राहुल गांधी जब तक खानदानी राजनीति से आगे नहीं बढ़ेंगे - अच्छे दिन नहीं आने वाले
राहुल गांधी कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कभी अरविंद केजरीवाल की कॉपी करते भी देखे जाते हैं - बेहतर होता वो मोदी की कॉपी की बजाये आंख मूंद कर उनके राजनीतिक पदचिह्नों पर चलने की कोशिश करते - अब तक उनके अच्छे दिन आ चुके होते.
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जब भी राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद में इंटरेस्ट दिखाते हैं, विरोधियों के निशाने पर आ जाते हैं. राहुल गांधी लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर हमलावर रहते हैं. प्रधानमंत्री मोदी भी कभी कोई मौका नहीं चूकते. कभी इसे राहुल गांधी के अहंकार, तो कभी कुर्सी पर बैठने की जल्दबाजी - और बाकी दिनों में नामदार बनाम कामदार की लड़ाई के रूप में पेश करते रहते हैं.
प्रधानमंत्री बनने को लेकर एक बार फिर राहुल गांधी का बयान आया है. विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के सवाल पर राहुल गांधी का कहना रहा, "विपक्षी दलों ने 2019 के लोकसभा चुनाव में पहले बीजेपी को हराने का फैसला लिया है... और उसके बाद ही पीएम को लेकर फैसला होगा..." तभी सवाल उठा कि अगर सहयोगी दल राहुल गांधी को पीएम के रूप में देखना चाहें तो?
राहुल बोले, "अगर वे चाहते हैं तो निश्चित तौर पर..."
निश्चित तौर पर इसे बतौर राहुल के का बयान लिया जाएगा, लेकिन राहुल गांधी इसके अलावा आखिर जवाब भी क्या देते? ऐसे बयान सवालों के जवाब के रूप में ही आते हैं लेकिन बयान तो बयान ही होते हैं. इससे पहले मायावती और ममता के प्रधानमंत्री बनने पर भी राहुल गांधी कहा था कि कोई ऐतराज नहीं है.
राहुल गांधी ये जरूर कहते हैं कि उनका लक्ष्य बीजेपी को हराना है. सोनिया गांधी भी कह चुकी हैं कि 2019 में वो बीजेपी को जीतने नहीं देंगी - लेकिन कैसे?
ऐसा लगता है जैसे राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद का सपना देख तो रहे हैं, लेकिन वैसे नहीं जैसा पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम कहते हैं, "सपना वो होता है जो इंसान को सोने न दे..."
भारतीय राजनीति के 3 मॉडल
मौजूदा भारतीय राजनीति में तीन धाराएं स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती हैं और इसी कारण तीन मॉडल भी देखने को मिलते हैं. राहुल गांधी भी इन्हीं में से एक मॉडल का प्रतिनिधित्व करते हैं. राहुल के अलावा एक मॉडल के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री मोदी हैं तो एक नयी धारा के नुमाइंदे अरविंद केजरीवाल हैं. इन तीनों की अलग अलग खासियत है जो एक दूसरे से अलग करती है.
खानदानी राजनीति कब तक?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी वाले मॉडल के दायरे में तो देश के कई और भी नेता फिट हो जाते हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल वाले खांचे में अभी वो अकेले ही ऐश कर रहे हैं. अरविंद केजरीवाल की राजनीति ऐसी है जो न तो विरासत में मिली है, न किसी गॉडफादर की बदौलत बख्शी गयी है - बल्कि निरंतर आंदोलनकारी संघर्ष से हासिल हुई है.
केजरीवाल की ही तरह आंदोलन के जरिये राजनीति में आने की कोशिश में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और चंद्रशेखर आजाद रावण जैसे नेता भी प्रयासरत हैं लेकिन अभी किसी को कोई खास मुकाम हासिल नहीं हो सका है.
प्रधानमंत्री मोदी को चैलेंज करने वालों में राहुल गांधी के साथ साथ अरविंद केजरीवाल भी जुटे हुए हैं जो 2019 में खुद के बूते किस्मत आजमाने की घोषणा पहले ही कर चुके हैं. एक धड़ा और भी जो राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल से इतर किसी और नाम पर विपक्ष को एकजुट कर प्रधानमंत्री मोदी को चैलेंज करने की तैयारी में जुटा हुआ है.
पेशेवर राजनीति...
प्रधानमंत्री मोदी वाले मॉडल में वे नेता आते हैं जो संगठन में अपनी प्रतिभा के सहारे खड़े होते हैं और तरक्की के रास्ते शिखर पर पहुंचते हैं. इस मॉडल में वैसे नेता भी हैं जिन्होंने खुद के दम पर अलग होकर नया संगठन खड़ा तो किया लेकिन उन पर पार्टी को निजी कंपनी की तरह चलाने का आरोप लगाना विरोधियों के लिए मुश्किल होता है. नीतीश कुमार, मायावती और ममता बनर्जी जैसे नेता भी इसी कैटेगरी में आते हैं.
