राहुल गांधी के सलाहकारों को चाहिए कि PM इन वेटिंग को अक्टूबर की बारिश से बचाएं, यात्रा लंबी है!
बारिश में भीगती राहुल गांधी की तस्वीर को लेकर जिस तरह का सामूहिक सस्वर यशगान किया जा रहा है वह दुर्लभ है. यकीन नहीं होता कि इसी नेता के नेतृत्व में एक पर एक कांग्रेस ने पराजयों का रिकॉर्ड बनाया है और हिंदी पट्टी में पार्टी की हालत यह हो चुकी है कि वे अपनी सीट तक नहीं बचा पाए. राहुल, मोदी के खिलाफ पीएम की रेस में हैं या कांग्रेस का शीर्ष नेता बने रहने की हैसियत में कसरत कर रहे हैं.
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कांग्रेस में दिख रहे तमाम संकट एक पार्टी का संकट नहीं कहे जा सकते बल्कि पार्टी के सर्वोच्च नेताओं की शक्तियों का संकट है. एक जननेता के रूप में एक ही परिवार के तीन बड़े नेताओं की 'सामूहिक साख' के संकट का सवाल है. यह कोई और नहीं सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा और रॉबर्ट वाड्रा ही हैं. रॉबर्ट का 'अटपटा' नाम यहां दर्ज करने की वजह है. उन्हें गौर से देखें तो वह भी अपने स्तर पर सकुचाते-सकुचाते ही सही, मगर दबी राजनीतिक इच्छाओं को लगातार सार्वजनिक कर रहे हैं. खुद को एक विकल्प के रूप में सामने कर रहे. पिछले कुछ महीनों में समाजकार्य, उनकी धर्म पराणयता और तमाम सक्रियताओं को चेक कर सकते हैं.
सोनिया (चूंकि उनकी स्वास्थ्य दिक्कतें हैं तो शायद ही वे अब पीएम की रेस में आगे बढ़ें) को छोड़कर कांग्रेस में एक अनार (प्रधानमंत्री की कुर्सी या केंद्र की सत्ता पर नियंत्रण) के पीछे कई बीमार हैं. सिर्फ इसी वजह से ही उसे आज की तारीख में तीन बड़े मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है. पहला- दुश्मन नंबर एक भाजपा और मोदी, दूसरा- क्षेत्रीय ताकतें (इसमें संभावित सहयोगी, मौजूदा सहयोगी और पूर्व सहयोगी सभी हैं) और तीसरा- आंतरिक ढांचे में अपने ही नेताओं से संघर्ष.
स्वाभाविक है कि ऐसे माहौल में उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक कांग्रेस के पास एक भी ऐसा राज्य नहीं दिख रहा जहां से गांधी परिवार के चेहरे पर कांग्रेस गारंटीड 10 लोकसभा सीटें जीत पाए. यहां तक कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी जहां कांग्रेस अपने बूते सत्ता पर काबिज है. अशोक गहलोत एपिसोड और राजस्थान का ट्रेंड यही बताता है कि लोकसभा में शायद यहां कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ़ हो जाए. जबकि लोकसभा चुनाव तक अभी यह भी स्पष्ट नहीं कि वहां पार्टी टूट के संभावित खतरे से बच चुकी है. सचिन पायलट की बगावत के वक्त भी ऐसा ही लगा था. लेकिन कुछ ही महीनों में क्या हुआ समूचे देश ने देखा.
कर्नाटक में राहुल गांधी.
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल अपने नेता से ज्यादा मोहन भागवत की अगवानी में खुश नजर आ रहे हैं. नेतृत्व के रूप में गांधी परिवार की मर्यादा चादर में ढंकी छिपी थी मगर पंजाब की तरह राजस्थान में भी चीजों को खुली आंखों देखा जा सकता है. यह कांग्रेस की कड़वी सच्चाई है. उत्तराखंड और हिमाचल जैसे उत्तर के तमाम राज्यों में जहां भाजपा से कांग्रेस की सीधी लड़ाई है- वहां लोकसभा की 10 सीटें भी नहीं हैं. यहां भी राज्यों में नरेंद्र मोदी के आगे गांधी परिवार का कोई नेता फिलहाल दूर-दूर तक टक्कर देता नजर नहीं आ रहा है. कांग्रेस के मामले में इस वक्त सिर्फ एक अच्छी बात है कि पार्टी के रूप में उसकी मौजूदगी देशव्यापी है.
