मोदी को हटाना है, देश बचाना है तो उसके लिए सावरकर बनो!
हम नहीं कहते उद्धव कह रहे हैं अपने मुखपत्र के माध्यम से! पिछले दिनों राजनीति में एक ख़ास उबाल आया जिससे कांग्रेस के उभरने के आसार बन गए थे ; लेकिन एक बार फिर बोल वचनों ने ‘हवा निकाल दी’ पार्टी की.
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यूँ तो अनेकों बोल बचन हैं या कहें तो पूरा का पूरा विमर्श ही बोल बचनों पर खड़ा किया जा रहा है, लेकिन दो चार विकट आत्मघाती हैं. एक बड़े नेता प्रमोद तिवारी ने ' सामान्यतः मानहानि के केसों में फाइन लगाया जाता है। यहां पर राहुल गांधी की पहली गलती पर उन्हें अधिकतम सजा दी गई है' और 'गांधी फैमिली से आते हैं राहुल, इसलिए सजा कम की जानी चाहिए थी' कहकर बातों बातों में स्वीकार ही कर लिया कि राहुल गाँधी ने गलती की.
ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कहते बल्कि कांग्रेस के ही दूसरे नेता आचार्य प्रमोद कृष्ण को भी यही लगता है. डिसक्वॉलिफिकेशन से जहां राहुल स्वयं प्राउड फील कर रहे हैं और ट्विटर पर एक ख़ास अंदाज में अपना बायो वदल कर खुद को डिस्क्राइब कर रहे है 'Dis’Qualified MP' ; वहीँ बहन प्रियंका वाड्रा का जोश इस कदर हाई हो उठा है कि उसने देश के लिए परिवारवाद की महत्ता का गुणगान करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ते हुए भाई की तुलना भगवान् श्री राम से तथा नेहरू-गांधी परिवार की तुलना राजा दशरथ के परिवार से कर डाली. बात यहीं नहीं रुकी, एक के बाद एक सभी कांग्रेसी नेता अपने अपने बोल वचनों से देश के लोकतंत्र पर गांधी परिवार को तरजीह देते नजर आने लगे.
सबसे ज्यादा आत्मघाती रहा राहुल का एक बार फिर वीर सावरकर को नीचा दिखाने वाला कथ्य कि माफ़ी सावरकर मांगता था और वह गांधी है सावरकर नहीं
खैर, इन बोल वचनों को दरकिनार किया जा सकता था, मुक्ति पाई जा सकती थी कि समर्पित नेता भावनाओं में बह गए. लेकिन राहुल गाँधी की प्रेस कांफ्रेंस ने कबाड़ा ही कर दिया. जिस किसी पत्रकार ने थोड़ा कटु सवाल पूछा तो वह बीजेपी का सिखाया पढ़ाया हो गया ! सही भी है प्रेसवार्ता का यही तो मतलब है- अपनी अपनी प्रेस वार्ता अपने अपने पत्रकार ! 'गोदी' इधर भी है, 'गोदी' उधर भी है ! एक तरफ तथाकथित सबसे ज्यादा "निष्पक्ष" पत्रकार को ये कहकर शर्मसार कर दिया कि वे अक्सर उनके लिए बोलते हैं और दूसरी तरफ किसी ने बीजेपी के ओबीसी वाले कार्ड को लेकर क्या पूछा कि उसे भाजपा का बता दिया, कह दिया कि क्यों प्रेस मैन होने का नाटक करते हो, बीजेपी का बिल्ला लगा लो और यहाँ तक कह दिया ....'हवा निकल गई'.
प्रेस को लेकर और भी बकैती करते रहे और विडंबना देखिए प्रेस वाले सुनते रहे और सब कुछ हुआ "खतरे में मीडिया की फ्रीडम" का दम भरते हुए ! लगता है इस बार जयराम रमेश चूक गए पत्रकारों को सवालों की तैयारी कराने में या फिर जानबूझकर ड्रामा सेट किया गया था कि गेन होगा परंतु उल्टा पड़ गया. और शायद इसीलिए कांस्पीरेसी थ्योरी भी प्रतिपादित की जाने लगी हैं कि कांग्रेस के अंदरखाने अंदर घात हो रही है.
और सबसे ज्यादा आत्मघाती रहा राहुल का एक बार फिर वीर सावरकर को नीचा दिखाने वाला कथ्य कि माफ़ी सावरकर मांगता था और वह गांधी है सावरकर नहीं. "क्षमा वीरस्य भूषणम" जहां बड़प्पन समझा जाता हो और फिर अटल जी की लाइनें भी याद आती है, ' छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता' लगता है उन्हें कोई समझाईश भी नहीं देता या वे अपने अनुभवी नेताओं की बातें सुनते ही नहीं है. सो इस बार उद्धव ठाकरे ने भी खरी खरी सुना दी है राहुल को कि कुछ कर गुजरना है, अपना अस्तित्व बचाना है तो उसके लिए सावरकर बनो. 'सामना' के संपादकीय ने राहुल को, कांग्रेस को एक अलग ही विमर्श खड़ा करते हुए आईना दिखा दिया है और चेतावनी भी दे दी है कि आइंदा बाज आएं वरना .............!
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