Rahul Gandhi का वायनाड दौरा बता रहा है कि अमेठी वालों का फैसला सही था
जब राहुल गांधी के दो-दो सीटों से चुनाव लड़ने की जानकारी मिली तो एक ही सवाल था - अमेठी या वायनाड. अमेठी से पहले राहुल गांधी की वायनाड यात्रा ने सारे भ्रम तोड़ दिये हैं - ये भी कि अमेठीवालों ने सही फैसला सुनाया है.
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हार की जिम्मेदारी तो Rahul Gandhi आगे बढ़ कर लेते रहे हैं - लेकिन अमेठी के मामले में अलग ही रवैया अपनाया है. ऐसा क्यों? लगता है राहुल गांधी अमेठी की हार को बिलकुल नहीं पचा नहीं पा रहे - वैसे दूसरों को अमेठी के प्रति उनका रवैया हजम नहीं हो रहा है.
Amethi बरसों से गांधी परिवार का सबसे मजबूत किला रहा है. जाहिर है राहुल गांधी या परिवार के किसी भी सदस्य ने अमेठी के हाथ से फिसल जाने के बारे में नहीं सोचा होगा. क्या यही वजह है कि राहुल गांधी को ऐसा झटका लगा है कि उबरने के लिए सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं? सही बात है - जख्मों को भरने में वक्त तो लगता है.
शुरू से ही कयास लगाये जा रहे थे कि राहुल गांधी चुनाव नतीजे आने के बाद क्या फैसला लेंगे - अमेठी या वायनाड? जीत की स्थिति में भी और हार की हालत में भी. जीतने की स्थिति में राहुल गांधी अमेठी सीट छोड़ेंगे या Wayanad- दोनों ही स्थितियों को लेकर अपनी अपनी दलीलें थीं.
हार की स्थिति में भी सवाल यही था - क्या अपने चाचा संजय गांधी के रास्ते चलेंगे या फिर दादी इंदिरा गांधी को फॉलो करेंगे? खुद राहुल गांधी की ही ओर से ये सारी उलझनें खत्म कर दी गयीं - राहुल गांधी ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रास्ते पर चलते हुए अमेठी को पीछे छोड़ वायनाड की ओर आगे बढ़ गये.
अमेठी की जनता का फैसला सही रहा
अमेठी को लेकर राहुल गांधी के पास भी बड़े सारे प्लान थे, लेकिन ये चुनाव नतीजे आने से पहले की बात है. तब भी सवाल यही था कि अमेठी या वायनाड? राहुल गांधी ने जवाब दे दिया है - और अब किसी को मुगालते में रहने की जरूरत नहीं है.
राहुल गांधी ने अमेठी पर वायनाड को तरजीह देकर कोई संदेश देने की कोशिश की है - 'यूं ही कोई बेवफा नहीं होता' अगर राहुल गांधी का यही संदेश है तो अमेठी कि जनता ने तो पहले ही इरादा जाहिर कर दिया था. राहुल गांधी आखिर तक नहीं समझ पाये. एग्जिट पोल भी मजाक लगा होगा. पूरे देश का न सही, अमेठी के मामले में तो यकीन ही नहीं हो रहा होगा. एग्जिट पोल क्या, नतीजे भी कहां भरोसा करने लायक थे.
अच्छा तो ये होता कि राहुल गांधी दिल्ली से कहीं जाने का प्लान कर रहे थे तो वो पहली जगह अमेठी होनी चाहिये थी. तब तो अमेठी ही पहले जाना चाहिये था जब वायनाड का प्रोग्राम तय हुआ.
अमेठी को छोड़ और वायनाड को अपना कर राहुल गांधी ने साबित कर दिया है कि वोटिंग के दौरान अमेठी के लोगों ने जो फैसला लिया वो बिलकुल सही था.
राहुल गांधी के लिए वायनाड पहले है - और अमेठी बाद में!
अगर राहुल गांधी ने हमेशा के लिए अमेठी को छोड़ देने का फैसला कर रखा है तो बात अलग है - वरना अमेठी से पहले वायनाड जाना राहुल गांधी की सबसे बड़ी भूल है. ऐसा भी नहीं है कि अगर राहुल गांधी पहले अमेठी जाते तो वायनाड के लोग बुरा मान जाते. वोट देते वक्त वायनाड के लोगों के मन में ही तो ये रहा ही होगा कि राहुल गांधी चुनाव नतीजों के बाद कौन सी सीट चुनेंगे? ये जानते समझते हुए भी लोगों ने राहुल गांधी को भारी बहुमत से जिताया - तो क्या राहुल गांधी के पहले अमेठी चले जाने से वे नाराज हो जाते.
राजनीतिक तौर पर तार्किक तरीका तो यही है कि राहुल गांधी को वायनाड से पहले अमेठी जाना ही चाहिये था. राहुल गांधी के इस कदम से तो यही लगता है कि राहुल गांधी अमेठी वालों को परिवार नहीं खानदानी वोट बैंक समझ रहे थे. राहुल गांधी ने अमेठी से मुंह मोड़कर वोटरों के फैसले को सही साबित कर दिया है.
सवाल है कि क्या राहुल गांधी के लिए अमेठी का मतलब सिर्फ चुनाव जिताने वाली सीट तक ही था?
राहुल गांधी और स्मृति ईरानी में फर्क
राहुल गांधी के इस अकेले फैसले से, अमेठी के वे लोग भी जिन्होंने राहुल गांधी को वोट दिये होंगे, यही समझ रहे होंगे कि कांग्रेस अध्यक्ष के बारे में बीजेपी नेता स्मृति ईरानी जो भी कह रही थीं - वो राजनीतिक विरोध की वजह से नहीं बल्कि हकीकत बता रही थीं.
