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Updated: 15 दिसम्बर, 2020 01:00 PM
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राहुल गांधी और सोनिया गांधी (Rahul Gandhi and Sonia Gandhi) कांग्रेस के लगातार घटिया प्रदर्शन को लेकर पार्टी के ही सीनियर नेताओं के निशाने पर हैं. G-23 के नेता कपिल सिब्बल ने तो साफ साफ बोल दिया है कि 'कांग्रेस नेतृत्व को हार की अब आदत सी पड़ चुकी है.'

बिहार विधानसभा चुनाव बहुतों के लिए सियासत का बैरोमीटर साबित हो रहा है. चुनाव नतीजों के हिसाब से ही हर नेता और राजनीतिक दल की हैसियत की पैमाइश जो होती है. राहुल गांधी ही नहीं, चाहें वो नीतीश कुमार हों, तेजस्वी यादव हों या फिर असदुद्दीन ओवैसी. असदुद्दीन ओवैसी के लिए तो बिहार चुनाव AIMIM के राजनीतिक सफर में मील का पत्थर साबित हो रहा है.

ये बिहार चुनाव के नतीजे ही हैं कि असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) का जोश हाई हो चला है और वो बंगाल से लेकर केरल और तमिलनाडु तक आने वाले दिनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी दावेदारी और हिस्सेदारी जताने के लिए तैयारियों में युद्ध स्तर पर जुट गये हैं.

ऐसा लग रहा है जैसे देश की राजनीति में जो काम राहुल गांधी और सोनिया गांधी को करना चाहिये, असदुद्दीन ओवैसी करने लगे हैं - और ऐसा लगता है जैसे ओवैसी कांग्रेस की विपक्ष के नेता (Opposition) वाली जगह भी हासिल करने की फिराक में हों - फिर तो साफ है, कांग्रेस के सबसे बड़े विपक्षी दल होने का किरदार AIMIM निभाने लगे तो असदुद्दीन ओवैसी तो ऐतिहासिक पार्टी समझी जाने वाली कांग्रेस को ही इतिहास बना देंगे.

ओवैसी का राष्ट्रीय मुस्लिम एजेंडा

असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM का दावा है कि धीरे-धीरे वो पूरे देश में अपना विस्तार करेगी - और हर उस राज्य में चुनाव लड़ेगी जहां उसे थोड़ी भी सी भी संभावना नजर आएगी.

बिहार चुनाव के नतीजे और पश्चिम बंगाल में 30 फीसदी मुस्लिम वोटर होने से असदुद्दीन ओवैसी काफी कुछ उम्मीद कर रहे हैं. AIMIM प्रवक्ता आसिम वकार के मुताबिक, पश्चिम बंगाल के 22 जिलों में उनकी पार्टी अपनी यूनिट का गठन कर चुकी है. यूपी को लेकर भी ऐसी ही खबर आयी है जहां 20 से ज्यादा जिलों में पार्टी की कमान सौंपे जाने के साथ ही सदस्यता अभियान चलाया जा रहा है.

यूपी में मायावती की पार्टी बीएसपी के साथ तो तमिलनाडु में ओवैसी कमल हासन की पार्टी MNM यानी मक्कल निधि मय्यम से हाथ मिला सकती है - और यहां तक कहा जा रहा है कि दोनों में समझौते की स्थिति में AIMIM दो दर्जन सीटों पर चुनाव लड़ सकती है. असम और केरल को लेकर भी असदुद्दीन ओवैसी का करीब करीब वैसा ही इरादा है.

rahul gandhi, sonia gandhi, asaduddin owaisiकांग्रेस के सत्ता गंवाने के बाद विपक्ष के नेतृत्व पर भी असदुद्दीन ओवैसी खतरा बन कर मंडराने लगे हैं.

