताजपोशी के बाद कांग्रेस (Congress) को राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की तरफ ले जा सकते हैं - तिरंगा यात्रा (Tiranga Yatra) की तैयारियों से तो ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस को भी बीजेपी की बी-टीम बनाने की कवायद चल रही हो!
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28 दिसंबर को कांग्रेस (Congress) का 136वां स्थापना दिवस है - और इसे राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के साथ साथ देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के भी रीलांच का मौका बनाया जा रहा है. राहुल गांधी के साथ साथ प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी इसे यूपी चुनाव 2022 के लिए कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जान फूंकने का आधार बनाया है.
कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम के साये में ही पार्टी कार्यकर्ता 28 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के सभी गांवों में झंडा फहराने जा रहे हैं. ये एक तरीके से स्थापना दिवस से कांग्रेस यूपी में अपने चुनाव अभियान की शुरुआत करने जा रही है. ब्लॉक स्तर पर कांग्रेस कार्यकर्तों को तीन दिन तक यात्रा करने को भी कहा गया है. यात्रा के दौरान कांग्रेस कार्यकर्ता गांव गांव जाकर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ साथ केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार की खामियों के बारे में लोगों को बताएंगे और कांग्रेस का पक्ष समझाने की कोशिश करेंगे.
सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रयोग के बाद अब कांग्रेस राष्ट्रवाद को लेकर नया प्रयोग करने जा रही है. जनवरी, 2020 में कांग्रेस की फिर से कमान संभालने की तैयारी कर रहे राहुल गांधी और साथियों के लिए स्थापना दिवस का कार्यक्रम की तैयारियां वॉर्म-अप सेशन की तरह लग रही हैं.
ध्यान देने वाली बात ये भी है कि बीजेपी की तरह अब कांग्रेस भी तिरंगा यात्रा (Tiranga Yatra) निकालने जा रही है - और नेताओं को कांग्रेस के ऑनलाइन कैंपेन 'सेल्फी विद तिरंगा' के लिए भी पहले से ही कमर कस लेने को कहा गया है.
बदल रहा है राहुल गांधी का मिजाज
कांग्रेस नेतृत्व सॉफ्ट हिंदुत्व से हिंदुत्व के छिटपुट प्रयोगों से गुजरते हुए अब राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ने लगा है. लगता है कांग्रेस नेतृत्व शिद्दत से महसूस करने लगा है कि संघ और बीजेपी के प्रभाव में देश की राजनीति राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के इर्द गिर्द की घूमती फिरती सिमट कर रह गयी है.
किसानों के भयंकर सर्दी में दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहने के बावजूद देश का राजनीतिक माहौल ऐसा बन चुका है कि न तो लेफ्ट का मार्क्सवाद चल पा रहा है - और न ही कांग्रेस का पसंदीदा सेक्युलरिज्म. समाजवाद तो पहले ही अपना चोला बदल चुका है और जातीय राजनीति में जकड़ा हुआ है.
गुजरात से कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपना सॉफ्ट हिंदुत्व प्रयोग शुरू किया और इसी साल 5 अगस्त को जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन का कार्यक्रम चल रहा था तो ट्विटर के जरिये हिंदुत्व से भी मजबूती से जुड़ने की काफी कोशिश की. चूंकि सारी कोशिशें एक के बाद एक नाकाम होती जा रही हैं - इसलिए तय हुआ है कि एक बार वो नुस्खा भी आजमा कर देखा जाये जिसके बूते भारतीय जनता पार्टी पहले पार्लियामेंट और अब पंचायत चुनावों में जीत दर्ज करते हुए अमित शाह के स्वर्णिम काल के सपने की तरफ तेजी से रफ्तार भरने लगी है.
जब राहुल गांधी की ताजपोशी की फिर से तैयारियां हो रही होंगी, प्रियंका गांधी वाड्रा यूपी के तूफानी दौरे पर होंगी. तारीख तो अभी तय नहीं है लेकिन ये प्लान जनवरी, 2021 के दूसरे हफ्ते का है. किसानों के आंदोलन के बीच 24 दिसंबर को दिल्ली में मार्च निकालने की कोशिश में प्रियंका गांधी को हिरासत में लिया गया था. प्रियंका गांधी की ये कोशिश भी किसानों के साथ वैसे ही जुड़ने की रही जैसे अब तक वो सीएए विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस एक्शन के लोगों के साथ खड़े रहने, बलात्कार पीड़ितों और सोनभद्र में नरसंहार के शिकार पीड़ित परिवार से जुड़ने की कोशिश कर चुकी हैं.