अब सवाल यह है कि क्या कांग्रेस देशव्यापी मौजूदगी से कुछ करिश्मा दिखा सकती है? बेशक दिखा सकती है. लेकिन यक्षप्रश्न यह है कि सहयोगी कौन होगा? चीजें कांग्रेस के अपने बूते से बाहर हैं. यह ढंकी छिपी बात नहीं. और सहयोगी भी कम अफलातून नहीं दिख रहे, जो राहुल गांधी को अपना नेता बनाना शायद ही पसंद करें. नेता की दावेदारी तो उसकी होती है जिसका चेहरा चुनाव जितवाता है. दुर्भाग्य से राहुल गांधी के नाम एक से बढ़कर एक रिकॉर्डतोड़ पराजयों का बिल फटा पड़ा है. क्या अखिलेश यादव यूपी में सहयोगी बनना पसंद करेंगे? अखिलेश ध्रुवीकरण राजनीति की मजबूरियों में कांग्रेस के साथ जरूर जा सकते हैं. लेकिन वे क्यों जाएं यह ज्यादा अहम है.
अभी हालिया यूपी चुनाव में सपा अभियान को अगर किसी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया तो वह कांग्रेस थी. साफ़ दिखा कि कांग्रेस ने जबरदस्ती की. और उस दौर में की जब लगने लगा था कि अखिलेश निर्णायक मोर्चा बनाने की तरफ लगभग पहुंच चुके हैं. कांग्रेस ने समूचे प्रदेश में लड़ने का आत्मघाती फैसला लिया. उनकी लड़ाई चुनाव जीतने की बजाए अखिलेश का खेल बिगाड़ने वाली ज्यादा नजर आई. कांग्रेस काडर सरेआम कहता घूम रहा था कि यहां भविष्य में कांग्रेस की मौजूदगी के लिए जरूरी है, अखिलेश की पराजय. कायदे से देखें तो अखिलेश के अभियान को भाजपा के हमलों ने उतना नुकसान नहीं पहुंचाया जितना कांग्रेस और बसपा की योजनाबद्ध आलोचनाओं से क्षति पहुंची.
असर यह हुआ कि माहौल देखकर मतदान करने वाले न्यूट्रल वोटिंग ब्लॉक को हथियाने से अखिलेश चूक गए. हालांकि अखिलेश हारे जरूर हुई, पर उनके विधायकों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ी. ये अलग बात है कि प्रियंका जैसी जिम्मेदार नेता के मोर्चे पर होने के बावजूद कांग्रेस अपना पिछला प्रदर्शन बरकरार नहीं रख पाई. यूपी में कांग्रेस की सुसाइडल रणनीतियों के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? यह बहुत ज्यादा पुरानी बात भी नहीं.
अखिलेश कांग्रेस से मिले खट्टे अनुभवों से शायद ही उबर नहीं पाए होंगे अबतक. और उन्हें उबरना भी क्यों चाहिए भला. वह भी अतीत के घमंड में चूर, लगभग ख़त्म हो रही एक पार्टी के लिए. वह पार्टी जिसका जमीन पर कोई वजूद नहीं दिखता. बावजूद अभी भी उसके नेताओं के ख्वाब बादशाहों वाले ही नजर आते हैं. शायद यही वजह है कि सपा प्रमुख कांग्रेस से बराबर दूरी बनाकर चल रहे हैं. वे गांधी परिवार की बजाए तीसरे मोर्चे के किसी नेता में भरोसा जताते दिख रहे हैं. नीतीश कुमार के नाम पर काफी हद तक सहमत हैं. यह स्वाभाविक है या लालू जी का जादू- स्पष्ट नहीं कहा जा सकता. बात दूसरी है कि मोदी के सामने लोकसभा चुनाव में पार्टी की साख बचाने के लिए वह खुद प्रधानमंत्री के रूप में अपना भी नाम उछाल रहे हैं और चीजों पर निगाह बनाए हुए हैं.
