राजस्थान कांग्रेस: इस पावर-गेम में सोनिया गांधी के आदर्श क्या गहलोत और पायलट सुनेंगे?
सोनिया गांधी ने राजस्थान कांग्रेस के भीतर लगी आग पर पानी डालने की कोशिश की है. लेकिन राहुल गांधी की तरह वे भी चूक कर रही हैं कि अशोक गहलोत और सचिन पायलट की लड़ाई पार्टी और सत्ता में वर्चस्व की है, पार्टी आदर्शों की नहीं.
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कांग्रेस की अंतरिम राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दोनों को दिल्ली बुलाकर करीब 45 मिनट तक बातचीत की है. खबरें यह भी आ रही हैं कि राजस्थान में जिस तरह से दोनों नेता आपस में लड़ रहे हैं उसे लेकर सोनिया गांधी ने दोनों से अपनी नाराजगी जताई है. कहा जा रहा है कि सोनिया गांधी ने दोनों को यह समझा कर भेजा है कि एक साथ मिलकर काम करो. लेकिन सोनिया गांधी को समझना पड़ेगा कि राजनीति पावर गेम है और पावर गेम आदर्शों से नहीं चलता है. यह तो निर्मम होता है.
उसके बाद सोनिया गांधी ने कांग्रेस शासित मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई तो उसमें राजस्थान के उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट को भी बुलाया गया. कहा गया कि सचिन पायलट ने इसके लिए सोनिया गांधी से विशेष आग्रह किया था कि इस बैठक में उन्हें भी बुलाया जाए. दोनों के बीच मचे घमासान का यह फौरी हल तो हो सकता है मगर यह प्रयोग कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने खूब किया थ, जो फोटो अपॉर्चुनिटी से ज्यादा कुछ भी नहीं था. राहुल गांधी कभी दोनों के हाथ उठाकर एक साथ भरी सभा में मिलवाते थे तो कभी दोनों को एक साथ गाड़ी में बिठाकर जनता के बीच भेजते थे. पूरे राज्य में एक साथ बस में घुमाया मगर कोई स्थाई समाधान नहीं निकला. निकल भी नहीं सकता है क्योंकि राजनीति तो महत्वाकांक्षाओं का विस्तार होता है, यह किसी मरहम का मोहताज नहीं होता है.
सोनिया गांधी ने सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दोनों से करीब 45 मिनट तक दिल्ली में बुलाकर बातचीत की है
अशोक गहलोत पावर गेम में खुद को मजबूत करने पर उतारू हैं तो दूसरी तरफ जैस-जैसे दिन बीत रहे हैं सचिन उतावले होते जा रहे हैं. पावर ऐसी चीज होती है कि कोई आधे-अधूरे पावर के साथ नहीं जीना चाहता है. और यह समस्या दोनों तरफ है. अशोक गहलोत बार-बार कहते हैं कि जनता ने उनके लोकप्रिय चेहरे पर वोट दिया है. जनता उन्हें मुख्यमंत्री देखना चाहती थी इसलिए कांग्रेस को वोट दिया है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बार-बार ऐसा कह रहे हैं इसका मतलब यह है कि वह सचिन पायलट को जताना चाहते हैं कि वो मुख्यमंत्री बनने का मोह छोड़ दें. कई बार ऐसा भी कहा गया कि अशोक गहलोत जब यह कहते हैं कि उनके चेहरे पर वोट मिला है तो यह तो आलाकमान से बगावत है मगर अशोक गहलोत फिर भी नहीं रुकते हैं. साफ है कि यह झगड़ा मिटाना दिल्ली दरबार के वश में नहीं है. कांग्रेस का दिल्ली दरबार इतना कमजोर हो चुका है कि पार्टी को चलाने के लिए क्षेत्रीय क्षत्रपों के ऊपर निर्भर है. गहलोत जब भी इस तरह का बयान देते हैं सचिन पायलट अपना दम दिखाने के लिए बेचैन हो उठते हैं.