बीजेपी के राजनीतिक विरोधी उस पर सांप्रदायिकता की सियासत का इल्जाम लगाते हैं, तो पार्टी फौरन ही ये तोहमत तुष्टिकरण के आरोप के साथ वापस लौटा देती है. एक आम धारणा बनी हुई है कि जिस पार्टी पर बीजेपी को चैलेंज करने का यकीन होता है, मुस्लिम समुदाय उसी को वोट करता है. पहले तो एनडीए में रह कर नीतीश कुमार भी अपनी सेक्युलर छवि बनाये हुए थे, लेकिन धारा 370 और सीएए का सपोर्ट कर वो बीजेपी के पिछलग्गू के रूप में देखे जाने लगे - और तभी ऐन मौके पर असदुद्दीन ओवैसी ने बिहार चुनाव में एंट्री मारी और पांच सीटें झटक कर अपने राष्ट्रव्यापी इरादे जाहिर कर दिये.

बिहार में मौका गंवा चुकी कांग्रेस आम चुनाव के बाद से ही यूपी में प्रियंका गांधी वाड्रा की अगुवाई में मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में करने की कवायद में जुटी हुई है. प्रियंका गांधी दलित और मुस्लिम वोटों को लिए कोशिश तो कर रही हैं, लेकिन अब चर्चा है कि असदुद्दीन ओवैसी यूपी में मायावती के साथ चुनावी गठबंधन करने जा रहे हैं - अगर ऐसा हुआ तो समाजवादी पार्टी के साथ साथ कांग्रेस भी घाटे में ही रहेगी.

राहुल-सोनिया को चैलेंज करते ओवैसी

बिहार चुनाव में देखें तो कांग्रेस और ओवैसी की पार्टी का स्ट्राइक रेट करीब करीब बराबर ही रहा है - कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ कर 19 सीटें जीती, तो ओवैसी की पार्टी को 20 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद 5 सीटों पर जीत मिल गयी.

दरअसल, कांग्रेस जिसे अपनी सबसे बड़ी कमजोरी मानती है, वही ओवैसी के ताकतवर होते जाने का राज है. ओवैसी की पार्टी घोषित मुस्लिम पार्टी है, जबकि कांग्रेस अघोषित मुस्लिम पार्टी है - क्योंकि सोनिया गांधी भी ऐसा ही मानती हैं. राहुल गांधी जनेऊ धारण करने से लेकर मंदिर और मठों से होते हुए कैलाश मानसरोवर की यात्राएं यही दाग छुड़ाने के लिए होती रही हैं - अगर राहुल गांधी एक बार मान लेते कि 'दाग अच्छे हैं' तो संभव था कांग्रेस का भी भला हो जाता.

कांग्रेस नेतृत्व और ओवैसी में एक बड़ा फर्क ये है कि कांग्रेस की तरफ से गठबंधन को लेकर हमेशा अनिच्छा का अहसास होता आया है. राहुल गांधी 'सम्मान जनक सीटें' जैसी शर्त हर जगह रख दे रहे हैं. अब अगर कोई क्षेत्रीय मजबूत दल झुक कर हाथ मिलाने को तैयार न हुआ तो कांग्रेस के साथ गठबंधन तो होने से रहा. बिहार ताजातरीन उदाहरण है.

दूसरी तरफ ओवैसी जहां कहीं भी जा रहे हैं पहले गठबंधन का ही प्रस्ताव रख रहे हैं. 2017 में यूपी में बीएसपी के सामने ऐसा प्रस्ताव रखा था लेकिन मायावती की तरफ से ठुकरा दिया गया. बिहार में भी कोशिश की ही थी - और पश्चिम बंगाल को लेकर तो पहले से ही ममता बनर्जी के सामने गठबंधन का प्रस्ताव रख चुके हैं. हालांकि, वो भी ठुकराया जा चुका है.

2019 के चुनाव में ये गठबंधन की ही शर्तें रही, जिनके चलते कांग्रेस ने ये हाल बना रखा है. तब बीजेपी के बागी नेताओं अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा ने विपक्षी नेताओं से मुलाकात में बीजेपी को हराने का एक बेहद कारगर नुस्खा सुझाया था - और उस पर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेता अमल करना भी चाह रहे थे. चंद्रबाबू नायडू ने तो जीतोड़ कोशिशें भी की, लेकिन कुछ भी नहीं हुआ.