राहुल गांधी को कांग्रेस को नया कलेवर देने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन साथ में बहुत बड़ा जोखिम भी उठा रहे हैं.
किसानों को लेकर राहुल गांधी की राष्ट्रपति से मुलाकात के दौरान भी एक खास चीज देखने को मिली. राहुल गांधी अपने अधीर रंजन चौधरी के अलावा गुलाम नबी आजाद को भी ले गये थे. वैसे तो ये दोनों संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन राहुल गांधी जिसे पसंद नहीं करते उससे परहेज तो करते ही हैं, हमेशा एक निश्चित दूरी बना कर भी चलते हैं. हिमंता बिस्वा सरमा से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक सभी नेताओं ने कांग्रेस छोड़ने से पहले नजरअंदाज किये जाने की ऐसी ही पीड़ा महसूस की है - और किसी न किसी बहाने शेयर भी किया है.
कांग्रेस में असंतुष्ट G-23 के नेता गुलाम नबी आजाद को राहुल गांधी के साथ खड़े देखना अपनेआप में खास लग रहा था. वरना, एक चुनाव हार जाने के बाद तो राहुल गांधी बरसों से जीतते आये अमेठी संसदीय क्षेत्र के लोगों से भी निश्चित दूरी बना लेते देखे गये हैं. 2014 में स्मृति ईरानी चुनाव हारने के बाद भी पूरे पांच साल कोई न कोई बहान खोज कर अमेठी पहुंच जाती रहीं, लेकिन 2019 की हार को लेकर राहुल गांधी ने वायनाड में तो बचपन जैसा प्यार मिलता महसूस किया, लेकिन अमेठी पहुंच कर लोगों से बोल दिया कि जब उनको जरूरत हो वो कॉल कर सकते हैं - मतलब, अब यूं ही तो अमेठी आने का कोई मतलब न रहा.
गुलाम नबी आजाद के सहित सात असंतुष्ट कांग्रेस नेता सोनिया गांधी की बुलायी हाल में हुई एक मीटिंग में शामिल हुए थे. ये मीटिंग कमलनाथ की पहल पर सोनिया गांधी ने असंतुष्ट नेताओं की नाराजगी दूर कर राहुल गांधी की ताजपोशी का रास्ता साफ करने के लिए बुलायी गयी थी. मीटिंग में राहुल गांधी के साथ साथ प्रियंका गांधी वाड्रा भी शामिल हुई थीं. बाद में खबर ये भी आयी कि प्रियंका गांधी वाड्रा भी कांग्रेस के नाराज नेताओं से लगातार संपर्क बनाये हुए हैं और वैसे ही मेहनत कर रही हैं जैसे सचिन पायलट के नाराज होने पर किया था.
बताते हैं कि कांग्रेस के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल की तरफ से स्थापना दिवस को लेकर जो सर्कुलर भेजा गया है उसमें राज्य इकाइयों और नेताओं को तिरंगा यात्रा में हिस्सा लेने के साथ साथ सोशल मीडिया कैंपेन सेल्फी विद तिरंगा भी ज्वाइन करने का फरमान है.
...और ये है राष्ट्रवादी अवतार!
कांग्रेस के गले का ढोल बनी ये विडंबना ही कही जाएगी कि जिस पाकिस्तान के खिलाफ जंग लड़ कर कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार ने बांग्लादेश को अलग राष्ट्र की मान्यता दी और पूरी दुनिया से दिलायी भी - वो कांग्रेस राजनीति के उस छोर पर खड़े खड़े लगातार कोशिश कर रही है कि कैसे वो लोगों को समझा पाये कि कांग्रेस पार्टी कभी पाकिस्तान के फायदे की बात नहीं करती.
जब चीन के साथ भारत का सीमा विवाद गलवान घाटी से हिंसक झड़प तक पहुंच गया तो राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर हमले तेज कर दिये. फिर क्या था, बीजेपी नेताओं की फौज ने राहुल गांधी को पाकिस्तान परस्त होने के साथ साथ चीन के साथ भी दोस्ती की पोल-खोल शुरू कर दी. राहुल गांधी की चीनी राजदूत से मुलाकात से लेकर कांग्रेस को मिले चंदे की चर्चा पर पार्टी नेताओं को बार बार सफाई देकर बचाव का रास्ता अख्तियार करना पड़ा था. ऐसी तोहमतें कांग्रेस पर बहुत ही भारी पड़ने लगी हैं और यही वजह है कि पार्टी नेतृत्व इनसे निजात पाने का कोई ठोस उपाय खोज रहा है - 'तिरंगा यात्रा' और 'सेल्फी विद तिरंगा' का कंसेप्ट इसी कवायद का हिस्सा लगता है.