पॉलिटिकल पार्टी को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाने का इल्जाम ही नहीं, राहुल गांधी तो इसे एक तरीके से भारतीय राजनीति की आवश्यक बुराई भी बता चुके हैं. राहुल गांधी की तरह ही इस कैटेगरी में तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव भी आते हैं.
ध्यान से देखा जाये तो ये तीनों मॉडल दो तरीके से काम करते हैं - एक, खानदानी राजनीति और दो, पेशेवर राजनीति.
खानदानी विरासत के भरोसे कब तक?
भारतीय राजनीति को खानदानी राजनीति और पेशेवर राजनीति के रूप में विभाजित करें तो एक छोर पर राहुल गांधी और दूसरी छोर पर नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल खड़े नजर आते हैं. राहुल गांधी खानदानी राजनीति के अगुवा हैं तो नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल पेशवर राजनीति के.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पेशेवर राजनीति के बेहतरीन उदाहरण हैं. अगर वो राजनीति में पेशेवराना अंदाज नहीं अपनाते तो वो भी शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया और रमन सिंह की तरह लंबे अनुभव के बावजूद 'सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट' की लड़ाई लड़ रहे होते. हर वक्त पार्टी नेतृत्व के कृपा पात्र बने रहने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती. पार्टी नेतृत्व से दोस्ती और दुश्मनी का क्या फायदा और नुकसान होता है, बीएस येदियुरप्पा बीजेपी में बेहतरीन मिसाल हैं.
राजनीति में पेशेवराना अंदाज...
गुजरात के मुख्यमंत्री रहते ही मोदी ने अपना हक परिभाषित किया. हक पर दावेदारी पेश की और हासिल करने के लिए गोल सेट किया. फिर क्या था एक एक करके सभी मोदी-मोदी करने लगे. राजनीतिक मंजिल हासिल करने के लिए तकनीक और प्रोफेशनल मदद ली, जिसकी बदौलत प्रशांत किशोर उर्फ पीके की एंट्री होती है.
बीजेपी के सबसे बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी के सामने परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं और मोदी ने उसका पूरा फायदा उठाया. अगर परंपरागत राजनीति के सहारे होते तो कामयाबी भले ही करीब फटकती नजर आती, लेकिन शायद ही कभी हाथ भी आती.
खानदानी राजनीति में रहते हुए भी राहुल गांधी ने मोदी की तरह ही काट छांट की तो है, लेकिन सब कुछ उलझा हुआ है. राहुल गांधी को डेढ़ दशक से ज्यादा हो चुके एक्सपेरिमेंट करते. राहुल गांधी कहते हैं कि वो सिस्टम को बदलना चाहते हैं, लेकिन अब तक वो अपनी कोई टीम नहीं बना पाये. राहुल गांधी के सलाहकार भी ऐसे लगते हैं जैसे वो अपनी दुकान चलाते रहने के लिए सिर्फ उनकी चापलूसी करते रहते हैं - और बात बात में उन्हें फंसा देते हैं. आखिर राहुल गांधी सलाहकारों की स्क्रिप्ट पर कब तक एक्टिंग करते रहेंगे?
जीनियस होने की बात अलग है, लेकिन हर इंसान में सारी काबिलियत कूट कूट कर भरी नहीं होती - और किसी भी बड़े काम की कामयाबी के पीछे टीम वर्क होता है. राहुल गांधी के सलाहकारों की टीम भी खानदानी ही होती है. अगर स्थिति की गंभीरता को समझे होते और खानदानी राजनीति की बजाय पेशेवराना अंदाज अपनाये होते तो असल कांग्रेस के हाथ से नहीं निकलता. तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई के चक्कर में राहुल गांधी हिमंता बिस्व सरमा जैसा नेता गंवा बैठे और कांग्रेस के हाथ से असम फिसल गया. बीजेपी तो लपकने की ताक में बैठी ही हुई थी.
खानदानी राजनीति का आलम ये है कि सलाहकारों की टीम भी खानदानी राजनीति से ही खड़ी होती है. टीम राहुल के नेताओं पर ध्यान दीजिये - या तो कांग्रेस के पुराने दरबारी रहे हैं या फिर पुराने नेताओं के बेटे-बेटी हैं.
पक्की बात है मौका हर किसी को मिलता है. प्रशांत किशोर ने मोदी से पहले और बाद में भी राहुल गांधी से संपर्क किया था, लेकिन राहुल गांधी के सलाहकारों की टीम ने उन्हें गुमराह कर दिया. जो शख्स एक नेता को प्रधानमंत्री बनवा सकता हो और फिर उस नेता के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उसी के खिलाफ एक अन्य नेता को मुख्यमंत्री बनवा देता हो - क्या राहुल गांधी के लिए कुछ भी नहीं कर पाता?
बेशक राहुल गांधी अपनी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका वाड्रा की सलाह से 2019 के सफर में आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन, जब तक वो खानदानी राजनीति से अपना फोकस पेशेवर पॉलिटिक्स की ओर शिफ्ट नहीं करते - अच्छे दिन तो नहीं ही आने वाले!
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