असल में लोकसभा चुनाव में अखिलेश की बड़ी अग्निपरीक्षा अपने कोर वोटबैंक को साथ बरकरार रखना है. लोकसभा चुनाव में मोदी के सामने एकतरफा ध्रुवीकरण से निपटने के लिए यह उनकी बहुत बड़ी राजनीतिक मजबूरी है. देश के सबसे बड़े राज्य में गांधी परिवार के लिए कुछ भी नहीं है. सिवाय ख़बरों में बने रहने के. दूसरी बात यह भी है कि शायद कांग्रेस के गांधी इस बार अमेठी और रायबरेली की परंपरागत सीटें वापस पा लें. मगर यह भी सपा के वाकओवर के बिना संभव नहीं है. बसपा अपने काडर की कमाई कम से कम राहुल गांधी और अखिलेश यादव को फिलहाल नहीं देने जा रही. यह भी शीशे की तरह साफ़ है.
बिहार का दृश्य देखें तो वहां भी तय नहीं कि कांग्रेस लालू यादव के महागठबंधन का हिस्सा भविष्य में रहेगा भी या नहीं. बिहार में भी राहुल गांधी के सलाहकारों ने कुछ अच्छा थोड़े किया है? कांग्रेस ने जबरदस्ती दिखाकर क्षमता से ज्यादा सीटें ली. उनका खराब स्ट्राइक रेट बताता है कि लालू की अनुपस्थिति के बावजूद RJD इनमें से एक दर्जन सीटों पर भी लड़ गई होती तो, तेजस्वी को नीतीश कुमार के बैसाखी की जरूरत ही नहीं पड़ती. बिहार विधानसभा चुनाव में 'वाममय' कांग्रेस का बर्ताव तनाव का विषय बना. और कांग्रेस-RJD की राहें भी कुछ वक्त के लिए जुदा हुईं. वे बाद में साथ आए. लेकिन लालू ने जो महागठबंधन बनवाया उसकी सबसे बड़ी शर्त तो प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में नीतीश पर रजामंदी होना ही था. किसी पार्टी के किए लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहना आत्महत्या की तरह है. लालू भला क्यों राहुल गांधी जैसे चुके नेता के लिए सुसाइड करेंगे. आखिर नवीन पटनायक भी तो राष्ट्रीय राजनीति का मोह छोड़कर ओडिशा में अपराजेय सत्ता चला ही रहे हैं. लालू के लिए तो यह बहुत आसान काम है.
लालू जी राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं. राष्ट्रीय राजनीति की हवा को उनसे बेहतर आंकने वाला भला कौन है? मोदी के सामने अगर कांग्रेस में तनिक भी क्षमता होती तो वे सोनिया के दरबार में बार-बार नीतीश को लेकर नहीं पहुंचते और नीतीश के पक्ष में तीसरे दलों की विपक्षी गोलबंदी का 'ठंडा' प्रयास भी नहीं करते. महाराष्ट्र में कांग्रेस के मौजूदा सहयोगी (एनसीपी-शिवसेना ठाकरे) नीतीश के साथ मंच साझा कर रहे हैं. पंजाब के अकाली भी उनके साथ खड़े नजर आ रहे हैं. नवीन पटनायक (ओडिशा) और YSR जगन (आंध्रप्रदेश) ने पत्ते नहीं खोले हैं. केसीआर (तेलंगाना) पहले ही मिलकर संकेत दे चुके हैं.
लालू समेत तमाम विपक्षी नेता राष्ट्रीय राजनीति में कोई बड़ी भूमिका देखने की बजाए फिलहाल अपनी जरूरतों के हिसाब से आगे बढ़ने और ताकत पाने के लक्ष्य पर केंद्रित हैं. लालू की कोशिश दिल्ली की बजाए पटना को ड्राइव करना है. यूपी और बिहार में गांधी परिवार ना सिर्फ जनता बल्कि क्षेत्रीय नेताओं के बीच भी अपनी साख गंवा चुका है.
झारखंड, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को बैसाखियों की जरूरत है. तीनों राज्यों में योग्य पार्टनर होने के बावजूद कांग्रेस को 10 सीटें शायद ही कोई दे. भला एमके स्टालिन अपने हिस्से की सीट कांग्रेस को क्यों देंगे? वह भी एक ऐसे नेतृत्व के लिए जिसका वजूद ही संकट में घिरा हो. एक ऐसा नेता जो जहां मौजूद रहता है वहीं उसकी पार्टी नजर आती है. बाकी पार्टी कहीं है भी क्या, लोग जान ही नहीं पाते. उत्तरपूर्व में कांग्रेस का हाल बताने की जरूरत नहीं. शेष भारत के जो राज्य हैं वहां भी चीजें बेहतर तो नहीं दिख रहीं. गुजरात और मध्य प्रदेश का हाल कहां अलग है. दिल्ली के बाद पंजाब और अब गुजरात, हिमाचल में अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी के लिए अलग ही सिरदर्द साबित हो रहे हैं. केजरीवाल कुछ कम पीएम मैटेरियल थोड़े हैं.