'कस्तूरी कुंडलि बसे... ' वाली तर्ज पर कांग्रेस नेतृत्व को अचानक महसूस होने लगा है कि बीजेपी तो तिरंगा यात्रा के लिए राष्ट्रीय झंडा का इस्तेमाल करती है, कांग्रेस को तो ये बॉय डिफॉल्ट सुविधा हासिल है - कांग्रेस का झंडा भी तो तिरंगा ही है, फर्क बस ये है कि राष्ट्रीय झंडे के बीच में चक्र होता है और पार्टी के झंडे के बीच में चुनाव निशान हाथ का पंजा.
यूपी कांग्रेस अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के चेयरमैन शाहनवाज आलम ने aajtak.in से बातचीत में कहा है कि '28 दिसंबर को कांग्रेस के कार्यकर्ता यूपी के सभी गांवों में पार्टी का झंडा फहराएंगे.'
लेकिन तब का क्या होगा जब सवाल उठेगा कि कांग्रेस तो तिरंगा यात्रा के नाम पर पार्टी के झंडे का इस्तेमाल कर रही है और लोगों को झांसा देने की कोशिश कर रही है. जैसे नेताजी शब्द सुनते ही सुभाष चंद्र बोस की छवि सामने आ जाती है, ठीक वैसे ही तिरंगा शब्द तो हमेशा ही राष्ट्रीय ध्वज का बोध कराता है.
कांग्रेस मुख्यालय की तरफ से राज्य और जिला इकाइयों को स्थापना दिवस के मौके पर रचनात्मक अभियानों को लेकर सोचने को कहा गया है - और तिरंगा यात्रा और सेल्फी विद तिरंगा जैसे और भी कार्यक्रम की अपेक्षा की जा रही है.
कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं के नाम दिल्ली से जारी फरमान में साफ तौर पर पहले से ही बता दिया गया है कि वे तिरंगा यात्रा और सेल्फी विद तिरंगा अभियान से जुड़ें पोस्ट, फोटो और वीडियो सोशल मीडिया पर खूब शेयर करें.
लगे हाथ कांग्रेस ने पाकिस्तान को लेकर अपना स्टैंड समझाने और राजनीतिक वजहों से अपने खिलाफ बनायी गयी धारणा को काउंटर करने का भी उपाय खोज लिया है. कांग्रेस नेतृत्व चाहता है कि लोग एक बार नये सिरे से ये समझने की कोशिश करें कि बीजेपी की मोदी सरकार के सर्जिकल स्ट्राइक से बरसों पहले कांग्रेस की इंदिरा सरकार ने पाकिस्तान को सबसे बड़ा सबक सिखाया था. शिमला समझौता भी इंदिरा गांधी की ही देन है जिसके चलते बरसों बरस किसी भी तीसरे पक्ष के जम्मू-कश्मीर के मामले में हस्तक्षेप से रोका जाता रहा है - हालांकि, 5 अगस्त, 2019 के बाद धारा 370 खत्म होने के बाद से हालात पूरी तरह बदल ही गये हैं.
16 दिसंबर को पाकिस्तान के खिलाफ जंग में जीत का जश्न विजय दिवस के रूप में मनाया गया. कांग्रेस जीत के जश्न को और आगे ले जाने की तैयारी में है. दरअसल, अगले साल 2021 में युद्ध जीतने के 50 साल पूरे हो रहे हैं और कांग्रेस विजय दिवस की स्वर्ण जयंती व्यापक पैमाने पर मनाये जाने का प्लान कर रही है.
विजय दिवस की स्वर्ण जयंती को लेकर भी कांग्रेस संस्कृति के मुताबिक एक कमेटी बनाया जाना है जिसका नेतृत्व - या तो मीरा कुमार करेंगी या फिर एके एंटनी. एके एंटनी मनमोहन सिंह सरकार में रक्षा मंत्री रह चुके हैं और राष्ट्रपति पद की यूपीए की उम्मीदवार रहीं, पूर्व स्पीकर मीरा कुमार इसलिए प्रासंगिक बन रही हैं क्योंकि वो जगजीवन राम की बेटी हैं - दरअसल, 1971 में युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में जगजीवन राम ही रक्षा मंत्री हुआ करते थे.
अब तो ये लगने लगा है जैसे राष्ट्रवादी एजेंडे के साथ कदम आगे बढ़ा रही कांग्रेस के कैंपेन में हिंदुत्व का भी तड़का लगेगा ही - फिर तो ऐसा लगता है अगर मिशन कामयाब नहीं हो सकता तो जल्द ही कांग्रेस भी बीजेपी की B टीम के रूप में नजर आने लगेगी!
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