ऐसा भी नहीं कि अमेठी में ये गांधी परिवार के किसी सदस्य की पहली हार हो. देश में लगी इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए चुनाव में संजय गांधी भी चुनाव हार गये थे - लेकिन तीन साल बाद जब 1980 में फिर चुनाव हुए तो मैदान में उतरे और जीत कर लोक सभा पहुंच गये. 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की ओर से कैप्टन सतीश शर्मा उपचुनाव लड़े और जीते भी. 1998 में जरूर बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े संजय सिंह ने सतीश शर्मा को हरा दिया. 1999 में सोनिया गांधी और उसके बाद से लगातार राहुल गांधी भी तो अमेठी से जीतते ही आ रहे थे.
2014 में भी राहुल गांधी ने स्मृति ईरानी को हराया ही था - बावजूद हारने के स्मृति ईरानी अमेठी से जुड़ी रहीं. किसी न किसी बहाने स्मृति ईरानी अमेठी पहुंच ही जाती थीं - और राहुल के खिलाफ लोगों को भड़काती रहीं. शायद राहुल गांधी ये समझने को तैयार न थे कि किसी के भड़काने से अमेठी के लिए उनके खिलाफ चले जाएंगे.
क्या राहुल गांधी अमेठी को जमीदारी जैसा वोट बैंक समझ रहे थे? अगर ऐसा कोई मुगालता रहा तो अब सारे भ्रम टूट ही गये होंगे. अब तो राहुल गांधी को भी मान लेना चाहिये कि स्मृति ईरानी ने कैसे एक फाइटर की तरह कांग्रेस की गुफा में घुस कर जबड़े से जीत को छीन कर लोक सभा पहुंच आयीं. कांग्रेस नेताओं की जो भी राय हो - राहुल गांधी के लिए अमेठी की हार बहुत बड़ा सबक है. हार के बाद अमेठी की जगह वायनाड चुनना अगले सबक का आगाज है.
राहुल ने अमेठी को हमेशा के लिए गवां दिया है
जमीदारी कब की चली गयी लेकिन बहुतों का भ्रम अब तक नहीं टूटा है. मालूम नहीं कांग्रेस नेता और खुद राहुल गांधी क्या अंदाजा लगा रहे थे - वैसे अमेठीवाले भी तो देश के बाकी हिस्सों के लोगों जैसे ही हैं. हैं कि नहीं?
जब यूपी कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर के सामने अमेठी में राहुल गांधी की हार को लेकर सवाल उठा, तो जवाब रहा, 'मैं इतना कह सकता हूं कि राहुल गांधी ने अमेठी को एक लोक सभा क्षेत्र की तरह नहीं बल्कि अपने परिवार की तरह देखा. अब घरवालों ने ही इस तरह का फैसला दे दिया.' क्या राज बब्बर ये समझाना चाहते हैं कि अमेठी को राहुल गांधी ने घर समझा और घरवालों ने बाहर कर दिया. अगर घरवालों ने बाहर कर दिया तो क्या वो कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखेंगे?
लोगों के मन में सवाल था कि राहुल गांधी संजय गांधी का तरीका अपनाएंगे या दादी इंदिरा गांधी ने जो राह दिखायी है उस पर चलेंगे? सवाल का जवाब राहुल गांधी ने खुद ही दे दिया है - दादी इंदिरा गांधी का रास्ता ही ठीक है.
1977 में चुनाव हार जाने के बाद भी संजय गांधी ने अमेठी को नहीं छोड़ा - और अमेठी के लोगों ने भी संजय गांधी को लोक सभा भेज कर भूल सुधार कर लिया. इंदिरा गांधी ने बिलकुल अलग रास्ता अपनाया था. 1977 में रायबरेली से चुनाव हार जाने के बाद इंदिरा गांधी ने हमेशा के लिए रायबरेली से मुंह मोड़ लिया.
फिर भी मानना पड़ेगा रायबरेली के लोगों को. बरसों बाद जब राहुल गांधी के लिए अमेठी छोड़ कर रायबरेली पहुंची तो रायबरेली के लोगों ने निराश नहीं किया बल्कि सिर आंखों पर ही बिठाया. इस बार भी राहुल गांधी अमेठी से हार गये लेकिन सोनिया गांधी ने चुनाव जीत लिया.
1975 में देश में इमरजेंसी लागू करने के बाद 1977 के चुनाव में जनता पार्टी के राजनारायण ने इंदिरा गांधी को 55,202 वोटों से शिकस्त दे दी थी. राहुल गांधी की भी अमेठी में हार का अंतर करीब करीब इतना ही है. 1978 के उपचुनावों में इंदिरा गांधी ने उत्तर भारत से दक्षिण का रुख कर लिया और कर्नाटक की चिकमगलूर संसदीय सीट से लोक सभा पहुंचीं. 1980 में भी इंदिरा गांधी रायबरेली नहीं लौटीं बल्कि मेडक लोक सभा से चुनाव लड़ने पहुंच गयीं. मेडक फिलहाल तेलंगाना में है - और वहां कांग्रेस के 18 विधायकों में से दो तिहाई 12 एमएलए ने सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति में निष्ठा दिखायी है. 1984 में हत्या होने तक इंदिरा गांधी मेडक की ही नुमाइंदगी करती रहीं - कभी रायबरेली के बारे में सोचा तक नहीं.
राहुल गांधी ने भी अमेठी के साथ वैसा ही व्यवहार किया है जैसा इंदिरा गांधी ने रायबरेली के लोगों के साथ किया था - जरूरी नहीं कि अमेठी के लोग राहुल गांधी को भी माफ कर दें.
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