अब सवाल है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री उम्मीदवार कैसे बनेंगे, मोदी को पराजित करने के लिए उनके पीछे कौन सा वोट बैंक खड़ा होगा? कांग्रेस के पास अपना कोई देशव्यापी वोटबैंक नजर आ रहा है क्या? जहां तक बात मुसलामान मतदाताओं की है वह भारत में किसी का भी वोट बैंक नहीं है. वह सिर्फ उसी का है जो भाजपा को हराने की क्षमता रखता है. तो गांधी परिवार के पास सिर्फ एक ही रास्ता है. भारत जोड़ो यात्रा. कांग्रेस ने गांधी परिवार के लिए तमाम संगठनों की मदद से अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. मोदी को परास्त करने के लिए उनके पीछे मुसलमानों का वोटबैंक पूरी क्षमता से खड़ा हो सकता है. केरल में वह खड़ा भी हुआ और राहुल ज्यादा आक्रामक भी नजर आए. ये दूसरी बात है कि बिल्ली का मुंह गर्म दूध पीते वक्त जल चुका है. चीजें जितनी पक्ष में नहीं आईं उससे ज्यादा नकारात्मक हो गईं. केरल छोड़ते ही कर्नाटक में उनकी यात्रा का उत्साह गायब नजर आ रहा है.
गौरी लंकेश को लेकर कर्नाटक में भाजपा के उग्र हिंदुत्व को थामने के लिए जो बहस खड़ी की गई थी- कर्नाटक में यात्रा के स्वागत से पहले उसे सिविल सोसायटी के लोकप्रिय चेहरों ने ट्रेंडिंग बनाने की कोशिशें कुछ हफ्तों पहले से ही की. यहां हिंदुओं के आतंरिक ढाँचे में कांग्रेस को फबने वाली चीजें मिल सकती हैं. सोनिया और प्रियंका के पहुँचने का भी इंतज़ार करना चाहिए. अब कर्नाटक एपिसोड में भावुक एज लेने की कोशिश दिखेगी. अलग-अलग तरह से. पानी में भीगते राहुल गांधी की तस्वीरों पर सस्वर यशगान उसी का हिस्सा है. दावों से उलट यह समझ में नहीं आ रहा कि जब पीएम इन वेटिंग को जनता शिद्दत से प्यार करती है- फिर चुनावी नतीजों में नेताजी का करिश्मा क्यों नहीं दिखता? वैसे यह भी साफ नहीं है कि राहुल का मकसद फिलहाल पीएम बनना ही है. हो सकता है कि पार्टी में परिवार का नियंत्रण बनाए रखने के लिए उन्हें पीएम मैटेरियल की श्रमसाध्य परीक्षा से गुजरना पड़ रहा हो.
राहुल के सलाहकारों को चाहिए कि उन्हें पानी में भीगने से बचाएं. अक्टूबर की बारिश बीमारियों का घर है. उन्हें अभी भारत 'जोड़ो' की लंबी यात्रा पूरी करनी है. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने जो साख गंवाई है- यात्रा उसी खोए चमक को हासिल करने वाली है. 2024 में उनके फेल होने का सीधा साफ़ मतलब है. कांग्रेस को अपने तीसरे हथियार प्रियंका गांधी पर फोकस करना होगा. 24 के नतीजों पर ही राहुल का शेष राजनीतिक करियर आगे बढ़ेगा. कहीं ऐसा ना हो कि सोनिया का, राहुल का, प्रियंका का, सबका बदला लेने के लिए रॉबर्ट को उतरना ना पड़ जाए.
जल्द ही कर्नाटक पड़ाव को लेकर विस्तार से कांग्रेस के हासिल पर विश्लेषण की कोशिश होगी. मत भूलिएगा, कर्नाटक त्रिशंकु राज्य है और यहां भी कांग्रेस के पास बहुत ज्यादा एज नहीं. है
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