गठबंधन का फॉर्मूला ये रहा कि जिस राज्य में जो राजनीतिक दल मजबूत है, वो वहां नेतृत्व करे - और कांग्रेस पूरे देश में सभी क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़े. इसके अनुसार, जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में रही वहां तो नेतृत्व की वो स्वाभाविक तौर पर हकदार होती, लेकिन पश्चिम बंगाल में ऐसा तृणमूल कांग्रेस को करना था, दिल्ली में आम आदमी पार्टी को, आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी को और ऐसे ही बाकी राज्यों के क्षत्रपों के साथ होने की बात हुई थी.

तब विपक्षी दलों के सम्मेलन में कांग्रेस की तरफ से कोई न कोई प्रतिनिधि भेज दिया जाता रहा. कोलकाता, दिल्ली और पटना रैली सभी जगह यही देखने को मिला - लेकिन दिल्ली में राहुल गांधी एक मीटिंग में जरूर शामिल हुआ जहां विपक्षी खेमे के सारे बड़े नेता जुटे थे. ममता बनर्जी ने राहुल गांधी को बार बार गठबंधन के लिए राजी करने की कोशिश की. आखिर में राहुल गांधी ये कह कर पीछा छुड़ा लिये कि प्रदेश के नेताओं से बात कर कोशिश करते हैं. न तो पश्चिम बंगाल में अधीर रंजन चौधरी मानने वाले थे, न दिल्ली में तब शीला दीक्षित. आंध्र प्रदेश में भी प्रदेश के नेताओं का वैसा ही रवैया रहा - यूपी में तो मायावती ने अखिलेश के साथ गठबंधन में कांग्रेस लिए नो एंट्री ही घोषित कर रखी थी.

कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी जीत 1984 की रही जब इंदिरा गांधी की सहानुभूति लहर में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 404 सीटें जीतने में कामयाब रही. ये तभी की बात है जब बीजेपी को दो सीटें मिली थीं - और तेलुगु देशम पार्टी 30 सीटों के साथ सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी हुआ करती थी.

ये वो चुनाव रहा जब कांग्रेस उम्मीदवारों से बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर में और चंद्रशेखर बलिया में चुनाव हार गये थे, लेकिन कांग्रेस की इंदिरा सहानुभूति लहर में भी AIMIM ने हैदराबाद सीट जीत ली थी. तब असदुद्दीन ओवैसी के पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी निर्दल चुनाव लड़े थे - और तब से हैदराबाद AIMIM के कब्जे में ही रहा है. 2004 से हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी चुनाव जीतते आ रहे हैं और संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं.

ओवैसी में वो सब कुछ है जिसके लिए ममता बनर्जी जैसे नेता मन मसोस कर रह जाते हैं - अच्छी हिंदी बोलना. ममता बनर्जी का बंगाल से बाहर क्या है? ओवैसी हैदराबाद से निकल कर तेलंगाना और महाराष्ट्र के साथ साथ बिहार तक पार्टी का झंडा फहरा चुके हैं - अगर बिहार की तरह बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और यूपी में भी पांच-पांच सीटें ही जीत लेते हैं तो मुमकिन है, 2024 में कांग्रेस को पछाड़ भी दें.

2019 के आम चुनाव से पहले सोनिया गांधी को मलाल था कि बीजेपी और संघ ने मिल कर कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी प्रचारित कर दिया - और मुकाबले के लिए राहुल गांधी तरह तरह के वेष धारण कर सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति में हाथ आजमाते रहे. कांग्रेस मुस्लिम पार्टी तो नहीं बनी है, लेकिन जो हाल बना रखा है, वो दिन दूर नहीं लगता जब वो सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी की अपनी पोजीशन एक मुस्लिम पार्टी असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM को गिफ्ट कर दे.

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