कहा जाता है कि अशोक गहलोत यह सब इसलिए कह रहे हैं कि वह सचिन पायलट के खेमे से बेहद परेशान हो चुके हैं. वह चाहते हैं कि सरकार में जो काम हो रहा है उसे पार्टी के कार्यकर्ता जनता तक पहुंचाएं मगर पार्टी पर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट का कब्जा है. यानी अशोक गहलोत ने सचिन पायलट को मुख्यमंत्री पद से रोकने के बाद अब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से भी विदाई की चाल चल दी है. कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं में शुमार संदीप चौधरी और राज्य में मंत्री हरीश चौधरी जब 'एक व्यक्ति एक पद' की मांग करते हैं तो इशारा साफ है कि पायलट के लिए कहा जा रहा है कि वह प्रदेश अध्यक्ष का पद छोड़ दें. मुख्यमंत्री न बनने का मलाल अभी पायलट के दिलो दिमाग से गया नहीं था कि 'एक व्यक्ति एक पद' की मांग उठाकर गहलोत खेमे ने सचिन पायलट के जले पर नमक छिड़क दिया है. यही वजह है कि इतने दिनों से शांत बैठे सचिन पायलट ने अपने सभ्य तरीके से ही सही मगर हमला करना शुरू कर दिया है.
पायलट कहते हैं कि राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है और यह ठीक होनी चाहिए. कभी सरकार के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि पहलू खान के मामले में सरकार ने देरी कर दी, एसआईटी का गठन पहले हो जाना चाहिए था. कभी पूछ लो कि मुख्यमंत्री नहीं बनने का मलाल है तो कहते हैं 'पद क्या होता है, मैं ऐसे पद पर नहीं बैठना चाहता जहां लोगों की आंखों में आंसू ना पूछ पाऊं', अगर मैं मुख्यमंत्री पद पर बैठता राजस्थान के लोगों के चेहरे पर खुशी देखता. मगर सच्चाई तो यह है सचिन पायलट के अंदर का गम बोलता रहता है. पायलट को लगता है कि हमने 5 साल तक सड़कों पर संघर्ष किया और जब मजा लूटने का मौका आया तो अशोक गहलोत मैदान मार ले गए. सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद पायलट खेमा इस बात से खुश है कि पहली बार सोनिया गांधी ने सचिन पायलट को 45 मिनट तक सुना है, यानी प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए अभयदान मिल गया है.
पायलट कहते हैं कि राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है और यह ठीक होनी चाहिए
मुख्यमंत्री पद को लेकर जब चयन हो रहा था तब पायलट ने थोड़े बहुत तेवर भी दिखाए थे और वही तेवर आज तक अशोक गहलोत और उनके बीच तल्खी की वजह भी है. सचिन पायलट का एक अपना खेमा है जिसे समझौते के रूप में मंत्रिमंडल में अच्छी जगह मिली है और यह लोग सचिन पायलट के साथ रहते हैं. स्वाभाविक सी बात है कि जिस मुख्यमंत्री के अंदर यह मंत्री काम करते हैं उन्हें यह बात नागवार गुजरेगी कि उनका मंत्री कहीं और से हुक्म लेकर आता है. उधर सचिन पायलट को ठीक नहीं लगता कि उन्हें समझौते में उपमुख्यमंत्री तो बना दिया गया मगर कांग्रेस की सरकार में उनकी हैसियत अशोक गहलोत के करीबी मंत्रियों से भी कम है. अफसर सीधे अशोक गहलोत और सीएमओ को रिपोर्ट करते हैं. पायलट के हमलों के बारे में जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से पूछा जाता है तो मुस्कुरा कर कह देते हैं- 'यह तो अपने-अपने अनुभव की बात है.' यानी इशारों-इशारों में कह देते हैं कि अभी सचिन पायलट के पास अनुभव की कमी है बहुत कुछ सीखना बाकी है.
राजस्थान में 2018 में कांग्रेस ने सरकार बना ली और इसके साथ ही सरकार के अंदर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच के झगड़े की खबरें आनी शुरू हो गईं. यह सच है कि दोनों नेता एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं. राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के दो खेमे हैं. यह लड़ाई कोई नई नहीं है. दिसंबर 2013 के चुनाव में जब कांग्रेस हारी तब मुख्यमंत्री पद से अशोक गहलोत हटाए गए और राज्य में युवा एवं नए नेतृत्व के नाम पर यूपीए-2 के केंद्रीय मंत्री सचिन पायलट की राजस्थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर ताजपोशी हुई. उस वक्त से ही राज्य के सबसे कद्दावर नेता अशोक गहलोत और कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की पसंद युवा नेता सचिन पायलट राजस्थान कांग्रेस की दो धुरी बन गए. इनके चेलों ने भी अपने अपने हिसाब से कांग्रेस मे दो खेमे बना लिए.
अशोक गहलोत के बारे में कहा जाता है कि यह राजनीति के चतुर सुजान हैं. अशोक गहलोत किसी के जाप्ता करने का प्लान बना लेते है तो फिर वह उसे छोड़ते नहीं है. लोग उदाहरण देते हैं कि कैसे अशोक गहलोत ने परशुराम मदेरणा, शीशराम ओला और सीपी जोशी जैसे नेताओं को ठिकाने लगाया था. अशोक गहलोत के बारे में कहा जाता है कि वह चाल कहां चलते हैं और निशाना कहां रखते हैं यह किसी को पता नहीं चलता. जब सचिन पायलट अपनी ताजपोशी की तैयारी कर रहे थे उसी वक्त अशोक गहलोत राजस्थान की सभी विधानसभा सीटों पर अपनी गोटी सेट कर चुके थे, और जब मुख्यमंत्री बनने का मौका आया तो कह दिया लोकतांत्रिक तरीके से चयन होगा. जिसके पास ज्यादा विधायक हैं वही मुख्यमंत्री बनेगा. जाहिर सी बात है कि अशोक गहलोत के पास राजस्थान में 30 साल से ज्यादा का राजनीतिक कैरियर है जबकि सचिन पायलट के पास महज 10 साल का. ऐसे में अशोक गहलोत के साथी ज्यादा होना लाजमी था और राहुल गांधी के भरोसे बैठे रहे सचिन पायलट मौका गंवा बैठे.
अशोक गहलोत राजनीति के चतुर सुजान हैं
जब भी पायलट समर्थक पायलट को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर नारे लगाते थे, चुपचाप बैठे गहलोत समर्थक कहते थे कि गांधी परिवार में राहुल गांधी का फैसला अंतिम फैसला नहीं होता है. परिवार में और लोग भी हैं जो चीजों को तय करते हैं. कहते हैं कि हुआ भी यही. सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी अशोक गहलोत के पक्ष में हो गए और उनका पलड़ा भारी हो गया. पायलट खेमा कहता है कि यह तो फालतू की बातें हैं कि पायलट के पास विधायक का समर्थन नहीं था, जब मोदी ने हरियाणा में खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया तो कौन से विधायकों से वोटिंग करवाई थी. साफ है कि यहां जब पायलट और गहलोत खेमे की बात होती है तो बात सिर्फ इन दोनों नेताओं के खेमे भर की नहीं रह जाती है, बात दिल्ली तक जाती है और लोग कहते हैं कि कांग्रेस के अंदर आलाकमान के घर भी कई खेमे हैं.
मगर इसका मतलब यह न समझ जाएगा कि राजस्थान में कांग्रेस सरकार को कोई खतरा है. यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि आजादी के बाद उत्तर भारत में दल बदल कानून बनने से पहले हर राज्य में बहुमत की सरकार गिरी है. मगर राजस्थान में कभी भी अल्पमत की सरकारें भी नहीं गिरी हैं. पूर्व मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत ने भानुमति का कुनबा जोड़कर चार बार सरकार बनाई मगर वह आसानी से अल्पमत की सरकार चलाते रहे. अशोक गहलोत को तीन में से दो बार अल्पमत की सरकार मिली मगर बहुमत जुटाने के लिए घर से बाहर नहीं निकलना पड़ा. यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि राजस्थान का मिजाज ऐसा है कि यहां पर लोग बगावत नहीं करते हैं. आप यह भी कह सकते हैं कि राजनीतिक रूप से यह पोलिटिकली इंपोर्टेंट राज्य है. या फिर ज्यादा परिष्कृत भाषा में बोलना चाहें तो कह सकते हैं यहां पर पॉलीटिकल एक्टिविज्म ज्यादा नहीं है. यहां पर आलाकमान ने जिसे भी मुख्यमंत्री बना दिया वह चलता रहा. जिस दिन आलाकमान ने तय कर लिया कि आज से वो मुख्यमंत्री नहीं रहेगा तो चुपचाप घर बैठ गया.
दरअसल राजस्थान की तासीर ऐसी है कि यहां की आबोहवा में बगावत की बू नहीं आती. राज्य में जब पहली बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर सामने आया तो पंडित जवाहरलाल नेहरू की पसंद पंडित जय नारायण व्यास तीन बार विधानसभा का चुनाव लड़कर तीनों बार हार गए हों, मगर कांग्रेस ने फिर भी उन्हें मुख्यमंत्री बनाया था. राजीव गांधी को अशोक गहलोत पसंद थे तो उन्होंने 1998 में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कांग्रेस के कद्दावर नेता परसराम मदेरणा समेत कांग्रेस के राजेश पायलट, शीशराम ओला और नवल किशोर शर्मा जैसे नेताओं को किनारे कर अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बना दिया. ऐसा लगा कि राज्य में बगावत हो जाएगी, मगर कानाफूसी के अलावा 5 साल में किसी ने भी आवाज नहीं उठाई. यह लोग गाहे-बगाहे एक दो बयान देकर घर बैठ जाते थे और फिर कांग्रेस का नेतृत्व अपनी सुविधा के अनुसार इनका मुंह बंद करने के लिए कोई पद दे देता था. उसी में यह मस्त रहते थे. दूसरी बार जब अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने तो हर वक्त यही चर्चा चलती रहती थी कि उस वक्त राहुल गांधी के करीबी और केंद्र में भारी भरकम मंत्रालय संभाल रहे सीपी जोशी कभी भी मुख्यमंत्री की गद्दी पर आकर बैठ सकते हैं. हालात ऐसे ही थे जैसे आज सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच हैं.
मगर बाकी नेताओं में और सचिन पायलट में एक फर्क है. ये थोड़ी बहुत बगावत कर लेते हैं क्योंकि इन्होंने अपना ज्यादा जीवन राज्य के बाहर बिताया है. विदेशों में पढ़े हैं, युवा हैं, संघर्ष करने का माद्दा है, जाति का मजबूत आधार है और राहुल गांधी का साथ है. इसलिए लोगों को लग रहा है कि सचिन पायलट किसी बेहतर मौके की तलाश में बैठे हैं. उन्हें किसी दिन ऐसा लगेगा कि उनके साथ एक तिहाई विधायक आ सकते हैं तो उसी दिन बगावत कर देंगे. हालांकि सचिन पायलट ने आज तक मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ कुछ भी नहीं बोला है. अपनी नाराजगी भी जताई है तो बेहद नपे तुले शब्दों में. सचिन पायलट जानते हैं कि अशोक गहलोत अपनी आखिरी पारी खेल रहे हैं, कांग्रेस में उनका भविष्य लंबा है. राहुल गांधी भले ही किनारे पड़ गए हो मगर वह गांधी परिवार के मजबूत स्तंभ है. पायलट को लगता है कि अगर मौका मिलेगा तो राहुल गांधी जरूर साथ देंगे.
अशोक गहलोत सचिन पायलट दोनों को इस लड़ाई में अपने-अपने हिस्से का मजा मिल रहा है, मगर मर कांग्रेस रही है. आपको कहीं भी कांग्रेस का कार्यकर्ता नहीं मिलेगा. या तो सचिन पायलट खेमे का कांग्रेसी मिलेगा या फिर अशोक गहलोत का समर्थक मिलेगा. हर कांग्रेसी आपको यही पूछते मिल जाएगा कि भाई साहब इन दोनों में से कौन रहेगा. गहलोत रहेगा या जाएगा या फिर पायलट की छुट्टी होगी या पायलट सीएम बनेगा. यह कोई नहीं सोचता है कि प्रदेश में कांग्रेस कैसे मजबूत होगी और कांग्रेस को मजबूत करने के लिए क्या करना चाहिए. साफ है पायलट या गहलोत दोनों में से जीते कोई हारेगी तो कांग्रेस ही.
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